नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

प्यार की सही परिभाषा बतलाने में सफल होती है दीप्ति मित्तल की उपन्यासिका 'आकाशिक'

संस्करण विवरण:

फॉर्मैट: ई-बुक | पृष्ठ संख्या: 56 | पुरस्कार: केडीपी 5: द्वितीय पुरस्कार

पुस्तक लिंक: अमेजन 



कहानी 

रोहिणी एक 43 साल की महिला थी जिसे जीवन अपने शर्तों में जीना पसंद था। 

इस तरीके से जीते हुए उसने अपना जीवन बना लिया था लेकिन साथ में काफी कुछ खोया भी था। 

पर वह अपने जीवन में खुश थी लेकिन फिर  कुछ ऐसी परिस्थितियाँ उभर आई जिससे उसे लगने लगा कि शायद उसकी ये खुशियाँ छिन सकती हैं। उसे अपना भूतकाल एक बार फिर दोहराता हुआ लगने लगा था। 

ऐसे में उसे उम्मीद की एक ही किरण नजर आती है और वो है आकाशिक। 

आकाशिक कौन है ये रोहिणी नहीं जानती लेकिन उसे लगता है कि आकाशिक उसको और उसकी जिंदगी में हो रही चीजों को जानता है। उसकी हर पोस्ट उसे अपने जीवन से जुड़ी लगती है। वह उसे उसकी समस्याओं का समाधान देता प्रतीत होता है। 

आखिर कौन है ये आकाशिक?
रोहिणी के जीवन में क्या समस्याएँ थी?
क्या आकाशिक के समाधान काम आए?

मेरे विचार 

'आकाशिक' लेखिका दीप्ति मित्तल की उपन्यासिका है। किंडल पर प्रकाशित इस रचना को के डी पी 5: पेन टू पब्लिश प्रतियोगिता में द्वितीय पुरस्कार मिला था। उपन्यास प्रेम और उसके असल मायने को केंद्र में लेकर लिखी गई है। इसके अलावा लेखिका उपन्यास के अंत में बताती भी हैं कि यह रचना लिखने का विचार उनके मन में कहाँ से आया पर वो उपन्यास इसे पढ़ने के बाद ही जाने तो मुझे लगता है बेहतर होगा।

'आकाशिक' की शुरुआत रोहिणी और उसकी दोस्त अनुपमा के मिलने से होती है। रोहिणी एक बार कोमुदनी की मालकिन है जो किसी कारणवश तीन दिन की छुट्टी पर है। इसी छुट्टी के दौरान वह अपनी कॉलेज की दोस्त अनुपमा से मिलने की योजना बनाती है। वो मिलकर पुराने दिनों को ताजा करना चाहते हैं।

पर इसी मिलने के दौरान उसे पता चलता है कि उसका बेटा उससे झूठ बोलकर कहीं गया है। रोहिणी के जीवन में उसके बेटे के सिवा कोई नहीं है और वो समझ नहीं पाती है कि उसका बेटा उससे झूठ क्यों बोल रहा है। रोहिणी यह देखकर घबरा जाती है क्योंकि उसे अपने पति अभय की याद आ जाती है जो एक दिन उसे छोड़कर चला गया था।

यहीं पर पाठक को पता चलता है कि आजकल उसके जीवन में फेसबुक के माध्यम से आकाशिक नामक व्यक्ति भी जुड़ा है जिसकी पोस्ट देखकर रोहिणी को अक्सर लगता है कि आकाशिक की पोस्ट्स उसके लिए ही हैं। रोहिणी के भीतर चल  रहे तूफान से ये आकाशिक वाकिफ दिखता है और उसे इस परिस्थिति से उभरने की सलाह भी देता है।

क्या आकाशिक की सलाह काम आती है? रोहिणी के बेटे ने झूठ क्यों कहा था? अभय क्यों रोहिणी और अपने बेटे को छोड़कर चला गया था? ये कुछ ऐसे प्रश्न है जिनके उत्तर जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती चली जाती है पाठक को पता चलते जाते हैं। 

साथ ही उपन्यासिका के माध्यम से उन्होंने ऐसी परिस्थितियों और मानसिक द्वंद का अवलोकन करने की कोशिश भी की है जिसके चलते कोई अपनों से दूर चला जाता है। कब प्रेम बेड़ियाँ बन जाता है ये अक्सर प्रेम करने वाले नहीं जान पाते हैं। उन्हें लगता है कि वो जिससे प्रेम करते हैं उसकी भलाई के लिए चीजें कर रहे हैं लेकिन क्या असल में होता है? ऐसे ही सवालों के उत्तरों से आपको यह रचना वाकिफ करवाती है। 

