नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

इंतकाम - सुरेन्द्र मोहन पाठक

संस्करण विवरण

फॉर्मैट: ईबुक |  प्लेटफॉर्म: डेलीहंट | प्रथम प्रकाशन: 1981 


कहानी 

पूनम देशमुख सम्पत राय देशमुख की जवान बीवी थी जो कि अपनी अय्याशियों के लिए कुख्यात थी। ऐसे में जब उसका कत्ल अपनी याट पर हुआ तो शक उसके उस वक्त के आशिक पर गया। सारे सबूत जो उस आशिक विक्रम गोखले के खिलाफ थे। 

और इसीलिए विक्रम गोखले को फाँसी की सजा हो गई। 

लेकिन फिर सरकारी वकील संजीव कमलानी को कुछ ऐसे सबूत मिले जिससे उसे लग गया कि यह मामला इतना सीधा नहीं था जितना कि दिख रहा था। कुछ तो गड़बड़ थी अब उसका पता लगाना संजीव के लिए जरूरी हो गया था। 

क्योंकि अब संजीव पर खुद एक कत्ल का इल्जाम लगा था और खुद को बचाने के लिए उसका असल कातिलों तक पहुँचना जरूरी हो गया था। 

क्या विक्रम सच में बेगुनाह था?
आखिर पूनम का कत्ल किसने किया था?
संजीव पर किसके कत्ल का इल्जाम लगा था?

मुख्य किरदार 


विक्रम गोखले - मुंबई में रहने वाला एक गाइड 
शांता - विक्रम की पत्नी 
पूनम देशमुख - एक लड़की जिसके साथ विक्रम नया साल मना रहा था
संपतराव देशमुख - पूनम का पति जो कि एक स्टॉक ब्रोकर था
संजीव कमलानी - एक सरकारी वकील
राम कमलानी - संजीव का बड़ा भाई जिसकी केमिस्ट की दुकान थी
शंकर राव - केमिस्ट की दुकान में काम करने वाला असिस्टेंट
सिल्विया - केमिस्ट की दुकान में काम करने वाली दूसरी असिस्टेंट
रंजन बोस - फिल्म लाइन से जुड़ा एक व्यक्ति
सिनोरा मारिया कोयमबरा मार्लोस - एक लड़की जो खुद को पुर्तगाली कहती थी
नवाथे - इंस्पेफ्टर जो शांता के कत्ल की तहोईकत कर था था
यूसुफ खान - देशमुख का ड्राइवर
शिवालकर - एक इन्स्पेक्टर 


मेरे विचार

सुरेंद्र मोहन पाठक ने कई एकल उपन्यास लिखे हैं जिन्हें थ्रिलर कहा जाता है। इंतकाम लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक द्वारा लिखा हुआ थ्रिलर है जो कि पहली बार 1981 में प्रकाशित हुआ था। अगर विधा के हिसाब से देखा जाए तो यह उपन्यास मूलतः एक रहस्यकथा है।  

उपन्यास की शुरुआत विक्रम गोखले नामक किरदार की एंट्री से होती है। पाठक जानते हैं कि यह एक जनवरी 1980 का दिन है जब विक्रम से पूनम टकराती है और फिर जो उनके बीच होता है वो आगे के उपन्यास की बुनियाद रखता है। वैसे तो उपन्यास 1जनवरी 1980 से लेकर 4 सितंबर 1980 के बीच की कहानी कहता है लेकिन मुख्य कहानी जुलाई और सितम्बर के बीच होती है। अक्सर आम अपराधकथाओं में जब कत्ल होता है तब अपराधी की तलाश होती है लेकिन प्रस्तुत उपन्यास इस मामले में थोड़ा अलग है। इसमें जब संदिग्ध व्यक्ति को फांसी की सजा हो जाती है तब कुछ ऐसे सबूत आते सामने आते हैं और कुछ ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं कि सरकारी वकील को लगने लगता है कि मामला कुछ न कुछ गड़बड़ है और जैसे-जैसे वो मामले में आगे बढ़ता है वैसे-वैसे दिक्कतें उसके समक्ष खड़ी होती जाती हैं जो कि उपन्यास को रोचक बना देती हैं। चूँकि सरकारी वकील एक नौसीखिया जासूस है तो इस दौरान वो कई गलतियाँ भी करता है जो कि उसके किरदार को यथार्थ के नजदीक लेकर आती है। कहानी में लेखक ने कुछ ट्विस्ट भी डाले हैं जो कि रोमांच को बनाए रखते हैं। हाँ, कत्ल के पीछे गुत्थी क्या है इसका अंदाजा पाठक को काफी पहले हो जाता है, कम से कम मुझे तो हो गया था, और आप ये जानने के लिए पढ़ते चले जाते हो कि आपका अंदाजा सही है या नहीं है।

