नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

गुनाहों का देवता - धर्मवीर भारती

रेटिंग : ४/५
५ मई २०१५ से १२ मई २०१५

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक 
पृष्ठ संख्या:२५७ 
प्रकाशक:भारतीय ज्ञानपीठ




पहला वाक्य :
अगर पुराने ज़माने की नगर देवता की और ग्राम देवता की कल्पनाएँ आज भी मान्य होतीं तो मैं कहता कि इलाहाबाद  का नगर-देवता ज़रूर कोई रोमैण्टिक कलाकार है।

'गुनाहों के देवता' से मैं पिछले सालों परिचित हुआ था जबकि मैं हिंदी साहित्य के प्रति रुचि रखने लगा था। जब नाम पढ़ा तो तब ऐसा लगा था कि उपन्यास किसी आपराधिक किरदार की कहानी होगी जो कि गुनाह करता होगा लेकिन फिर भी लोगों के लिए देवता समान होगा। इसका एक कारण ये भी था कि गूगल पर जब भी इस नाम को डालता था तो मिथुन दा की इसी फिल्म का पोस्टर दिख जाता था। खैर, फिर इसे पढ़ा और मालूम हुआ कि ये मेरी सोच से कितना भिन्न उपन्यास है। उस वक़्त भी इस उपन्यास ने मुझे प्रभावित किया और इस साल जब मैंने इसे पढ़ा तब भी इसने मुझे प्रभावित किया। लेकिन वो बातें बाद में करते हैं। अभी तो कुछ शब्द इस उपन्यास के विषय में लिखता हूँ कि उपन्यास कि कहानी आखिर है क्या?

लेखक ने शीर्षक के नीचे इस उपन्यास को मध्यमवर्गीय जीवन कि कहानी कहा है। एक तरीके से ये सच भी है। चन्दन कपूर एक गरीब परिवार का लड़का है। जब वो इलाहाबाद में पढ़ने के लिए आया तो प्रोफेसर शुक्ला ने उसकी मदद की और फिर चन्दन उनके घर के सदस्य के समान हो गया। सुधा प्रोफेसर शुक्ला की एकलौती लड़की है। उसके और चन्दन के बीच में बहुत स्नेह है। वो आपस में मज़ाक भी करते हैं और एक दूसरे की टांग भी खींचते रहते हैं लेकिन कभी भी किसी ने सुधा और चंदन के रिश्ते को गलत नज़रिए से नहीं देखा। वे दोनों भी अपने आपस के स्नेह से इतना परिचित न थे जितना समझते थे। लेकिन जब सुधा की शादी होती है तो उन दोनों को एहसास होता है लेकिन फिर भी आदर्शों के लिए वो एक दूसरे के साथ होना स्वीकार नहीं करते हैं। आगे उनकी ज़िन्दगी में क्या होता है ये ही उपन्यास की कथा है। 

धर्मवीर भारती जी का ये उपन्यास सन में पहली बार प्रकाशित हुआ था और जिस संस्करण को मैंने पढ़ा वो इस उपन्यास का ७१ वाँ संस्करण है। उपन्यास के विषय में मैंने काफी बातें सुनी थी और इनमे से ज्यादातर अच्छी ही थी। 

उपन्यास का कथानक पठनीय है और किरदारों से एक रिश्ता सा जुड़ जाता है। कहानी का अंत मुझे बहुत दुखद लगा। उपन्यास के आखरी वाक्य को पढ़ने के बाद मेरे मन में एक ही इच्छा थी कि काश एक बार चन्दन ने आदर्शों को ताक पर रखकर अपने दिल से फैसला लिया होता तो शायद अंत कुछ और होता। ये उपन्यास कि अच्छी बात ही है कि वो पाठक को उसके चरित्र के साथ इस तरह से जोड़ देती है। इस उपन्यास को पढ़ते समय हम जिन किरदारों से रूबरू होते हैं उन से मिलकर कुछ प्रश्न मन में खड़े होते हैं।

हम समाज में रहते हैं और इस समाज के कुछ आदर्श हैं। अक्सर इन आदर्शों का पालन करने वाला देवता कहलाता है। लेकिन क्या हर चीज जो मर्यादा के अनुरूप होती है वो सही होती है? प्रेम क्या है? क्या प्रेम की मंजिल शादी ही है? क्या सेक्स प्रेम को दूषित करता है या ये प्रेम का एक हिस्सा ही है? 

