नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

किताब परिचय: अपराजिता: कुंती की गाथा



 


किताब परिचय

यह पुस्तक सिर्फ महाभारत की कथा का पुनर्पाठ भर नहीं है, अपितु महाभारत के एक प्रमुख महिला पात्र, पांडवों की माता 'कुंती' के साथ तात्कालिक समय की मनोयात्रा भी है। पुस्तक बताती है कि कुंती समस्त कथा में पर्दे के पीछे रहकर भी इतनी महत्वपूर्ण क्यों है। 

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कुंती अपराजिता इसलिए नहीं हैं कि वे कभी पराजित नहीं हुईं, बल्कि वे अपराजिता इसलिए हैं कि उन्होंने किसी भी पराजय को स्वयं पर आरोहित नहीं होने दिया, कैसी भी पराजय उनको पराजित नहीं कर पाई। कुंती के साथ-साथ यह पुस्तक कृष्ण की धर्मनीति की भी विवेचना करती है, जो कहती है - धर्म का उद्देश्य एक है, परंतु समय के साथ पथ में सुधार अवश्यंभावी है; पथ-विचलन नहीं होना चाहिए, परंतु पथ-सुधार आवश्यक है। 

यह पुस्तक तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था, गुप्तचर व्यवस्था व युद्धनीति की भी झलक प्रस्तुत करती हैं।