प्रेम के अतिरिक्त दोस्ती, उसका महत्व और आज के वक्त में सोशल मीडिया का व्यक्ति के जीवन में प्रभाव को भी लेखिका सफलता पूर्वक दर्शाने में कामयाब होती है।

उपन्यासिका की भाषा शैली खूबसूरत है और बीच बीच में मौजूद कई वाक्य आपको सोचने, विचारने, सहेजने और  जीवन में उतारने के लिए काफी कुछ दे जाते हैं।

रोहिणी, अनुपमा, अभय, रोहित के किरदार जीवंत हैं और यह अपने आस पास के किरदार लगते हैं। जहाँ अनुपमा प्रेम और उसके असल मायने समझती है और अपने जीवन में खुश वहीं वहीं उसकी सबसे प्रिय दोस्त रोहिणी को प्रेम के असल मायने काफी देर में समझ आते हैं। यही कारण है कि असल खुशी भी उसके जीवन में देर में ही आती है।  रोहिणी उन लोगों में से हैं जो जिद और प्रेम में फर्क महसूस नहीं कर पाती हैं। प्रेम की उनकी अपनी परिभाषा है और वो जिससे प्रेम करती हैं उसी में अपनों को ढालने की कोशिश करती रहती हैं और न चाहते हुये भी लोगों को दूर धकेल देती है। यह चीज वो पहले अपने प्रेमी के साथ करती है और फिर अधिकतर अभिभावकों की तरह अपने बच्चे के साथ भी करती है। अक्सर अभिभावक बच्चों को संभालते संभालते ये भूल जाते हैं कि कब वो खुद को संभालने लायक हो गए हैं और अब अभिभावकों का संभालना संभालना कम बल्कि अपनी इच्छानुरूप उन्हें ढालना अधिक होता है। जो कि प्रेम तो नहीं ही होता है। प्रेम क्या है ये कहानी सफलतापूर्वक दर्शाती है। 

कहानी की कमी की बात करूँ तो आकाशिक का किरदार एक रहस्य लिए हुए है। वह अचानक से रोहिणी की जिंदगी में आता है और फिर उसी तरह अपना कार्य करके उसकी जिंदगी से चला भी जाता है। आकाशिक को कैसे पता लगता है कि रोहिणी की जिंदगी में क्या हो रहा है? वह कैसे रोहिणी के मनोभाव जान पाता है? इन बातों का खुलासा लेखिका नहीं करती है। एक अलौकिक निर्देशक के रूप में आकाशिक को दर्शाया गया है जो कि अक्सर आम लोगों की ज़िंदगी में नहीं होता है। लेखिका आकाशिक की पहचान के विषय में भी कुछ बताती नहीं है जिससे पाठक के मन में आकाशिक को लेकर सवाल रह ही जाते हैं। ऐसे सवाल जिनके उत्तर के कयास लगाने के लिए लेखिका उन्हें छोड़ देती हैं। ज़िंदगी में कई सवालों के जवाब मिलते नहीं है ये मुझे पता है लेकिन इधर मिलते तो व्यक्तिगत तौर पर लगता कि बेहतर होता।  

इसके अतिरिक्त प्रूफ की इक्का दुक्का गलतियाँ ही दिखी। जैसे एक जगह वर्ल्ड को वर्ड लिखा है (आई लव यू मॉम! यू आर दा बेस्ट मॉम इन दिस होल वर्ड  (पृष्ठ 14))और जहाँ झटक होना चाहिए वहाँ पटक (रोहिणी मुँह पटक कर घुटनों से चिपकी गीली मिट्टी हटाते हुए सीधी खड़ी हो गई।) लिखा है। जब लेखक किताबें स्वयं प्रकाशित करते हैं तो प्रूफ रीडिंग की कमी बहुत अधिक देखने को मिलती हैं लेकिन यहाँ लेखिका की तारीफ करनी पड़ेगी कि इधर ऐसा कम ही देखने को मिलता है। 

अंत में यही कहूँगा कि प्रेम क्या है और प्रेम असल में कैसा होना चाहिए ये यह उपन्यासिका बहुत अच्छे से दर्शाती है। अगर आप कुछ अच्छा पढ़ना चाहते हैं तो इस उपन्यासिका को अवश्य पढ़ें। पढ़कर निराश नहीं होंगे।



उपन्यासिका के अंश जो मुझे पसंद आए


दोस्तों के ज़ख़्म तब तक नहीं सहलाने चाहिए जब तक वो ख़ुद इज़ाजत ना दें। वरना ज़ख़्म नासूर बन जाते हैं और दोस्ती बोझ। (पृष्ठ 7)

