नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

मेरी जान के दुश्मन - सुरेन्द्र मोहन पाठक | ओम साई टेक बुक्स

संस्करण विवरण:

फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 208 | प्रकाशक: ओम साई टेक बुक्स | प्रथम प्रकाशन: 1981

पुस्तक लिंक: अमेज़न | साहित्य विमर्श

मेरी जान के दुश्मन - सुरेन्द्र मोहन पाठक | ओम साई टेक बुक्स

कहानी 

चार साल पहले जोगिंदर बतरा को विशालगढ़ से कूच कर जाना पड़ा था। उसके पीछे उसकी जान के दुश्मन जो लग गए थे।

अब चार साल बाद वो नए हुलिए और नई पहचान के साथ विशालगढ़ में कदम रख चुका था।

आखिर जोगिंदर क्यों विशालगढ़ से गया था? कौन थे उसकी जान के दुश्मन?
वह अब क्यों विशालगढ़ वापस लौटकर आया था?
क्या वो अपने मकसद में कामयाब हो पाया?
उसकी जान के दुश्मन कौन था और उनका क्या हुआ?


मुख्य किरदार 


जोगिंदर बत्रा - कथावाचक, बैंक का कैशियर
अजमेर सिंह - बैंक का गार्ड
राजेश्वरी - बैंक में टाइपिस्ट
भूषण त्रिवेदी - बैंक का अकाउंटेंट
मनोहर लाल - बैंक में शामिल एक डकैत
रामू - ढाबे में काम करने वाला नौकर
इंस्पेक्टर सिन्हा - डकैती का मामला देखने वाला इंस्पेक्टर
गुलजारी लाल - उस ढाबे का मालिक जिसमें जोगेंद्र खाना खाता था
जगन्नाथ - जोगेंद्र का दोस्त जो इंदौर में रहता था
अनूप सिंह ट्रांसपोर्टर - बत्रा का नया नाम
ध्यानचंद सबरवाल - सबरवाल ट्रांसपोर्ट कम्पनी का मालिक
गीता सबरवाल - सबरवाल ट्रांसपोर्ट की मालकिन ध्यान चंद की बेटी
सुशील - गीता का भाई
चमन लाल - सबरवाल ट्रांसपोर्ट कंपनी का ड्राइवर
संपतराव, मिकी - ट्रक यूनियन के आदमी
मार्था - गार्डन कैफे की मालकिन
सवी, नीना - मार्था की बेटियां
नारसी - एक अंधा पानवाला जो कि बैंक के समाने पान बेचता था
रमेश खुराना - जोगिंदर का जानकार जो कि एक अपराधी था
लिली - जोगिंदर की जानकार 
हरबर्ट - बार का मालिक
कृष्ण लाल - मनोहर लाल के चाचा का लड़का
राजेंद्र कुमार भटनागर उर्फ रज्जी - कभी जोगिंदर का सहपाठी था और अब दादा बन चुका था

मेरे विचार 

'मेरी जान के दुश्मन' (Meri Jaan Ke Dushman) लेखक सुरेंद्र मोहन पाठक (Surender Mohan Pathak) की लिखी एक अपराध कथा है। उपन्यास प्रथम बार 1981 में प्रकाशित हुआ था और हाल में 2023 में उसका नवीन संस्करण ओम साई टेक बुक्स (Om Sai Tech Books) से प्रकाशित होकर आया है।

सुरेन्द्र मोहन पाठक ने अपने लेखकीय जीवन में कई काल्पनिक स्थानों में अपने किरदारों को बसाया है। उनका सबसे प्रसिद्ध शहर राजनगर है जहाँ उनका मकबूल किरदार सुनील रहता है और इसके बगल में ही एक कस्बा विशालगढ़ है जहाँ उन्होंने अपने कई कथानक (लंबे हाथ, जीने की सजा, ब्लैकमेलर के हत्या, धोखाधड़ी इत्यादि) घटित करवाए हैं। प्रस्तुत उपन्यास मेरी जान के दुश्मन भी विशालगढ़ के एक बाशिंदे जोगिंदर बतरा की कहानी है। 
जोगिंदर बतरा एक आम आदमी था जो कि अपना जीवन गुजर बसर कर रहा था। नेशनल बैंक की अपनी नौकरी वो ईमानदारी से बजा रहा था जबकि एक दिन वहाँ एक ऐसी घटना हुई जिसने उसकी जिंदगी बदल दी। उसने एक जिम्मेदार नागरिक होने का फर्ज तो निभा दिया लेकिन पुलिस जनता की सुरक्षा का अपना फर्ज न निभा सकी और उसे अपने उसे शहर से जाना पड़ा जहाँ से जाने के बारे में उसे सपने में भी ख्याल कभी न आया था।

