नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

अपनी अपनी बीमारी -2 - हरिशंकर परसाई

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: ई बुक | एएसआईएन: B01N3L3FYJ | प्रकाशक: राजपाल एंड संस | पृष्ठ संख्या: 128
किताब लिंक:  पेपरबैक | किंडल

अपनी अपनी बीमारी - हरिशंकर परसाई | समीक्षा


'अपनी अपनी बीमारी' हरिशंकर परसाई के इक्कीस व्यंग्य लेखों का संग्रह है।  इससे पहले की पोस्ट में मैंने इस संग्रह में मौजूद शुरुआती 11 ग्याराह लेखों के ऊपर लिखा था। 

अपनी अपनी बीमारी - 1

अब मैं इस संग्रह में मौजूद आखिर के दस लेखों के ऊपर बात करूँगा। यह लेख निम्न हैं:

सिलसिला फोन का 
पहला वाक्य:
यह जो फोन लग गया है, उसके लिए 350 रूपये ख्रेजी ने जमा किये थे।

लेखक के घर नया नया फोन लगा है। यह फोन कैसे लगा और इस फोन के लगने से क्या क्या हुआ यही लेख की विषय वस्तु बनता है।

मुझे लगता है यह लेख इस संग्रह में मौजूद सबसे कमजोर लेखों में से एक है। लेख में लेखक कई चीजों के ऊपर एक साथ बात करते दिखते हैं। ऐसा नहीं है कि उन्होंने व्यंग्य नहीं किया है लेकिन फिर भी लेख का ज्यादातर हिस्से में क्या हो रहा है यह कम से कम मेरी समझ में तो नहीं आया।  लेख में एक जगह लेखक बच्चे पैदा करने को लेकर एक बात कहते हैं जो कि आज शायद नारी विरोधी समझा जाए। मुझे भी वह बात पसंद नहीं आई थी। इस चीज से बचा जा सकता था क्योंकि बच्चा पैदा करना पैसे कमाने से आसान काम नहीं ही है। अगर यह लेख इस संग्रह में न भी होता तो शायद बेहतर होता।

लेख का अंश जो मुझे पसंद आया
जो नहीं है, उसे खोज लेना शोधकर्ता का काम है। काम जिस तरह होना चाहिए, उस तरह न होने देना विशेषज्ञ का काम है। जिस बीमारी से आदमी मर रहा है, उससे उसे न मरने देकर दूसरी बीमारी से मार डालना डॉक्टर का काम है। अगर जनता सही रास्ते पर जा रही है, तो उसे गलत रास्ते पर ले जाना नेता का काम है। ऐसा पढ़ाना कि छात्र बाज़ार में सबसे अच्छे नोट्स की खोज में समर्थ हो जाए, प्रोफेसर का काम है।

बारात की वापसी 
पहला वाक्य:
बरात में जाना कई कारणों से टालता हूँ।

लेखक का कहना है कि वह बारात में जाना टालते रहते हैं। लेकिन कई बार यह टालना हो नहीं पाता है। ऐसे में जब उन्हें एक बारात में जाना पड़ा तो  उधर से लौटना भी था।  

बरात से लौटने के दौरान लेखक और उनके साथियों के साथ क्या क्या हुआ यही इस लेख की विषय वस्तु बनता है।

बारात की वापसी में परसाई जी ने एक साथ काफी चीजों पर अपने व्यंग्य बाण छोड़े हैं।  लेख की शुरुआत में वह भारतीय विवाह संस्था के ऊपर बात करते हुए दहेज प्रथा को निशाना बनाते हैं। वहीं आगे जाकर वह युवा पीढ़ी किस तरह आज भी पुराने ढर्रे पर चलकर रूढ़ियों का पालन कर रही है इस पर भी वह बात करते हैं। 

चूँकि लेख का शीर्षक बारात से लौटना है तो वह इस लेख के माध्यम से सार्वजनिक परिवाहन की हालत पर भी प्रहार करते हैं। वहीं लेख के अंत तक आते आते सरकारी मुलाजिम और उनके आम आदमी और नेता के प्रति अलग अलग व्यवहार को भी वह दर्शा देते हैं।

