नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

वापसी - गुलशन नंदा | श्री डिजिटल प्रकाशन

संस्करण विवरण 

फॉर्मैट: ई-बुक | पृष्ठ संख्या: 176 | प्रकाशक: श्री डिजिटल प्रकाशन 

पुस्तक लिंक: अमेज़न 


वापसी  - गुलशन नंदा | श्री डिजिटल प्रकाशन

कहानी 

भारत पाकिस्तान के बीच 1965 का युद्ध समाप्त हो चुका था। अब भारत द्वारा पाकिस्तानी और पाकिस्तान द्वारा भारतीय कैद में मौजूद फौजी लौटाए जा रहे थे। 

ऐसा ही एक कैदी था कैप्टन रणजीत जिसे पाकिस्तान द्वारा लौटाया जाना था। 

पर पाकिस्तान के मेजर रशीद ने कैप्टन  रणजीत को लेकर एक अलग ही योजना बना रखी थी। 

यह वापसी होनी तो थी लेकिन ऐसे कि पाकिस्तान को इससे फायदा हो।

आखिर रशीद ने क्या योजना बनाई हुई थी?

उसकी योजना का क्या परिणाम निकला?

क्या कैप्टन रणजीत की वापसी हो पाई?



मुख्य किरदार 

रशीद - पाकिस्तान सेना में एक मेजर
उस्मान - पाकिस्तानी ब्रिगेडियर 
रणजीत - भारतीय सेना का कप्तान जो कि पाकिस्तान की कैद में था 
रज़ा अली - पाकिस्तानी सेना का कर्नल 
सलमा - रशीद की पत्नी 
गुरनाम सिंह - रणजीत का दोस्त और भारतीय सेना का कप्तान 
पूनम - रणजीत की प्रेमिका 
श्रीवास्तव - पायलेट अफसर 
अली अहमद - पाकिस्तान की कैद में एक और कैदी
जॉन मिल्स - एक एंग्लो इंडियन 
रुखसाना - जॉन की प्रेमिका 
शाहबाज - मेजर सिंधु का ड्राइवर 
कमला - पूनम की आंटी 
वसीम बेग - सलमा के अब्बा 
मौलाना नरूद्दीन - रशीद के पिता  
गौरी - वह लड़की जो रणजीत की माँ के साथ रहती थी 



विचार

गुलशन नंदा का उपन्यास 'वापसी' 1965 के भारत पाकिस्तान युद्ध के बाद की पृष्ठभूमि पर लिखा गया है। गुलशन नंदा एक समय में हिंदी के सबसे लोकप्रिय लेखकों में से एक थे और पाठकों और फिल्मी दुनिया में उनकी नाम की धाक थी। वह सामाजिक उपन्यास लिखने में माहिर थे और उनके उपन्यासों पर कई  फिल्में भी इस कारण बनी थी।

प्रस्तुत उपन्यास 'वापसी' की बात करें तो इसकी कहानी पाकिस्तान में शुरू होती है। 1965 के युद्ध के बाद सीज फायर हो चुका है। पाकिस्तान और भारत अपने अपने कैदियों को रिहा कर रहे हैं। ऐसा ही एक कैदी रणजीत है जो कि पाकिस्तान की कैद में बंद है। वह फौजी कैप्टन रहा है। उसे भी रिहा किया जा रहा है पर वो नहीं जानता है कि पाकिस्तानी अफसरों के मन में उसे लेकर अलग खिचड़ी बन रही है।

यह प्रकृति का करिश्मा ही है कि जिस जेल में रणजीत को रखा गया है वहाँ का कमांडर मेजर रशीद है और उसकी शक्ल हूबहू रणजीत से मिलती है। ये रशीद ही है जिसने रणजीत की जगह भारत जाने की योजना बनाई है। इस योजना का क्या परिणाम होता है? रशीद भारत जाकर क्या करना चाहता है? क्या वो अपने मकसद में सफल हो पाता है? भारत में उसके साथ क्या होता है? क्या रणजीत की वापसी कभी हो पाती है? ये सब वो प्रश्न हैं जिसके उत्तर ये कथानक देता है।

कहानी के केंद्र में रशीद ही है। वो एक पाकिस्तानी जरूर है लेकिन एक अच्छा व्यक्ति भी है। वो देश भक्त है लेकिन सही गलत के बीच का फर्क उसे पता है। कहानी में आगे जाकर यह बात समय समय पर पता लगती है। कहानी के बाकी किरदार पूनम,गुरनाम्, रुखसाना, जॉन, रणजीत की माँ भी हैं। यह किरदार कहानी के अनुरूप ही गढ़े गए हैं।