कहानी की शुरुआत जोगिंदर उर्फ अनूप सिंह के विशालगढ़ पहुँचने से होती है। जोगिंदर को चार साल पहले विशाल गढ़ से कूच करना पड़ा था और अब चार साल बाद वो नए नाम के साथ यहाँ पहुँचा है।

जोगिंदर को अपनी बैंक की नौकरी क्यों छोड़नी पड़ी और इन चार सालों में उसने क्या किया और अब वो विशालगढ़ क्यों लौटा था? ये ऐसे सवाल हैं जिनका उत्तर ही कथानक बनता है।

विशालगढ़ लौटने के बाद से ही जहाँ एक तरफ वो अपने दुश्मनों की तलाश में ऐसी जगह जाता है जहाँ जरायमपेशा लोग रहते हैं वहीं दूसरी तरफ वो ऐसे लोगो का सहारा भी बनता है जिन्हें जोर जबरदस्ती से व्यापार से बाहर निकालने की कोशिश हो रही हैं। 

इस काम में कैसे वो समझ बूझ और कई बार ताकत से काम करता है और आखिरकार कई मोड़ों से होता हुआ अपना मकसद और जीवन में प्यार पाता है यहीं कथानक बनता है। कथानक पठनीय है और इसका भावनात्मक पहलू सशक्त हैं। लेखक ने कथानक में समय समय पर ट्विस्ट भी दिए हैं जो कि उपन्यास में रोचकता बनाए रखते हैं। 

उपन्यास के किरदार जीवंत हैं। जोगिंदर एक शरीफ आदमी है। वक्त किसी व्यक्ति को कैसे बदल देता है और कैसे एक सीधा सादा व्यक्ति खुर्राट बन जाता है यह इधर दिखता है। जोगिंदर खुद एक भावनात्मक व्यक्ति है जो कि इतने दुख भुगत चुका होता है कि उसे किसी और का दुख अपना दुख लगने लगता  है और वो आए थे हरी भजन को ओटन लगे कपास को चरितार्थ करते हुए किसी अंजान के दुख अपने मान उनके साथ खड़ा हो जाता है। ऐसा ही किरदार चमनलाल है जो कि इंसानियत को दर्शाता है। ऐसे लोग दुनिया में कम हैं जो अपने मालिक के बच्चों की इतनी फिक्र करें कि अपनी जान की भी न सोचें। 

गीता सबरलवाल एक ऐसी जगह पर फँसी हुई लड़की है जहाँ वो दुनिया के सामने कमजोर दिख नहीं सकती है। उसके ऊपर खुद की ही नहीं अपितु अपने भाई की जिम्मेदारी भी है जिसे वो हालात से लड़कर निभा रही है। वो जानती है ऐसी दुनिया में जहाँ जोर के बल पर सामने वाले सब हासिल कर रहे हैं उसका ज्यादा देर टिकना असंभव है लेकिन वो टिकी रहती है और अपने चरित्र से नहीं डिगती है। 

उपन्यास सुशील का किरदार भी है। बचपन का खिलंदड़ापन उसके किरदार से झलकता है और कई बार उसकी हरकतें मासूमियत पर मुस्कराने को विवश कर देती हैं। 

उपन्यास में मौजूद इंस्पेक्टर सिन्हा का किरदार मुझे कमजोर लगा। वो ईमानदार तो है लेकिन जैसा कि जोगिंदर एक बार कहता है नाकारा है। इसी उपन्यास में कहता है कि वो गीता के पिता की दिल से इज्जत करता था लेकिन उनकी मृत्यु को वो ऐसे रफा दफा करता है जैसे कि शहर में सब कुछ सही हो। ये बात इसलिए भी खटकती है क्योंकि उस शहर में ट्रांसपोर्ट के बिजनेस में कब्जा गैरकानूनी तरीके से ही हो रहा था। ऐसे में उसका लापरवाह रवैया थोड़ा खटकता है। 

उपन्यास में बनारसी पान वाले का किरदार मुझे रोचक लगा। मुझे लगा था कि वो कथानक में कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। पर लेखक ने उसे जाया ही किया है। अगर वो कथानक में ट्विस्ट लाने में कोई महती भूमिका निभाता तो बढ़िया होता। उसमें ऐसी खूबी तो थी कि अगर लेखक चाहते तो वो नायक की जान के दुश्मन के बारे में कुछ इशारा कर सकता था। 

उपन्यास के खलनायक टिपिकल फिल्में खलनायकों जैसे हैं। इनमें लीडर है जो कि ऊपरी तौर पर तो ताकतवर दिखता है लेकिन आखिर में पंगु ही साबित होता है। अगर उसे थोड़ा और ताकतवर दिखाया जाता और नायक को उसे हराने में अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ती तो कथानक में रोमांच बढ़ जाता। बाकी उसके चेले चपाटे और एक टोकन वैम्प भी है। खलनायक की पार्टी थोड़ा और प्रभावी होती तो बेहतर होता। 