लेख में उठाई गयी सभी बातें आज भी उसी तरह कायम हैं और हमें सोचने को काफी कुछ दे जाती हैं। क्या कभी यह बदलेंगी? यह आपको और हमको सोचना है।

लेख के कुछ अंश:
सारे युद्ध प्रौढ़ कुंवारों के अहं की तुष्टि के लिए होते हैं।

विवाह का दृश्य बड़ा दारुण होता है। विदा के वक्त औरतों के साथ मिलकर रोने को जी करता है। लड़की के बिछुड़ने के कारण नहीं, उसके बाप की हालत देखकर लगता है, इस कौम  की आधी ताकत लड़कियों की शादी करने में जा रही है। पाव ताकत छिपाने में जा रही है- शराब पीकर छिपाने में, प्रेम करके छिपाने में, घूस लेकर छिपाने में- बची हुई पाव ताकत से देश का निर्माण हो रहा है - तो जितना हो रहा है, बहुत हो रहा है। आखिर एक चौथाई ताकत से कितना होगा?

झूठ अगर जम जाए तो सत्य से ज्यादा अभय देती है।

इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर 
पहला वाक्य:
वैज्ञानिक कहते हैं, चाँद पर जीवन नहीं है। 

इंस्पेक्टर मातादीन का कहना था कि चाँद पर लोग थे और वह चाँद पर हो आया था। यही नहीं चाँद पर जाकर उसने चाँद वासियो के पुलिस विभाग को ट्रेनिंग भी दी थी।

आखिर इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर कैसे पहुँच गया?
चाँद पर जाकर इंस्पेक्टर मातादीन ने किस तरह की ट्रेनिंग वहाँ के पुलिस वालों को दी?

'इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर' एक फंतासी है। लेखक ने इस फंतासी का सहारा लेकर पुलिस की कार्यप्रणाली पर करारा व्यंग्य किया है। लेख की शुरुआत में ही लेखक इंस्पेक्टर मातादीन के विषय में कहते हैं:

विज्ञान ने हमेशा इंस्पेक्टर मातादीन से मात खाई है। फिंगर प्रिंट विशेज्ञ कहता रहता है- छुरे पर पाए गये निशान मुलजिम के नहीं हैं। पर मातादीन उसे सजा दिला ही देते हैं।

यही विवरण मातादीन और पुलिस व्यवस्था के विषय में काफी कुछ कह जाता है। लेख में आगे मातादीन की कार्यप्रणाली जैसे जैसे उजागर होती है वह हास्य पैदा करने के साथ साथ भय भी पैदा करती है।  आप लेख पढ़ते हैं और यह जानते हैं कि भले ही लेखक ने एक फंतासी के रूप में इसे लिखा है लेकिन इसी देश में कोई न कोई व्यक्ति ऐसा होगा जो कि ऐसी पुलिसिया कार्यवाही का शिकार हो रहा होगा। वहीं आप खुद को भाग्यवान भी मानने लगते हैं क्योंकि आप ऐसे पुलिसियों के चंगुल में नहीं फँसे हैं। 

यहाँ मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि सभी पुलिस वाले ऐसे होते हैं। मैं बस  इतना कह रहा हूँ कि भारत जैसे देश में अगर 1 प्रतिशत पुलिस वाले भी ऐसे हुए तो वह काफी बड़ी जनसंख्या हो जाती है। बाकी पाठक के रूप में आप भी जानते हैं कि यह प्रतिशत एक है या इससे ज्यादा।

लेख के कुछ अंश:
अब मातादीन ने इन्वेस्टीगेशन का सिद्धांत समझाया - देखो, आदमी मारा गया है, तो यह पक्का है कि किसी ने उसे जरूर मारा। कोई कातिल है। किसी को सजा होनी है। सवाल है किसको सजा होनी है? पुलिस के लिए यह सवाल इतना महत्व नहीं रखता जितना यह सवाल, कि जुर्म किस पर साबित हो सकता है या किस पर साबित होना चाहिए। कत्ल हुआ है तो किसी मनुष्य को सजा होगी ही। मारने वाले को होती है, या बेक़सूर को -यह अपने सोचने की बात नहीं है। मनुष्य-मनुष्य सब बराबर हैं।  सब में उसी परमात्मा का अंश है। हम भेदभाव नहीं करते। यह पुलिस का मानवतावाद है।