कहानी की खासियत यह कि इसने पाकिस्तानी लोगों को मनुष्यों की तरह दर्शाया है। एक तरह से उन्हें स्याह रंगने की कोशिश नहीं की हैं। उनमें अच्छे और बुरे लोग दोनों ही शामिल हैं। रशीद भले ही पाकिस्तान के लिए जासूसी करता है लेकिन वो और उसके परिवार वाले मूलतः अच्छे लोग हैं और यह इधर दिखता है। वहीं रशीद के ससुर के रूप में वो लोग भी इधर दिखते हैं जो कि अपने बच्चों की जिद के चलते पाकिस्तान तो आ गए थे लेकिन उनका मन वहीं अपने हिंदुस्तान में रह गया था और वो ताउम्र वहीं की याद में तड़पते रहे। 

मिर्ज़ा साहब ने शेर पढ़कर एक गहरी साँस ली और सलमा सहानुभूति भरी दृष्टि से उनकी ओर देखती बोली – “अब्बा जान! आप लखनऊ को किसी वक्त भूलते भी हैं या हर वक्त उसी की याद में खोये रहते हैं?”
“बेटी! अपने वतन को कोई कभी नहीं भूलता और फिर लखनऊ जैसे वतन को, जहाँ का हर मोहल्ला-कूचा वाहिष्ट से कम नहीं था, हर गोशा रश्के चमन था। हज़रत यूसुफ अलै-अस्सआलम मिस्र में बादशाही करते थे और कहते थे कि इस अजीब शहर से मेरा छोटा सा गाँव कितना बेहतर था…और मैं तो लखनऊ छोड़कर आया हूँ बेटी, अमनो-सुकून का गहवारा, शेरो अदब का गुलिस्तां, तहजीबो तमद्दन का मस्कन…और यहाँ आकर मुझे क्या मिला, आये दिन की अफ़रातफरी, हंगामे, शिया सुन्नी फसादात, सिंधी -हिंदुस्तानी झगड़े, हुकूमतों की बार-बार तब्दीलियाँ, हिंद पाक जंगें, बमबारी, तोपों की घन गरज, खून खराबा…सच पूछो तो ऊब गया हूँ। जी चाहता है कि पर लग जायें और मैं यहाँ से उड़कर फिर लखनऊ पहुँच जाऊं। ना यहाँ वह आबोहवा है न वह जौक शौक, हर चीज अजनबी-अजनबी सी लगती है।” (पृष्ठ 54)

  

कहानी में एक अच्छा थ्रिलर बनने के गुण थे लेकिन लेखक इसे थ्रिलर बनाने से न जाने क्यों बचे हैं। इसमें जासूस हैं। खूफिया अड्डे हैं। जासूसों का पता लगाने के लिए नियुक्त सिपाही हैं। साथ ही प्रेम कहानी है रणजीत और पूनम की और इस कारण रशीद की परेशानी भी है। पर आगे जाकर जासूसी वाली बातें गौण ही हो जाती है। लेखक ने किरदारों के भावनात्मक पहलुओं को यहाँ तरजीह दी है। कथानक में किरदारों को लेकर एक ट्विस्ट भी आता है जो कि इसके भावना प्रधान होने की बात को और पुख्ता करता है। 

उपन्यास की लेखन शैली सरल है। गुलशन नंदा उर्दू में उपन्यास लिखते थे तो उसकी झलक इधर दिखती है। भाषा अति अलंकृत नहीं है। सहज भाषा है जो कि रचना की पठनीयता को बढ़ाती है। 

कहानी में संपादन की भी कमी दिखती है। कई बिंदु ऐसे हैं जिनका जिक्र है लेकिन उन पर आगे जाकर बात नहीं होती है।  मसलन:

उपन्यास में एक प्रसंग है जिसमें रणजीत बने रशीद से गुरनाम एक फिल्म की बात करता है। वह फिल्म जरूरी रहती है लेकिन फिर उस फिल्म का क्या हुआ इसके बारे में उपन्यास में बाद में कोई जिक्र नहीं आता है। 

"...तुमने फुर्ती से खिसकर वह कैमरा उस हँडिया में छुपा दिया। फिर जो ही हमने वहाँ से भागने की कोशिश की, दुश्मन की गोलियों के बौछार ने हमारे पाँव वहीं स्थिर कर दिए। दूसरे ही क्षण हम उनकी कैद में थे।"

"तो इस फिल्म का क्या हुआ?"