पुस्तक लिंक: अमेज़न



पुस्तक अंश


मैं झंझावात में बही जा रही थी, बेसुध सी,अधूरी सी..."जल", "जल" मैंने धीमे से कहा, ना जाने रात्रि की कौन सी बेला थी, मुझे नहीं ज्ञात होता कि आवाज मेरे अधरों से बाहर भी निकली होगी परंतु तभी पार्वती जल लेकर आ गयी और मेरे सिर के नीचे हाथ लगाकर मुझे पान कराया। मेरे अधरों पर एक क्षीण सी मुस्कान प्रकट हुई और फिर धुल गयी। आखिर क्यों सब कुछ इतना क्षणिक! आखिर क्यों सब इतना भुरभुरा! अकेले चलते जाने की पीड़ा से बड़ी पीड़ा है त्यागे जाने की पीड़ा, आखिर त्यागे जाने में अपमान जुड़ा हुआ है एवं सर्वाधिक पीड़ाजनक है कि कारण का ज्ञात ना होना... चक्रवर्ती राजा से कुछ पूछना भी तो उचित नहीं। ना जाने किस बात पर नृप कुपित हो जाएँ। पांडु जब तक राजभवन में रहे, मेरे लिए नृप ही रहे एवं वन में सन्यासी। मैं उनकी भार्या तो बनी ही नहीं। मेरे समान ही पीड़ा माद्री की भी थी... माद्र देश की राजकुमारी... मुझसे अधिक युवती, मुझसे अधिक सुंदरी एवं शायद मुझसे अधिक चरित्रवान। पांडु रण में थे, मैं माघ मेले में और भीष्म माद्र देश में...  आर्यावर्त में लगभग समाप्तप्राय धन लेकर पुत्री देने की प्रथा माद्र में अभी जीवित थी और हस्तिनापुर में धन का भंडार... माद्री हस्तिनापुर आ गयी। परंतु हस्तिनापुर में देवता स्वरूप पूजे जाने वाले भीष्म के सभी अनुमान व्यर्थ साबित हुए। माद्री के आने के बाद भी ना पांडु की जय यात्राएँ रुकीं और ना ही वन यात्राएँ। अब पांडु का मेरे ग्रहभाग में आना सर्वथा समाप्त ही हो गया था, आरम्भ में मुझे लगता रहा कि भले ही पटरानी का पद मेरे पास है परंतु पांडु माद्री के पास हैं परंतु एक दिन सहसा दासी ने आकर सूचित किया "महारानी, आपसे छोटी रानी मिलना चाहती हैं।" मैं अवाक रह गयी, क्या मुझे और अधिक प्रताड़ित करने आई है अथवा मेरी दुर्दशा पर हँसने मेरे पास आई है... मैं कुछ कहती इससे पहले ही पार्वती बोल पड़ी "रानी को हस्त प्रक्षालन के लिए जल दो, महारानी स्वयं उनकी आगवानी करेंगी।" "जो आज्ञा" कहकर दासी चली गयी। मैं क्रोध में पार्वती से कुछ कहती कि पहले वही बोल पड़ी "महारानी सदैव स्मरण रखें अपने से बली को कभी क्रोध करके पराजित नहीं किया जा सकता। अपने से बली को सिर्फ भेद से ही पराजित किया जा सकता है और वैसे भी अभी सत्य वास्तुस्थिति क्या है इसको जाने वगैर यदि आप नयी रानी का अपमान करेंगी तो संभव है कि व्यर्थ ही हास्य का विषय बन जाएँ। छोटी रानी जब स्वयं चलकर आपके पास आई हैं तो आपका भी दायित्व बनता है कि बड़प्पन दिखाएँ।" पार्वती की बातों में सच्चाई थी। मैं बाहर की ओर कदम बढ़ाती इससे पहले ही माद्री अंदर आती हुई दिखाई दी। मुझे सत्य नहीं ज्ञात था कि पांडु इस पर मोहित हैं या नहीं परंतु यदि ऐसी रूपवती इंद्र को भी प्राप्त हो तो वो अपने को सौभाग्यशाली माने। प्रकृति ने अपनी संपदा माद्री पर खूब लुटाई थी। सुंदरता के साथ-साथ उसकी चाल में, व्यवहार में एक अल्हड़पन था जो पुरुषमन को अतिशीघ्र आकर्षित करता। यह संभवतः माद्र देश की खुली जलवायु का परिणाम था। आते ही माद्री हाथ जोड़ कर खड़ी हो गयी और बोली "लगता है दासी से कुछ भूल हुई है!!" मेरे अंतः को झटका लगा। कहाँ मैं विचार कर रही थी कि कोई झंझावात आकर मेरे समस्त अस्तित्व को हिलाने वाला है और कहाँ माद्री का करुण स्वर... मैं कुछ बोल नहीं पायी । माद्री ही बोली "सत्य ही मैं अशुभकारक हूँ, भ्राता ने कुल परंपरानुसार मुझे विक्रय कर दिया, पति की मुझमें रुचि नहीं, देवी समान दीदी मुझसे बात करना भी उचित नहीं समझतीं। दीदी मैं तो बस आपसे यह आग्रह करने आयी हूँ कि मुझे भी अपने समान आचरण व पतिसेवा की शिक्षा दें जिससे कि मैं भी आपकी भाँति  पतिप्रेम व सानिध्य प्राप्त कर सकूँ।” मैं अब भी कुछ नहीं समझ पायी थी। क्या माद्री का यह स्वर एवं बनावट दिखावा था। क्या माद्री मेरी दशा पर ठिठोली करने आई थी। माद्री ही पुनः बोली “मैं मानती हूँ कि महाराज पर प्रथम अधिकार आपका ही है परंतु महाराज तो मुझे ऐसे विस्मृत किए बैठे हैं जैसे मैं उनकी विवाहित स्त्री ना करके युद्धविजित रण दासी हूँ।” माद्री का करुण स्वर मुझे अंदर से हिलाये दे रहा था, तो यह थी सत्यता। “बहन आओ उद्यान में चलते हैं, वहाँ इस विषय पर मुक्त कंठ से चर्चा कर पाएँगे।” यह कहकर मैं बिना माद्री के उत्तर की प्रतीक्षा किए कक्ष से बाहर की ओर चल दी । मैं नहीं चाहती थी कि कक्ष में ऐसी कोई वार्ता हो जो दासियों के माध्यम से सम्पूर्ण हस्तिनापुर में प्रचारित हो और फिर पति पत्नी के बीच की वार्ता तो पूर्ण गोप होने ही चाहिए। माद्री भी मेरे पीछे पीछे चली आ रही थी। दासियों को साथ आने से मैंने मना कर दिया था बस पार्वती हमारे साथ ही थी। हम कुछ दूर आकर रुक गए, सूर्य देव अपनी प्रतिदिन की यात्रा के अंतिम चरण में थे। उनकी रश्मियाँ पीतवर्ण होकर धरा पर क्रीड़ा कर रही थीं, बाग बसंत के उन्माद से पूर्णपूरित था। सामान्य स्थितियों में वर्तमान अवस्था का असर अवश्य हमारे हृदय पर हुआ होता परंतु वर्तमान स्थिति में यह बसंत कुंठा रूप धारण करके हृदय में स्थित हुआ जाता था। पार्वती अपने साथ दो भृत्य ले आयी थी वो बाग में उचित स्थान पर दो चौकियाँ रखकर चले गए। हम दोनों ही कुछ देर शांत बैठे रहे, फिर मैं बोली "बहन माद्री हम दोनों ही एक ही कश्ती के सवार हैं। हम एक ऐसी राह के राही हैं जिसपर प्रत्येक राही को दूसरे राही से रहजनी की शंका रहती है। स्त्री सब कुछ सहन कर सकती है यहाँ तक कि पतिप्रेम का बँटवारा भी परंतु अपने स्त्रीत्व का अपमान उसके लिए असह्य होता है। स्त्री नहीं सह सकती कि उसमें अपने पति को आकर्षित करने की पर्याप्त क्षमता नहीं था अतः पति दूसरी स्त्री की ओर आकर्षित हुआ। आम अवस्था में प्रत्येक स्त्री पति के बहुविवाह को अनेकों प्रकार से किसी कारण के तहत मानकर हृदय को समझाती है परंतु तुम जानती हो कि हमारा जीवन असामान्य है और हम इस प्रकार से नहीं सोच सकते बस इसी संकोच ने मुझे तुमसे मिलने से रोके रखा। तुम स्व पर विजय प्राप्त कर मेरे पास आयी हो सो तुम धन्य हो।"