मातादीन ने कोतवाल से कहा - घबड़ाओ मत। शुरू-शुरू में इस काम में आदमी को शर्म आती है। आगे तुम्हें बेकसूर को छोड़ने में शर्म आएगी। हर चीज का जवाब है। अब आपके पास जो आये उससे कह दो, हम जानते हैं वह निर्दोष है, पर हम क्या करें? यह सब ऊपर से हो रहा है। 
...
एक मुहावरा 'ऊपर से हो रहा है' हमारे देश में पच्चीस सालों से सरकारों को बचा रहा है। तुम इससे सीख लो।

असुविधाभोगी
पहला वाक्य:
साहित्यजीवी की आमदनी जब 1500 रू महीना हुई तो उसने पहली बार एक लेख में लिखा - देश के लेखक सुविधाभोगी हो गए हैं।

वह साहित्यकार थे और उन्हें लगता था कि देश के साहित्यकार सुविधाभोगी हो गये थे। उन्हें इसी बात से दिक्कत थी कि कैसे साहित्यकार सुविधाभोगी बनते जा रहे थे।
यह साहित्यकार क्यों सोचता था कि लेखक सुविधाभोगी हो गये हैं? 
यह लेखक ऐसे लेखकों से भिन्न कैसे थे?

साहित्य के अमले में उठा पठक जोड़ तोड़ उतनी ही व्याप्त है जितना की किसी राजनितिक दल में है। साहित्यकारों की कथनी और करनी में फर्क के भी उदाहरण यदा कदा मिलते ही रहते हैं। यह लेख ऐसे ही एक साहित्यकार को लेकर लिखा गया है जिसके माध्यम से लेखक ने ऐसे बिरादरी के लेखकों के ऊपर तगड़ा कटाक्ष किया है।

बैरंग शुभकामना और प्रजातंत्र 
पहला वाक्य:
नया साल राजनीति वालों के लिए मतपेटिका और मेरे लिए शुभकामना का बेरंग लिफाफा लेकर आया है।

नया साल आया था। नेता के लिए चुनावो की घोषणा और लेखक के लिए एक बेरंग लिफ़ाफ़े में शुभकामना संदेश लेकर आया था।
बैरंग शुभकामना और प्रजातंत्र में क्या साम्य था?
लेखक इन दोनों की बात साथ में क्यों रहा है?

बैरंग लिफाफा वह होता था जिस पर टिकेट नहीं लगा होता था। ऐसे लिफ़ाफ़े के आने पर व्यय लिफाफा पाने वाले को खुद देना होता था। लेखक ने चुनाव की इन्हीं बैरंग लिफाफे से तुलना की है। चुनाव आते तो हैं कई वादे लेकर लेकिन जनता जानती है कि यह वादे कागजी ही होंगे और जनता को ही इनका व्यय चुकाना होगा। 

लेखक चुनाव प्रक्रिया, चुनाव लड़ने वालों की सोच और सरकार द्वारा चलाये गये कार्यक्रमों पर एक साथ व्यंग्य करते हैं। लेखक लेख में सफाई सप्ताह के अंतर्गत आयोजित किये जाने वाले कार्यक्रम का जिक्र करते हैं जो कि 2014 को शुरू हुए स्वच्छ भारत आयोजन के कई फोटो ओप की याद दिलाता है जिसमें नेता लोग खुद ही कूड़ा लाकर और उसे फैलाकर सफाई करते दिखे थे जबकि जहाँ असल में सफाई चाहिए थी उधर की किसी को कोई सुध ही नहीं थी।

यह लेख दर्शाता है राजीनीति में ज्यादा बदलाव नहीं हुआ है। जनता भी वैसी ही है और जनता के नुमाइंदे भी।