इन सभी प्रश्नों पर कई बार विचार किया जा चुका है और इस उपन्यास के चरित्रों की तरह इनका उत्तर व्यक्ति व्यक्ति पर निर्भर करता है। क्या सही है और क्या गलत ये व्यक्ति और स्थिति के अनुरूप बदलता रहता है। प्रमिला डिक्रूज, चन्दन, सुधा, और बिनती के लिए इन प्रश्नों के अर्थ भिन्न भिन्न ही थे। 

उपन्यास के दो भाग हैं। एक सुधा कि शादी से पहले का भाग और दूसरा सुधा की शादी के बाद का हिस्सा। मुझे उपन्यास का पहला भाग काफी पसंद आया। इसमें सुधा और चन्दन के बीच में होने वाली नोक झोंक में एक तरह की मासूमियत है जिसको पढ़ते समय मैं कई बार मुस्कराया और कई बार ये इच्छा भी मन में आई कि सुधा जैसी कोई दोस्त भी मेरी होती। हाँ ऐसा नहीं है कि कुछ कमी इसमें भी मुझे नहीं दिखी थी। चन्दन ने जिस तरह सुधा पर प्रतिबन्ध लगाये थे कि उसके बिना या उससे पूछे बिना वो कहीं नहीं जा सकती है वो मुझे थोड़ा अजीब लगा। 

"हाँ ये तो सच है और अभी तक मुझसे पूछ, क्या पढाई हुई है। असल बात तो ये है कि कॉलेज में पढाई हो तो घर में पढ़ने में मन लगे और राजा-कॉलेज में पढाई नहीं होती। इससे अच्छा सीधे यूनिवर्सिटी में बी ऐ करते तो अच्छा था। मेरी तो अम्मी ने कहा कि वहाँ लड़के पढ़ते हैं, वहाँ नहीं भेजूँगी, लेकिन तू क्यों नहीं गयी,सुधा?"

"मुझे भी चन्दन ने मना कर दिया था",सुधा बोली।


उपन्यास के दूसरे भाग में एक ट्रेजेडी ही है। कभी कभी जो हरकतें किरदार करते हैं वो ऐसा लगता ही नहीं कि असल ज़िन्दगी में कोई कर भी सकेगा। जैसे सुधा एक दम से वैराग ले लेती है। उसे परेशानी है कि कैलाश उससे शारीरिक संबंध बनाता है जो कि अक्सर उसके मर्जी के खिलाफ ही होता है। ये बात मुझे जचीं नहीं। इस उपन्यास में जिधर भी कैलाश को दर्शाया गया है वो एक संवेदनशील व्यक्ति के तौर पर दर्शाया गया है। और एक संवेदनशील व्यक्ति किसी कि सहमति और असहमति को समझ ही जाएगा। दूसरा चन्दन का किरदार जो पहले भाग में इतना सशक्त नज़र आता है वो दूसरे भाग में एकदम से इतना कमजोर हो जाता है। लेकिन फिर भी वो सुधा की अंधश्रद्धा का पात्र बना रहता है। ये बात भी थोड़ा अजीब ही लगी। हाँ, बिनती के किरदार को देखकर अक्सर उस पर मुझे दया ही आई। वो सुधा से ज्यादा प्रैक्टिकल थी लेकिन चन्दन और सुधा के बीच पिस चुकी थी। 

उपन्यास के बाकी किरदार जैसे डॉक्टर शुक्ला, बुआजी, गेसू इत्यादी काफी जीवंत थे और अक्सर अपने आस पास ऐसे किरदार आपको देखने को मिल ही जायेंगे। 

अंत में केवल इतना कहूँगा। उपन्यास मुझे बहुत पसंद आया खासकर पहला भाग। अगर आपने इस उपन्यास को पढ़ा है तो आप अपनी राय से अवगत करवाना न भूलियेगा और अगर आप इस उपन्यास को पढना चाहते हैं तो आप इसे निम्न लिंक से मंगवा सकते हैं:

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