"दीदी मैं जब दिव्यभवन के लिए निकली तो मेरे मन में संकोच विराजमान था परंतु आपने जिस प्रकार से मुझे अपनाया है, मैं अनुग्रहित हूँ।"

"बहन, जीवन एक दृश्यमान परा प्रपात है। हम ना किसी को अपनाते हैं, ना किसी को छोड़ते हैं। जीवन की धारा सदैव प्रवाहमान है, हम बस, कभी उस प्रवाह में प्रवाहित होकर आनंदित होते हैं और कभी भय से सहारा ढूँढते हैं। कुछ देर सहारे के भरोसे चलते हैं, फिर प्रवाह के थपेड़े हमें कहीं और ले जाते हैं। यही मिलना विलगना चलता रहता है। हमारा दुख एक समान है। तुम जिस रोग की दवा के लिए मेरे पास आई हो, मैं स्वयं उसी व्याधि में दिन-रात जल रही हूँ।"

"अर्थात.. अर्थात।"

"यही सत्य है बहन।"

"फिर कारण!"

"अज्ञात... अभी तक मुझे स्वयं से विरक्ति सी हो गई थी कि आखिर किस कारण से मैं अपने स्वामी का मन बाँधने में सक्षम नहीं, परंतु अब..."

"दीदी, महाराज कल प्रातः पुनः मृगया हेतु प्रस्थान कर रहे हैं। हम कुछ नहीं कर सकते, परंतु उनको साथ लेकर चलने का आग्रह तो कर ही सकते हैं।"

"हाँ, आग्रह ही तो कर सकते हैं!"

"नहीं, दीदी, आप मेरे साथ रहें, पति का कर्तव्य है धर्म एवं लोकसम्मत पत्नी की इच्छा की पूर्ति करना।"

"बहन, अभी अनुभव की पूर्ति होना शेष है। धर्म एवं लोकसम्मत क्या है, पता है तुम्हें?"

"दीदी, मुझे तो बस, यह ज्ञात है कि पत्नी की ऐसी इच्छा, जिसकी पूर्ति से धर्म अथवा समाज के किसी नियम की अवहेलना ना हो रही हो, को पूरा करना पति का कर्तव्य है।"

"बहन, क्षत्रिय के लिए मृगया और युद्ध धर्मसंगत है, हमारा साथ मृगया में बाधा उत्पन्न करेगा, यही धर्मबाधा हो जाएगी। माद्री स्त्री के अधिकार अतिसंकुचित हैं इस समाज में। मैं जानती हूँ कि माद्र देश में सामाजिक व्यवस्था खुलेपन पर आधारित है, पर स्त्री के लिए चाहे जो भी समाज हो, इतने बंधन हैं कि उनके अधिकार सत्यता के धरातल पर नहीं उतर पाते। स्त्री के अधिकार सदैव ही किंतु, परंतु से ग्रसित रहते हैं और फिर हमारे धर्मसंगत अधिकारों पर भी समाज का पहरा है।"

"दीदी, मैं आपकी बातों से सहमत हूँ, परंतु हम एक बार अपने पति से साथ ले चलने का आग्रह तो कर ही सकते हैं!"

"हाँ, क्यों नहीं!"

"चलो प्रभु का आभार, मुझे तो लगा था, आप इस पर भी धर्म,समाज और अधिकार का ऐसा ताना-बाना बुन देंगी कि यह इच्छा भी धरातल पर नहीं आ पाएगी।" इतनी देर में ही मैं यह समझ गई थी कि माद्र देश के खुले समाज का ही असर था कि माद्री कई ऐसी बातें बहुत सहजता से कह जाती थी, जो कि सामने वाले को असह्य गुजरें और उसके बाद भी उसके चेहरे पर ऐसा कोई भाव नहीं था कि ग्लानि प्रकट हो। 

पांडु अपने प्रिय घोड़े तमान के पास में थे, चाहे मृगया हो अथवा युद्धक्षेत्र महारज का और तमान का सदैव साथ था। हम दोनों को देखकर उनकी भृकुटि पर बल पड़ गए और बोले, "राजभवन छोड़कर तुम दोनों यहाँ!"


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पुस्तक लिंक: अमेज़न



लेखक परिचय


अंकुर मिश्रा

अंकुर मिश्रा कानपुर उत्तर प्रदेश के हैं। उन्होंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के पश्चात बैंकिंग क्षेत्र में अपना कैरियर बनाने का विचार किया। अब वह सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक में वरिष्ठ प्रबन्धक के पद पर कार्यरत हैं। 

उनकी कहानियाँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। 

लेखक से आप निम्न माध्यमों के द्वारा सम्पर्क स्थापित कर सकते हैं:

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