उपन्यास की कमी की बात करूँ तो उपन्यास की जो बड़ी कमी मुझे लगी वो ये थी कि नायक जिस मकसद के लिए विशालगढ़ आया था उसे पूरा करने के लिए इतनी मेहनत उसे नही करनी पड़ी। उसका हल उसे आसानी से मिल गया। उस हल को खोजने के लिए उसे थोड़ी मेहनत करनी पड़ती तो बेहतर होता। इससे ज्यादा कहना कथानक को उजागर करना होगा इसलिए अगर आप पढ़ेंगे तो जान पाएँगे कि मैं क्या कह रहा हूँ। बस इतना कहूँगा कि कथानक में अगर व्यक्ति को दो चीजों की तलाश होती है और उसे एक के साथ दूसरी मुफ़्त मिल जाती है तो कथानक में रोमांच कम हो जाता है। यहाँ दूसरी चीज के लिए नायक को अतिरिक्त मेहनत जो नहीं करनी पड़ती है। 

 इसके अतिरिक्त नायक के विशालगढ़ लौटकर आने के कारण को न्यायौचित ठहराने की लेखक ने कोशिश की है और वो कुछ हद तक इसमें सफल भी हुए हैं परंतु अगर वापस लौटने का थोड़ा और पुख्ता कारण उन्होंने दिया होता तो बेहतर होता। 

प्रस्तुत संस्करण की बात की जाए तो संस्करण में वर्तनी की थोड़ा बहुत गलतियाँ  हैं। उदाहरण के लिए कई जगह चेक को चौक लिखा है। ऐसे ही नहीं और ऐसे ही इक्का दुक्का शब्द लिखने में गलती हो रखी है। इस संस्करण में पाठक साहब का लेखकीय भी नहीं है। अगर आपको मेरे जैसे पाठक साहब का लेखकीय पढ़ने का शौक है तो यह चीज थोड़ा निराश कर सकती है। वहीं अगर लेखकीय में आपकी कोई रुचि नहीं है तो इससे आपको कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

अंत में यही कहूँगा कि उपन्यास मुझे पसंद आया। यह एक पठनीय कथानक है जो कि अंत तक अपनी पकड़ आप पर बनाए रखता है। हाँ, नायक को अपनी जान के दुश्मनों तक पहुँचने के लिए थोड़ा अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ती और खलनायक थोड़ा और अधिक सशक्त होते तो उपन्यास और अच्छा हो सकता था। अगर रोमांचकथाएँ पसंद हैं तो उपन्यास पढ़कर देख सकते हैं। 


उपन्यास के कुछ अंश 

"हर कोई क्राइम के बोलबाले की दुहाई देता है" इंस्पेक्टर तल्ख लहजे में कह रहा था, "और पुलिस को इसके लिए जिम्मेदार ठहराता है। हमें नाकारा,कामचोर, रिश्वतखोर, गुंडे बदमाशों का सरपरस्त और पता नहीं क्या कुछ कहा जाता है लेकिन जहाँ क्राइम के खिलाफ लड़ने के लिए पुलिस को जरा सा सहयोग देने की बात आती है, लोग बगलें झाँकने लगते हैं,मामूली सी जिम्मेदारी से बचने के लिए बहाने तलाश करने लगते हैं, उन्हें अपने बाल बच्चों का ख्याल आने लगता है..." (पृष्ठ 15-16)


"लोग अपने हित को सर्वोपरि रखकर पुलिस की मदद के लिए आगे आने से कन्नी कतराते हैं लेकिन ये नहीं सोचते कि उनका ऐसा करना कितना खतरनाक हो सकता है। क्यों वो उस समाज के लिए अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं समझते जिसमें वो रहते हैं?" (पृष्ठ 17)


संकट का दौर आया है तो गुजर जाएगा। इंसान की ज़िंदगी में हर तरह का वक्त आता है। संकट के दिन न आएँ तो अच्छे दिनों की कद्र नहीं होती। (पृष्ठ 76)


"कल किसने देखा है, चमन लाल जी! क्या पता किसकी किस्मत मेंण कितनी साँसें लिखी हैं। विधि के विधान को कोई नहीं समझ सकता। नौजवान चले जाते हैं। बूढ़े बैठे रहते हैं। ज़िंदगी तो पानी का बुलबुला है! अभी है! अभी नहीं है!" (पृष्ठ 78)

 


पुस्तक लिंक: अमेज़न साहित्य विमर्श


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