उपन्यास के किरदारों की बात करूँ तो लेखक के अन्य उपन्यासों की तरह ही ज्यादातर किरदार यथार्थ के निकट प्रतीत होते हैण। 

चूँकि इसमें जासूसी संजीव कालमानी करता ही तो वही मुख्य किरदार कहलाया जायेगा। वह एक आदर्शवादी सरकारी वकील है जो कि चाहता है कि वो जानते बूझते गलत कार्य न करे। यही कारण है कि वह एक लगभग खत्म हो चुके मामले में अपना हाथ डालता है और फिर राज उजागर हो जाते हैं और उसकी खुद जान साँसत में फँस जाती है। चूँकि वह जासूसी का कार्य पहली बार कर रहा है तो वह कई बार मुँह की खाता है लेकिन फिर भी क्योंकि उसे अपनी जान बचानी है तो वह दृढ़ता से आगे बढ़ता चला जाता है। 

उपन्यास में सिलविया भी एक महत्वपूर्ण किरदार है। सिल्विया एक खूबसूरत बीस वर्षीय युवती है और उसके अंदर इस उम्र में लोगों में पाए जाने वाली रोमानियत है और बचपना मौजूद है। 

विक्रम गोखले वह व्यक्ति है जो फाँसी पर चढ़ा हुआ था। शुरुआत में तो वह आपकी सहानुभूति का पात्र होता है लेकिन जब शांता उसकी हरकतें बताती है तो वह सहानुभूति चली जाती है। ऐसे में लेखक अगर केवल उसकी जान बचाने के लिए उपन्यास की कहानी आगे बढ़ाते तो शायद पाठक का रुझान उसमें इतना नहीं रह पाता। इसलिए उनकी तारीफ करनी पड़ेगी कि उन्होंने इसमें संजीव जैसे किरदार को भी जोड़ा क्योंकि इससे आपकी सहानुभूति उसके प्रति जागृत होती है और उपन्यास रोचकता बनाए रखता है। 

उपन्यास में खलनायक कौन है यह मैं नहीं बताऊँगा लेकिन इतना जरूर कहूँगा कि उपन्यास चोर की दाढ़ी में तिनका जैसा है। अगर वह कुछ नहीं करते तो शायद बचकर भाग भी सकते थे लेकिन चूँकि अक्सर चोर की दाढ़ी में तिनका होता है और उसके चलते वह ऐसा कुछ कर देता है जिससे उसकी कलई खुल जाती है। 

संस्करण की बात करी जाए तो अक्सर मैंने डेलीहंट के संस्करणों में प्रूफ की गलतियाँ देखी हैं। इसमें भी कुछ मौजूद हैं लेकिन वो बाकियों की तुलना में कम ही है। एक आध जगह ही नाम संजीव की जगह सुनील हो गया था और इक्का दुक्का जगह वर्तनी की गलतियाँ थीं। 

अंत में यही कहूँगा कि इंतकाम एक रोचक उपन्यास है जिसे एक बार पढ़ा जा सकता है। ये मर्डर मिस्ट्री तो नहीं है लेकिन एक रहस्यकथा जरूर है। लालच कैसे आदमी को गलत कदम उठाने पर मजबूर कर देता है और फिर उसका अंत हो जाता है यही चीज इस उपन्यास में देखने को मिलती है। अगर नहीं पढ़ा है तो एक बार पढ़कर देख सकते हैं।


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