"न दुश्मन के हाथ लगी और ना हम ही उसे ला सके।"

"तो शायद अब तक उसी हँडिया में होगी?", रशीद ने गुरनाम से पूछा। ....फिर वह गिलास को एक ओर फेंकर वहीं खर्राटे लेने लगा। रशीद के मस्तिष्क में उस फिल्म का विचार बार-बार बिजली की तरह कौंधने लगा। (पृष्ठ 41)

ऐसे ही एक जगह गुरनाम कहता है वो पूनम को जानता है लेकिन पूनम से रशीद को पता लगता है कि वो उसे नहीं जानती है। ऐसे में गुरनाम रशीद से पूनम को जानने की बात क्यों करता है। क्या इसके पीछे कोई पेंच रहता है? इस पर आगे बात नहीं हुई है। 

“अपना दोस्त गुरनाम!”
 “कौन गुरनाम?”
“अरे वही कैप्टन गुरनाम! तुम्हें तो अच्छी तरह जानता है।”
“लेकिन मैं तो उस से कभी नहीं मिली।” वह आश्चर्य से बोली।
रशीद को पूनम का उत्तर सुनकर एक झटका सा लगा (पेज 97

इसके अतिरिक्त निम्न बिंदु भी हैं जिन्हें मामूली सम्पादन से सुधारकर कथानक को बेहतर बनाया जा सकता था लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। ये ऐसे बिंदु हैं जिन्हें प्रकाशक अभी भी किंडल पर पुस्तक डालने से पहले सुधार सकता था लेकीन वो भी इनसे बचा है। उदाहरण के लिए:

रशीद और रणजीत के बीच एक फर्क ये भी रहता है कि रशीद सिगरेट पीता है और रणजीत नहीं। यह चीज उपन्यास के शुरुआत में दिखती है। पर उपन्यास में रशीद के भारत पहुँचने पर रशीद कई बार ऐसे लोगों के सामने सिगरेट पीता है जो रणजीत को जानते थे लेकिन वो इस पर कोई हैरानी नहीं दिखाते हैं जो कि अटपटा लगता है।

उपन्यास में रशीद के अलावा दो जासूस रहते हैं। उनका अंत भी चलती चाल में कर दिया गया है। ऐसा लगता है बस लेखक को उस बिंदु को खत्म करना था और इसलिए उन्होंने कर दिया है। 

रशीद का राज भी जिस तरह से उजागर होता है वो थोड़ा और रोमांचक हो सकता था लेकिन ऐसा नहीं हुआ है।  

उपन्यास के अंत में रशीद जो तरीका रणजीत को बचाने का चुनता है वह भी तर्कसंगत नहीं लगता है। वह एक ऐसा तरीका चुन सकता था जिसके विषय में उसने पहले ही एक बार उपन्यास में जिक्र किया रहता है। इससे उसका मकसद भी हल हो जाता और उसे कोई नुकसान भी नहीं पहुँचता। अभी उसके द्वारा चुना गया तरीका मुझे तो अटपटा ही लगता है। 

उपन्यास में वर्तनी की कई गलतियाँ भी हैं जो कि उपन्यास को पढ़ने का मज़ा किरकिरा करती है। ऐसा लगता है कि जैसे प्रकाशक ने प्रूफरीडिंग की जहमत भी नहीं उठाई है। 

अंत में यही कहूँगा कि गुलशन नंदा का यह उपन्यास वापसी एक भावना प्रधान उपन्यास है जिसका अगर ढंग से सम्पादन होता तो यह और बेहतर हो सकता था। फिलहाल प्रकाशक ने इसे किंडल पर डाला जरूर है लेकिन सम्पादन और प्रूफरीडिंग करने से बचे हैं। अगर ये काम कर देंगे तो कथानक एक बार पढ़ने लायक है। 


उपन्यास के कुछ अंश

जब युद्ध नहीं होता, फिर भी तैयारी होती है, इसी तैयारी को राजनीति में शांति कहते हैं 


मैं सिर्फ औरत हूँ, औरत और औरत का कोई धर्म नहीं होता…धर्म तो बस मर्दों का होता है। औरत जिस धर्म के मर्द से शादी करती है, वही उसका धर्म है।


पुस्तक लिंक: अमेज़न 


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4 Comments
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  1. उपन्यास के विषय में अच्छी जानकारी दी गयी है।
    धन्यवाद ।

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    1. लेख आपको पसंद आया ये जानकर अच्छा लगा। आभार।

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  2. मैंने यह उपन्यास करीब पच्चीस-तीस साल पहले पढ़ा था. आपकी समीक्षा सटीक है. किंडल हो या अन्य कोई ई-पुस्तक मंच या
    पुरानी क्लासिक कृतियों को पेपरबैक में छापने वाला कोई प्रकाशक, त्रुटियों को कभी नहीं सुधारा जाता. यहाँ तक कि कई बार तो बाइंडिंग तक में खामियां देखने को मिलती हैं. यह खेदजनक है पर पुस्तक-प्रेमी पाठक के पास इसे सहने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं होता. लेकिन गुलशन नंदा के किसी पुराने और अनुपलब्ध उपन्यास का पुनर्प्रकाशन एक सकारात्मक तथ्य है.

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    1. जी सही कहा। उनके उपन्यास काफी समय से अनुपलब्ध थे। अब इनके प्रकाशन ने उम्मीद जगाई है।

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