दुनिया में सबसे बुरा होता है अपनों से छला जाना। उन अपनों से जिनके लिए हम ख़ुद को भूल जाते हैं, अपना हर छोटा-बड़ा फैसला लेने से पहले उनके बारे में सोचते हैं, जिन पर हम आँख मूंद कर भरोसा करते हैं, जिन्हें अपनी पूरी ज़िंदगी बना लेते हैं। (पृष्ठ 10)

यह झुकने का, स्वीकार करने का साहस है जिसमें प्रेम होता है... और अपनेपन की तसल्ली भी...कि चाहे तुम मुझे कितना ही कड़वा सच परोसोगे, मैं उसे उतने ही प्यार से अपनाऊँगा क्योंकि वो तुम्हारा सच होगा...तुम भी मेरे हो, तुम्हारा सच भी मेरा है। ऐसा भरोसा देना पड़ता है तब सामने वाला खुल कर बोल पाता है।” (पृष्ठ 11)

सबसे मुश्किल वो लड़ाइयाँ होती हैं जो ख़ुद से लड़ी जाती हैं। (पृष्ठ 12)

अपनो से लिपट इतना भर सुन लेना, थोड़ा वांटेड फील कर लेना, बस इतना ही काफ़ी होता है ज़िंदा रहने के लिए... साँसे ऑक्सीजन से ज्यादा अपनों की आँखों में अपने लिए वैल्यू देखने से चलती हैं। वरना जीना क्या और मरना क्या? एक से मायने हो गये हैं दोनों के... (पृष्ठ 14)

सच, अपनों से कुछ छिपाना नहीं चाहिए। ना गुस्सा, ना प्यार... दूसरा बिन बोले सब समझ लेगा, बिन कहे सब सुन लेगा... रिश्तों में ये सब फ़ालतू की फैंटेसी बनाई हुई हैं लोगों ने, जो रिश्तें को कभी ना कभी कमज़ोर कर देती हैं। जो है, जैसा है, जताते रहना चाहिए ताकि कंफ्यूजन की कोई गुंजाइश ना रहे। वरना मन में जमे छोटे छोटे तिल, एक दिन बड़े बड़े ताड़ बन जाते हैं। (पृष्ठ 16)

कहने को तो ये जग भी माया कहलाया जाता है। कहते हैं, ये संसार स्वप्न जाल है, मिथ्या है। मौत के साथ जब शरीर की आँखें बंद हो जाती हैं तो यह संसार रूपी स्वपन भरभरा कर टूट जाता है। फिर सामने आता है असली जीवन, जो इस शरीर से परे है, अनंत है... यही नियम इस वर्जुअल वर्ड पर लागू होता है। फ़ोन बंद तो ये बुलबुले जैसी सपनीली दुनिया ख़त्म... और अगर इसमें गहरे उतर जाओ तो हर कोई अस्तित्वमान लगता है, सच्चा लगता है। जैसे इस वक़्त मेरे लिए आकाशिक उतना ही बड़ा सच है जितना मैं ख़ुद।’ (पृष्ठ 19)

 

हम कितने ही परफेक्ट, इंडिपेंडेंट क्यों ना हों, अकेले कभी पूरे नहीं होते। बनने बनते कुछ बन जाते हैं मगर बहुत कुछ खाली भी रह जाते हैं। उस खाली हिस्से को कोई ऐसा इंसान ही आकर भरता है जो हमारे जैसा बिल्कुल नहीं होता... तभी तो दो अलग लोग मिलकर संपूर्ण बनते हैं, कंप्लीटनेस पाते हैं। नेगेटिव बैटरी की बगल में जब पॉज़िटिव बैटरी खड़ी होती है तो जाकर सर्किट कंप्लीट होता है ना...(पृष्ठ 21)

प्यार भी बड़ी अज़ीब चीज़ है, कभी इतना ताकतवर हो जाता है कि प्रेमी के लिए पूरी दुनिया से लड़ जाता है और कभी कभी इतना कमज़ोर कि अकेले प्रेमी से भी नहीं लड़ पाता। (पृष्ठ 24)

हम किसी को पूरा स्वीकार करते ही कहाँ हैं, जितना अनुरूप हो हमारे, उतना रख लेते हैं
बाकी हिस्सा या तो ठुकरा देते हैं, या फिर उसे बदलने में लग जाते हैं
अगर वो हिस्सा बदल भी जाए तो याद रखना, उसका बाकी हिस्सा मर जाता है...
मिलेगा वो अधूरा ही... पूरा हासिल नहीं हो पाता है
किसी को पूरा पाना हो तो जैसा है, वैसा ही अपना लेना
बदला हुआ अगर पा भी लोगे तो ख़ुद भी थोड़ा मर जाओगे। (पृष्ठ 28)


