नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

लालटेन बाज़ार - अनामिका

उपन्यास मार्च 20,2019 से अप्रैल 7,2019 के बीच पढ़ा गया

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक
पृष्ठ संख्या: 112
प्रकाशक: राजपाल एंड संस
आईएसबीएन:9789386534743


 लालटेन बाज़ार - अनामिका
लालटेन बाज़ार - अनामिका 
पहला वाक्य:
यह एक टूटा सा बायोस्कोप है- कथा नहीं, उपन्यास नहीं।


कृष्णकांत जब वापस मुजफ्फरपुर लौटे तो लालटेन बाज़ार भी आना हुआ।  ७७ की इमरजेंसी के वक्त उन्होंने  अपना समय इधर काटा था। रुनू की माँ का घर उसकी शरणास्थली बनी थी। इस बाज़ार की औरतें गायिकायें थी जिनको सभ्य समाज में वैसे तो इज्जत नहीं मिलती थी लेकिन सभ्य समाज के कई लोग रात अँधेरे इनकी दहलीज में आना जरूर पसंद करते थे। ऐसे ही घर था रुनू की माँ का। वह एक गायिका जरूर थीं लेकिन उन्होंने अपनी बेटी को इस पेशे में नहीं डाला था।

अब रुनु की माँ तो नही रही लेकिन रुनु थी और थी उसकी बेटी मीरा। रुनू एक शिक्षिका थी। कृष्णकांत को यह देखकर बहुत अच्छा लगा था।

अबका कृष्णकान्त भी पहले वाला कृष्णकान्त नहीं रहा था। उसका भी एक परिवार था। लालटेन बाज़ार में लौट आना गुजरे वक्त में लौट आने के सामान जरूर था लेकिन इधर भी काफी कुछ बदल गया था। बस नही बदली थी तो लोगों की इस जगह और इस जगह के बाशिदों को लेकर सोच।  और यही डर रूनू को था कि कहीं इस सोच का भुगतान मीरा को न करना पड़े।

कृष्णकान्त वापस क्यों आया था?
रुनू का डर कितना वाजिब था?
मीरा को लेकर वो क्यों घबराई हुई थी?
कृष्णकान्त पहली दफा इधर क्यों आया था और उसके साथ इधर क्या घटित हुआ था?
मुख्य किरदार : 
अफ़ज़ल - लालटेन बाज़ार के नजदीक कॉलेज के लड़कों के लिए बने एक हॉस्टल के  मेस इंचार्ज
कृष्णकांत - अफ़ज़ल के दोस्त जो  बहुत दिनों बाद वापस इधर आये थे
रुनू - लालटेन बाज़ार की प्रसिद्ध गायिका की बेटी
कनक - कान्त की एक प्रेमिका
सिद्धेश लाल - आन्दोलन से जुड़े एक व्यक्ति जो कान्त को देखने रुनू के घर आने लगे थे
आलोक मुखोपाध्याय - अफ़ज़ल के मेस में मौजूद एक लड़का
उमा - कान्त की पत्नी
सलोनी - कांत की बेटी
मीरा - रूनू की बेटी
दीपक जयवंत - उमा के भाई जो आन्दोलन के कारण भागलपुर जेल में कृष्ण कान्त के साथ बंद थे
एस पी गिरिजा सक्सेना - पुलिस एस पी जिसने कृष्णकांत को पकड़ा था
फणीन्द्र मोहन पाण्डेय - इमरजेंसी के बाद एक नेता जिसका प्रचार कान्त कर रहे थे
डॉ  रमेश - फणीन्द्र बाबू के प्रतिस्पर्धी
त्रिपाठी जी - कान्त की नौकरी इन्होने ही लगाई थी
मालती - त्रिपाठी जी की पत्नी और कांत की बचपन की दोस्त
श्यामल सरकार - आलोक के पिता
टुन्नन - लालटेन बाज़ार में मौजूद एक लड़का जो मीरा का दोस्त था
रुकमणी देवी - श्यामल सरकार की बहन
रामचरण कश्यप - श्यामल सरकार का असिस्टेंट
सुभाष 'व्यथित'- रामचरण कश्यप का पुत्र

लालटेन बाज़ार अनामिका जी का पहला उपन्यास है जो कि अब 2019 में  पुनः नये नाम से प्रकाशित हुआ है। 1983 में छपा यह उपन्यास पहले 'पर कौन सुनेगा' शीर्षक से प्रकाशित हुआ था।