लेख के कुछ अंश:
मेरे आस-पास प्रजातंत्र बचाओ के नारे लग रहे हैं। इतने ज्यादा बचाने वाले खड़े हो गए हैं  कि अब प्रजातंत्र का बचना बहुत मुश्किल दिखता है।

पर जनतंत्र बचेगा कैसे? कौन सा इंजेक्शन कारगर होगा? मैंने एक चुनाव मुखी नेता से कहा - भैयाजी, आप तो राजनीति में माँ के पेट से ही हैं। जरा बताइए, जनतंत्र कैसे बचेगा?
....
भैया जी ने कहा - भैया, हम तो सौ बात की एक बात जानते हैं कि अपने को बचाने से जनतंत्र बचेगा। अपने को बचाने से दुनिया बचती है।

सोचता हूँ, मैं भी चुनाव लड़कर जनतंत्र बचा लूँ। जब जनतंत्र की सब्जी पकेगी तब प्लेट अपने हिस्से में भी आ जाएगी। जो कई सालों से जनतन्त्र की सब्जी खा रहे हैं, कहते हैं बड़ी स्वादिष्ट होती है। जनतंत्र की सब्जी में जो जन का छिलका चिपका रहता है उसे छील दो और खालिस तन्त्र को पका लो। आदर्शों का मसला और कागज़ी कार्यक्रमों का नमक डालो और नौकरशाही की चम्मच से खाओ! बड़ा मजा आता है- कहते हैं खाने वाले।

इतिहास का सबसे बड़ा जुआ 
पहला वाक्य:
इधर पंचम गुरु का मशहूर जुए का अड्डा चलता है।

पंचम गुरु एक जुए का अड्डा चलाता था। उसी अड्डे में छोकरे होते थे जिसका काम जुआरियों के लिए पान, बीड़ी, दारु इत्यादि का इंतजाम करना था।  इसी अड्डे में एक छोकरा था जिसका कहना था कि उसने अपने पूर्व जन्म में दुनिया का सबसे बड़ा जुआ देखा था। वह जुआ जिसमें पांडवों ने कौरवों से अपना सब कुछ हार दिया था।

यह उसी जुए की कहानी है।

यह एक रोचक लेखक है जिसमें कौरवों और पांडवों के जुए के माध्यम से लेखक ने समसामयिक मुद्दों पर बात की है। रोचक आलेख।

लेख के कुछ अंश:
जब कुल का सयाना अँधा होता है, तब थोड़े-थोड़े अँधे सब हो जाते हैं। फिर जिसे बुरी बात समझते हैं उसी को करते हैं। अभी देख लो न। दुनिया में सब लड़ाई को बुरा बोलते हैं। सब शांति की इच्छा रखते हैं, पर सब हथियार बनाते जा रहे हैं।

मैंने कहा - छोकरे, कौरवों की तरफ बड़े-बड़े लोग थे। बड़े-बूढ़े थे। वे सही बात क्यों नहीं बोले।

छोकरा हँसा। बोला - साब, वे सब सिंडिकेटी हो गए थे। अनुशासन में बंध गये थे। निजलिंगप्पाजी (एक वरिष्ठ काँग्रेसी नेता) जिसके डिसिप्लिन बोले थे न, वही हो गया था। अंतरात्मा की आवाज और अनुशासन का झगड़ा था।

आना न आना रामकुमार का 
पहला वाक्य:
बदनामी अपनी कई तरह की है।

लेखको को बड़ी बेचैनी से राम कुमार का इन्तजार था। वह एक समारोह से मुख्य अतिथि बनकर अभी अभी निकले थे। उनके आस पास लोगों की भीड़ थी लेकिन लेखक को इनसे सरोकार नहीं था। उन्हें केवल राम कुमार के आने की प्रतीक्षा थी।
आखिर यह राम कुमार कौन थे? 
लेखक इतनी बेसब्री से क्यों इंतजार कर रहे थे?