हम किसी के लिए ख़ास हैं, ये फीलिंग जीवन की बहुत सी कमियों को भर देती है। (पृष्ठ 30)

प्रेम भी तो समुंदर जैसा ही होता है... जब-तब अपने रंग बदलता रहता है। कभी शांत झील सा स्थिर लगता है तो कभी तेज़ तूफ़ान समेटे बेहद उन्मादी। प्रेम के तूफ़ान जब देह पर उतरते हैं तो उनमें फँसने से कोई नहीं बच पाता, (पृष्ठ 31)


उन आवेशित क्षणों में पहली बार उनका ‘मैं’ छूटा था...यह छूटना, ख़ुद को खो देना, यही दुनिया का सबसे सहज और प्यारा अनुभव है जिसका अहसास प्रकृति इंसान को प्रेम में कराती है। पहले प्रेम में ख़ासकर। (पृष्ठ 32)

मगर वो इस सत्य से अनजान थी कि ऐसी जीत, हार से भी ज्यादा भारी पड़ जाती हैं जिन्हें अपनों को हराकर जीता जाए। प्रेम में कोई हार-जीत नहीं होती, वो सिर्फ़ प्रेम होता है। जिस प्रेम के पीछे कोई कामना, कोई स्वार्थ चिपका हो, वो कुछ भी हो, प्रेम नहीं रह जाता... और जो प्रेम नहीं है, वो कभी ना कभी हारता ही है। (पृष्ठ 32)

प्रेम शायद समुंदर नहीं होता, वो नदी होता है। अपने उद्गम के समय कितना पवित्र, कितना उन्मादी, बलखाता, मचलता, हर अवरोध को ख़ुद में लील लेने की ताकत रखता... वो प्रेम जैसे जैसे आगे बहता है, ज़िंदगी के हर क़दम पर नदी की तरह प्रदूषित, मैला, धीमा होता जाता है... उस पर इतने दुनियावी बाँध बना दिये जाते हैं कि एक पाइंट पर आकर वह सूख जाता है और किसी नाले की तरह सड़ांध मारने लगता है। (पृष्ठ 37)

कितने घरों में ऐसा होता है जहाँ एक को, दूसरे का मरना तब तक नहीं दिखता जब तक मन का रोग, तन पर ना उतर आए। जब तक उसके लिए किसी डॉक्टर का अपाइंटमेंट ना लेना पड़े, अस्पताल की देहरी ना चढ़नी पड़े... तब जाकर लगता है कुछ चिंताजनक चल रहा है। इंसान का चलते-फिरते रहना उसकी सलामती की निशानी मानी जाती है। प्रेम के अभाव में, किसी के अंदर चल रही मौत बाहर नहीं दिखती और प्रेम है तो आँखों के पीछे रूके आँसू भी दिख जाते हैं, अनकहे बोल भी सुन लिये जाते हैं। अभय अस्पताल में आठ दिन रह घर लौट आया। (पृष्ठ 37)

कुछ सवाल जो कभी पूछे नहीं जाते, 
वे पत्थर बन जाते हैं और बंधे रहते हैं पैरों से 
पिघलने के इंतज़ार में... 
कुछ ज़वाब जो कभी नहीं दिए जाते, वे प्रेत बन जाते हैं और कंधे पर बैठे रहते हैं, 
अपनी मुक्ति इंतज़ार में... (पृष्ठ 38)

“यहाँ किसी दूसरे की बात है ही नहीं। सवाल भी ख़ुद से ही करने हैं और जवाब भी ख़ुद को ही देने हैं। कहीं ना कहीं, हम सब जानते हैं बस कभी ख़ुद से ईमानदार होकर सवाल पूछने की हिम्मत नहीं करते क्योंकि उसके लिए हमें ख़ुद को कटघरे में लाना होगा। हम अक्सर ख़ुद को सही जवाब देने में कतराते हैं क्योंकि हम अपनी कमजोरियों का सामना नहीं करना चाहते।” (पृष्ठ 38)

कुछ लोग हमारी लाइफ़ के बैकग्राउंड म्यूज़िक होते हैं। जब लाइफ़ में कोई दूसरा शोर नहीं होता, तो बस वे सुनाई देते हैं। इनमें ज्यादातर वे लोग होते हैं जिनसे हम कहा-सुना माफ़ नहीं कर पाए। (पृष्ठ 43)

पुस्तक लिंक: अमेजन 


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