नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

तहकीकात 2: मेजर अली रजा की डायरी - ओम प्रकाश शर्मा

 संस्करण विवरण:

फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 37 | प्रकाशन: नीलम जासूस कार्यालय अंक: तहकीकात 2

पुस्तक लिंक: अमेज़न


तहकीकात 2: सीढ़ियाँ और जहर - अहमद यार खाँ | इश्तियाक खाँ

कहानी 

मेजर अली रजा एक पाकिस्तानी फौजी था जो भारत की जेल में बंद था। उसकी दिमागी हालत ठीक नहीं थी। वो कई बार जान देने की कोशिश कर चुका था।

ऐसे में यह मामला डॉक्टर रत्नाकर के पास आया और उन्होंने उसकी जाँच की तो पाया कि उसका पागलपन का रिश्ता उसकी डायरी से था।

वो डायरी जो उसने बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान लिखी थी। जहाँ भारत की सेना ने उसे गिरफ्तार किया था। 

आखिर इस डायरी में ऐसा क्या लिया था?
मेजर अली रजा की डायरी का आगे जाके क्या हुआ?

मेरे विचार 

‘मेजर अली रजा की डायरी’ जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा की उपन्यासिका है। यह उपन्यासिका नीलम जासूस कार्यालय द्वारा प्रकाशित तहकीकात पत्रिका के दूसरे अंक में प्रकाशित हुई थी। 

उपन्यासिका की शुरुआत लेखक के व्यक्तव्य  से हुई है जिसमें वो बताते हैं कि कैसे उन्होंने जब बांग्लादेश मुक्ति संग्राम पर आधारित उपन्यास इधर रहमान उधर बेईमान लिखा तो उनके एक पाठक डॉक्टर रत्नाकर ने उनसे दूसरा पक्ष दर्शाने को भी कहा और इसी के चलते डॉक्टर रत्नाकर के माध्यम से उन्हें एक पाकिस्तानी फौजी मेजर अली रजा की डायरी मिली। रत्नाकर चाहते थे कि लेखक डायरी को पाठकों के सामने रखें और जनप्रिय लेखक ओम प्रकाश शर्मा ने अपनी एक शर्त के साथ उनकी यह बात मान ली। यह डायरी कैसी थी? इसमें क्या क्या दर्ज था और लेखक ने क्या शर्त रखी ये सभी चीज इस उपन्यासिका का कथानक बनते हैं। 

यह बात तो सर्वविदित है कि बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में पाकिस्तान द्वारा बांग्लादेशी जनता, फिर चाहे वो हिंदू हों या मुस्लिम हों, पर अमानुषिक अत्याचार किया था। इन अत्याचारों को करने वालों में पाकिस्तानी फौजी, अल शम्स, अल बद्र और रजाकार जैसे समूहों के लोग भी शामिल थे। कहा जाता है कि इस पूरे वकफ़े में तीस लाख से ऊपर बंगाली लोगों का नरसंहार हुआ था और कई लोग अपने घरों को छोड़कर भागने पर मजबूर हो गए थे।

इसी दौर का चित्रण यह उपन्यासिका करती है। पर आज के समय जब हम लोग बाइनरी में चीजें देखने लगे हैं। यानी एक तरफ की चीज है तो अच्छी ही होगी दूसरी तरफ की होगी तो बुरी ही होगी। कोई एक धर्म का व्यक्ति है तो एक तरह से होगा। एक देश का व्यक्ति है तो एक तरह से होगा। और इन पूर्वग्रहों को पोसते पोसते हम इन्हें सच मान लेते हैं पर क्या असल में ऐसा होता है। व्यक्ति अच्छा या बुरा धर्म, नागरिकता या भाषा से नहीं होता। ये तो उसकी अंदरूनी चीज है। अच्छा व्यक्ति किसी भी धर्म का हो, किसी भी देश का नागरिक हो, कोई भी भाषा बोलता हो वो अच्छा होगा और बुरा व्यक्ति बुरा होगा। 

यह कहानी में ऐसे पाकिस्तानी अली रजा की है जो कि फौज में अफसर जरूर है और देश के लिए दुश्मन को मारने पर भी यकीन रखता है लेकिन उसने अपनी इन्सानियत नहीं खोई है। वो सही और गलत के बीच के फर्क को जानता है। ऐसा व्यक्ति जब उन्मादी, हिंसक क्रूर भीड़ के बीच फँसा रहता है तो उसकी क्या हालत होती है यह उपन्यासिका इसे अच्छे से दर्शाती है। साथ ही किस तरह से उस वक्त बांग्लादेशी नागरिकों पर अमानुषिक अत्याचार हुए थे ये रचना ये भी दर्शाती है। यहाँ इस बात का जिक्र करना भी जरूरी है कि लेखक क्रूर कृत्यों के वर्णन से बचे हैं। वो शुरुआत में ही अपनी सोच बता देते हैं। उनके अनुसार:

कोई इंसान अगर पशुतापूर्ण कार्य करता है तो उसके लिए ही नहीं हमारे लिए भी शर्म की बात है। पाकिस्तानी फौज के अत्याचारों से मैं अपरिचित तो था नहीं। देश विदेश के समाचार इन बातों से भरे रहते थे। मैंने अपने उपन्यास में ऐसे अत्याचारों को बहुत कम दिया है तो इसलिए कि वह मानव जाति के लिए गर्व की नहीं शर्म की बात है। (पृष्ठ 49)

यह चीज इस रचना पर भी लागू होती है। उन्होंने अत्यधिक क्रूर विवरणों को सेंसर किया है। पर भी जो कुछ दर्शाया है वो ही इतना खौफनाक है कि आप सिहर जाते हैं और एक तरह से आप भला ही मानते है कि लेखक ने उस नारकीय अनुभव के विवरणों से आपको बचाया है। 

बांग्लादेश मुक्ति संग्राम की पृष्ठभूमि पर आधारित यह रचना आज भी प्रासंगिक है। आज भी सुलेमान जैसे कई लोग हैं जो नफरत में फलते फूलते हैं और उनका मकस्द ही यही रहता है कि कि वो उस नफरत को जितना फैला सकें उतना फैला दें। ऐसे लोगों का प्रयोग राजनीतज्ञ और ताकत वाले लोग अपने स्वार्थ के लिए करते हैं और अक्सर इन्हें संरक्षण देते हैं। आम जनता इनके अत्याचारों को सहती है और जो कुछ कर सकते हैं वो सिस्टम में बँधे चुप रहते हैं। रचना से सीखा जा सकता है कि अगर इन पर समय रहते लगाम न लगाई तो ये क्या कर सकते हैं। जरूरत है तो अधिक संख्या में मेजर अली रजा जैसे लोगों की जो कि ताकतवर औहदों में मौजूदऔर इसकी कि वो भी जो कदम उठाएँ शुरुआत में ही उठा दें ताकि जुल्म भयावह न हो। 

यह रचना कलेवर में छोटी जरूर है लेकिन यह दर्शाने में सफल होती है कि कैसे नफरत व्यक्ति को अंधा और जानवरों से भी बदत्तर बना देती है। अगर इसे नहीं पढ़ा है तो इसे पढ़ डालिए। आज के समय में जब नफरत उफान पर है यह कृति अगर आपके भीतर कोई नफरत है तो उसे धोने का कार्य ही करेगी और आपको संप्रदाय, देश, भाषा से ऊपर व्यक्ति को पहले व्यक्ति की तरह देखने के लिए प्रेरित करेगी। 

रचना के कुछ अंश:

"पागल है", सदर के सलाहकार ने कहा - "इस तरह के पागलपन की बीमारी हमारे आर्मी स्टाफ में आम पाई जाती है। जैसे जैसे फौजी का रुतबा बढ़त है वैसे-वैसे वह आदमी से जानवर हो जाता है। तुम होशियार रहना मेजर। हो सकता है कि रुतबा बढ़ने के साथ-साथ तुम भी इस बीमारी के शिकार हो जाओ।... " (पृष्ठ 52)

 

इसलिए कि मैं फौजी हूँ, कसाई नहीं हूँ। फौजी और कसाई में कुछ बुनियादी फर्क होते हैं। 
किसी की जान ले लेना फौजी का काम जरूर है, लेकिन फौजी जिसकी जान लेता है, वह इस परिस्थिति में भी होता है कि मौका लगे तो वह भी जान ले सके। 
हथियार डाल देने पर, घायल हो जानए पर फौजी दुश्मन की दोस्त की तरह देखभाल भी करता है। (पृष्ठ 58)

मुगलों की हुकूमत में हिंदू रहे, हिंदू राजाओं की हुकूमत में मुसलमान रहे। मुझे यह पसंद नहीं है कि हिंदुस्तान में मुसलमानों पर, पाकिस्तान में हिंदुओं पर जुल्म हो। रियाया हर हालत में रियाया, हुकूमत को उसकी हिजाफत की गारंटी देनी ही चाहिए। (पृष्ठ 64) 

 

पाकिस्तान बनने के बाद भी जो पाकिस्तान में भारत के खिलाफ नफ़रत की मुहीम चलाई उससे पाकिस्तान का फायदा नहीं नुकसान ही हुआ है। 

जहाँ बँटवारे के बाद हिंदुओं ने अपने आपको संभाला, नेहरू जैसे खुले दिमाग वाले इंसान के हाथ में कौम की बागडोर दी, वहाँ हमारी नफरत, हमारी जहालत और हमारी अंधी कौम-परस्ती ने अच्छे लोगों के हाथ में मुल्क की बागडोर नहीं दी... (पृष्ठ 64)

फौजी होकर भी मैं फौजी हुकूमत को नापसंद करता हूँ। साफ कह देना चाहता हूँ कि फौजी सिर्फ बंदूक की जबान सुनना चाहता है, और जो सिर्फ बंदूक की जबान समझता हो वह इंसानी आजादी की क्या कीमत है, यह नहीं समझ सकता। (पृष्ठ 64)

 

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