आना न आना राम कुमार का वैसे तो प्रथम पुरुष में लिखा गया है लेकिन लेखक इसमें अपने माध्यम से उस बिरादरी पर भी कटाक्ष करते हैं जो कि पैसे लेकर मुख्य अतिथि बनते हैं। पैसे लेकर मुख्य अतिथि बनने में कोई बुराई नहीं है लेकिन जब पैसे के हिसाब से आपके विचार बदलने लगे तो यह सोचनीय विषय हो जाता है। 

लेखक लिखते हैं: 
मैं ऐसा नहीं करता। गिनकर निकलता हूँ। और रकम संतोषप्रद होती है तो उन लोगों से कहता हूँ - आपका यह इलाका बहुत प्रगितशील है। मैं बहुत जगह घूमा हूँ, पर ऐसा आगे बढ़ा हुआ क्षेत्र मुझे कम ही मिला है।
पर अगर रूपये कम हुए तो कहता हूँ - यह इलाका पिछड़ा हुआ है। इसे अभी बहुत प्रगति करनी है।

यह लिखकर वह यह भी दर्शाते हैं कि कैसे इन कार्यक्रमों में जो यह व्यवस्था होती है किसी काम की नहीं होती। लेखक की राम कुमार के आने को लेकर उत्पन्न हुई उत्कंठा कई बार हास्य भी पैदा करती है। रोचक लेख

लेख के कुछ अंश
मैं मन को फिर सम्भालने की कोशिश करता हूँ - बेवकूफ,परेशान क्यों होता है? पैसा ही तो सब कुछ नहीं है। दो हजार लड़कों ने तुम्हारा भाषण सुना। इनमें से अगर 50 भी बिगड़ गए तो जीवन सार्थक हो गया। जब तुम blo रहे थे तब तुम उन लड़कों से चाहे तो तुड़वा सकते थे-  परम्परा से, लेकर भाग्य-विधाताओं के हाथ पाँव तक।


दिशा बताइए
पहला वाक्य: 
समारोह के मुख्य अतिथि नहीं आये थे।

जब एक समारोह के मुख्य अतिथि नहीं आये तो आख़िरकार लेखक को मुख्य अतिथि बनाया गया। आगे क्या हुआ यही इस लेख में दर्शाया गया है।

आयोजनों में मुख्य अतिथि बनने की होड़ भी लगी रही है। इस लेख के माध्यम से लेखक ने ऐसे ही आयोजकों  और ऐसे ही अतिथियों पर कटाक्ष किया है। लेखक कहते हैं:

माला पहनाना कुछ लोगों की तन्दुरस्ती के लिए जरूरी है। वे अगर महीने में एक बार किसी को माला न पहनाएं तो स्वास्थ्य खराब होने लगता है। हर समाज में माला पहनाने वाले जरूरी हैं। अगर ये न हों तो माला पहनने वालों की गर्दने पिचक जाएँ।

ऐसे आयोजनों में होने वाले भाषण वक्त की बर्बादी ही होते हैं और अक्सर यह भाषण देने वाले की आत्ममुग्धता ही दर्शाते हैं। भले ही ऐसे भाषणों में वह बड़ी बड़ी बातें करें लेकिन सबको पता होता है कि उसका ऐसी बातों में अमल करने का कोई इरादा नहीं होता है।  इस और लेखक ध्यान दिलाना चाहते हैं।

लेख के कुछ अंश:
वादा करके जो मुख्य अतिथि ऐन मौके पर न आए वह आम आ जाने वाले मुख्य अतिथि से बड़ा होता है, जैसे वह कवि बड़ा होता है जो पेशगी खा जाए और कवि सम्मेलन में न जाए।

मुख्य अतिथि की एक बनावट होती है। गांधीजी ने खाड़ी की धोती-कुरता पहनाकर और नेहरु ने जाकिट पहनाकर कई पीढ़ियों के लिए मुख्य-अतिथि की बनावट तय कर दी थी। आज़ादी के पहले ये सब दुबले होते थे, इसलिए मुख्य अतिथि नहीं होते थे। आज़ादी के बाद ये मोटे हो गए, कुछ की तोंद निकल आई और आदर्श मुख्य अतिथि बन गये।

फूल की मार बुरी होती है। शेर को अगर किसी तरह एक फूलमाला पहना दो तो गोली चलाने की जरूरत नहीं है। वह फौरन हाथ जोड़कर कहेगा - मेरे योग्य कोई और सेवा!

दिशा आज सिर्फ अँधा बता सकता है। अँधे दिशा बता रहे हैं। अँधा दिशा भेद नहीं कर सकता, इसलिए सही दिशा दिखा सकता है।

चुनाव के ये अनंत आशावान 
पहला वाक्य:
चुनाव के नतीजे घोषित हो गये। 

चुनाव के नतीजे घोषित हो गये थे और लेखक के लिए परेशानी का सबब बन चुके थे।
ऐसा नहीं है कि लेखक ने चुनाव लड़ा था और वो हार गये थे। बल्कि वह इसलिए परेशान थे क्योंकि वह अब उन्हें मातमपुर्सी करनी थी और यह कार्य उनके लिए कठिन था।
लेखक को किस बात का मातम करना था? 
यह कार्य क्यों उनके लिए कठिन था?

कई लोगों को चुनाव लड़ने का शौक होता है। वह चुनाव लड़ते हैं और हार जाते हैं। यह बात उन्हें भी पता होती है कि वह चुनाव हार जायेंगे लेकिन इस बात का भान होने पर भी वह हर साल बड़े जोश खरोश से चुनाव लड़ते हैं। ऐसे ही लोगों के ऊपर लेखक ने यह लेख लिखा है। हर शहर में ऐसे लोग होते हैं। ऐसे लोगों के जानकारों को किन चीजों से गुजरना होता है वह ही इसमें दर्शाया है।

लेखक कहते हैं: 
चिट्ठी में मातमपुर्सी करना आसन है। मैं हँसते-हँसते भी दुःख प्रकट कर सकता हूँ। पर प्रत्यक्ष मातमपुर्सी कठिन काम है। मुझे उनकी हार पर हँसी आ रही है, पर जब वे सामने पड़ जाएँ तो मुझे चेहरा ऐसा बना लेना चाहिए जैसे उनकी हार नहीं हुई, मेरे पिता की सुबह ही मृत्यु ही हुई है।

वहीं लेखक मातमपुर्सी की बात करते करते ऐसे लोगों पर भी व्यंग्य करना नहीं चूकते हैं जो कि मातमपुर्सी के एक्सपर्ट होते हैं। ऐसे लोगों को लेखक ने एक लेख शवयात्रा का तौलिया भी लिखा हुआ है।

लेखक कहते हैं:
मगर देखता हूँ, कुछ लोग मातममुखी होते हैं। लगता है, भगवान ने इन्हें मातमपुर्सी की ड्यूटी करने के लिए ही संसार में भेजा है। किसी की मौत की खबर सुनते ही वे खुश हो जाते हैं। दुःख का मेक-अप करके फौरन उस परिवार में पहुँच जाते हैं। 

इसी लेख में आगे वह चुनाव में हारने वाले ऐसे लोगों से मिलने और उनकी अलग अलग प्रतिक्रियाओं का भी जिक्र करते हैं जो कि रोचक होती हैं और हास्य पैदा करती हैं। एक रोचक लेख।

लेख के कुछ अंश:
जनतंत्र झूठा है या सच्चा - यह इस बात से तय होता है कि इस हारे या जीते? व्यक्तियों का ही नहीं, पार्टियों का भी यही सोचना है कि जनतंत्र उनकी हार-जीत पर निर्भर है। जो भी पार्टी हारती है, चिल्लाती है - अब जनतंत्र खतरे में पड़ गया। अगर वह जीत जाती तो जनतंत्र सुरक्षित था। 

साधना का फौजदारी अंत
पहला वाक्य:
पहले वह ठीक था।

लेखक का जानकार बिहारीलाल जब लेखक के पास आया तो उसने यह फैसला कर लिया था कि वह अपना आगे का जीवन जीवन के सत्य की खोज में बिताएगा। वह पहले एक आम अपर डिविजनल क्लर्क हुआ करता था लेकिन अब जींवन के सत्य की खोज करने वाला पथिक बन गया था।
क्या जानकार को जीवन के  सत्य का पता चल पाया? 
आखिर वह किस तरह से जीवन के सत्य की खोज करना चाहता था?

'साधना का फौजदारी अंत' में लेखक हरिशंकर परसाई ने न केवल उन बाबाओं के ऊपर कटाक्ष किया है जिनकी कथनी करनी में फर्क होता है बल्कि साथ साथ वो ऐसे लोगों पर भी कटाक्ष कर रहे हैं जो कि सब जानते बूझते भी इन्हें नहीं पहचान पाते हैं और ठगे जाते हैं। अगर आप ऐसे लोगों को समझाने की कोशिश भी करो तो वह आपकी बात नहीं मानते हैं और ठगे जाने के लिए आतुर रहते हैं।

लेख के इस अंश पर गौर करिए:
मैंने उससे कहा - तुम यूनियन में हो?
उसने कहा - नहीं, गुरुदेव का आदेश है, कि भौतिक लाभ के इन संघर्षों में साधक को नहीं पड़ना चाहिए।
मैंने कहा - तो फिर गुरु का सत्य अलग है और तुम्हारा सत्य अलग है। दोनों के सत्य एक नहीं है। गुरु का सत्य वह है जिससे बंगला, कार और रुपया जैसी भौतिक प्राप्ति होती है। और तुम्हारे लिए वे कहते हैं कि भौतिक लाभ के संघर्ष में पत पड़ो। यह तुम्हारा सत्य है? इनमें से कौन सा सत्य अच्छा है? तुम्हारा और गुरु का?
वह मुश्किल में पड़ गया। जवाब उसे सूझा नहीं तो चिढ़ गया। कहने लगा - आप अश्रद्धालु हैं। ऊटपटांग बातें करते हैं। मैं आपके पास नहीं आऊँगा।

हाँ, ऐसा नहीं है कि ऐसे लोगों की आँखें नहीं खुलती है लेकिन जब खुलती है तो वह अपना काफी नुकसान करवा देते हैं। आज भी बिहारीलाल जैसे कई लोग ठग जाने को तैयार हैं और कई गुरु उन्हें ठगने को तैयार बैठे हैं। इधर मैं धार्मिक गुरुओं की ही बात नहीं कर रहा बल्कि जीवन में आने वाले हर तरह की गुरुओं की बात कर रहा हूँ। अक्सर हम लोग कई लोगों पर उनके ज्ञान के चलते जरूरत से ज्यादा विश्वास कर देते हैं। उनके बताये रास्ते पर बिना सोचे समझे चलने लगते हैं जबकि यह बात सही नहीं है।

अंधश्रद्धा हमेशा नुकसान ही करती  है फिर वह किसी के प्रति हो। जो असल गुरु होता है वह कभी भी सोचने समझने और सवाल करने से मना नहीं करता है बल्कि इस प्रवृत्ति को बढ़ाता ही है। विचारणीय लेख विशेषकर उनके लिए जो शायद आज भी ऐसे गुरुओं के चंगुल में फँसे हुए हैं।

लेख के कुछ अंश:
सत्य की खोज करने वालों से मैं छड़कता हूँ। वे अक्सर सत्य की ही तरफ पीठ करके उसे खोजते रहते हैं।

अपनी अपनी बीमारी के उपरोक्त दस लेखों में हरिशंकर परसाई ने भारतीय समाज से जुड़ी लगभग सभी व्यवस्थाओं पर प्रहार किया है। उन्होंने विवाह संस्था, राजनीति,साहित्यार, पुलिस, राजनीतिज्ञ, सरकारी कर्मचारी पर अपने व्यंग्य बाण चलाए हैं। आज भी यह लेख उतने ही प्रासंगिक है जितने के उस वक्त थे। यह बात हमारे बारे में काफी कुछ कह जाती है।

अगर आपने नहीं पढ़ा है तो पढ़िए। यह काफी कुछ हमें सोचने के लिए दे जाते हैं।

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© विकास नैनवाल 'अंजान'

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