व्यक्तिगत तौर पर मैं तो यही कहूँगा कि इसका पहला शीर्षक ही इस पर फिट बैठता था। लालटेन बाज़ार सुनकर लगता कि उपन्यास के केंद्र में यही बाज़ार है लेकिन ऐसा नहीं है। मीरा, जो कि उपन्यास का एक महत्वपूर्ण चरित्र है, का जीवन इस बाज़ार से जुड़ा है परन्तु हम उसी के सम्बन्ध में इस बाज़ार को देखते हैं। उपन्यास का ज्यादातर हिस्सा कृष्णकान्त और उसके जीवन के चारो ओर घूमता है। मीरा को भी हम कृष्णकांत के जरिये ही जान पाते हैं। कृष्णकांत के कारण ही बाकी किरदारों से भी मिलते हैं। उन किरदारों के अपने दुःख, अपने संघर्ष, अपनी व्यथाएं हैं जिन्हें सुनने वाला कोई नहीं है। अपनी सलीब हैं जिन्हें उन्हें ढोना है तो पहले वाला शीर्षक कथानक के लिए मेरे अनुसार बेहतर है।

उपन्यास कृष्णकांत के वापस मुजफ्फरपुर आने से शुरू होता है। वे अपने दोस्त अफ़ज़ल, जो एक मेस के इंचार्ज हैं, से मिलते हैं। अफ़ज़ल के साथ वो रूनू से मिलते हैं। रूनू की अब उन्नीस साल की बेटी है जिसका नाम मीरा है। रूनू से कांत का रिश्ता पुराना है। उसके घर उन्होंने 19 वर्षों पहले इमरजेंसी के वक्त काफी समय बिताया था।  वो किस तरह रूनू के घर आये थे, उधर क्या हुआ और फिर कांत  के जीवन ने अब तक क्या मोड़ लिया यह हम जैसे जैसे उपन्यास पढ़ते जाते हैं जानते जाते हैं। इसके अलावा कान्त,अफ़ज़ल, रुनू,मीरा  के जीवन में अब क्या घटित हो रहा है यह भी जानते हैं।

कांत का काफी जीवन हम बेकफ़्लैश में देखते हैं। इसमें इमरजेंसी का वक्त भी दिखता है। कांत उसमें सरकार की मुकालफत करते दिखतें है तो हमे उनके जीवन के पहलुओं से यह भी देखने को मिलता है कि ऐसे आंदोलनों का क्या अंजाम होता है। किस तरह आन्दोलन आदर्शों के साथ शुरू तो होते हैं लेकिन इन से छन कर जैसे नेता आते हैं वो किस तरह इसे स्वार्थ साधने की वस्तु बना देते हैं यह हमे देखने को मिलता है। यह 1977 के इमरजेंसी के दौरान का संघर्ष दिखलाता है।  वो तो मेरा देखा हुआ नही है लेकिन कुछ वर्षों पहले हुआ जन लोकपाल के लिए जो आन्दोलन हुआ और उससे छनकर जो नेता आये उनकी नीतियाँ और उनके द्वारा किये गये कृत्यों को देखकर मुझे कृष्णकान्त ने जो भोगा वह समझने में काफी आसानी ही हुई थी।

इसी से जुड़ा एक प्रसंग फणीश्वर बाबू और डॉक्टर राजेश का  है। कृष्णकांत जानते हैं कि बेहतर उम्मीदवार वो है जो उनकी पार्टी के विपक्ष में लड़ रहा है लेकिन चूँकि पार्टी लाइन पर चलना है तो इसलिए उन्हें उस व्यक्ति के लिए काम करना पड़ता है जो कि उन्हें व्यक्तिगत रूप से ठीक नहीं लगता। आज की राजनिति में भी यह आराम से देखने को मिल जाती है। इलेक्शन चल रहे हैं लोग एक पार्टी के प्रति प्रतिबद्ध है। हाँ, उनके सबसे ऊपर के लीडर विपक्ष से भले ही मजबूत हों, बेहतर भी हों लेकिन उनके चक्कर में ऐसे स्थानीय लोगों को लोग चुन रहे हैं जिन्हें उन्हें कायदे से नहीं चुनना चाहिए। इधर बस फर्क ये है कि कृष्णकान्त तो कार्यकर्ता होने के कारण पार्टी का निर्णय मानने के लिए विवश थे लेकिन जनता इसके लिए विवश नहीं है। पर  जब आप पार्टी को देखने लगते हो तो यह करना ही पड़ता है।

उपन्यास में खाली राजनीति ही नहीं है। उपन्यास में कई अधूरे प्रेम प्रसंग हैं।  ऐसे प्रेम जो पूरे नहीं हो पाए। पाठको को कृष्णकान्त के ऐसे अधूरे प्रेम प्रसंगों के विषय में पता चलता है। फिर एक प्रेम अफ़ज़ल का है, एक प्रेम टुन्नन का है और आखिर में एक प्रेम मीरा का भी है।

इन सब में जिसने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित और भावुक किया वो अफ़ज़ल और टुन्नन का प्रेम था। उनका प्रेम शायद एक तरफा था जिसे वो आखिरकार तक निभाते रहे। जिनसे वो दोनों प्रेम करते थे वो लड़कियाँ या तो इससे अनजान रही या समझते बूझते भी अनजान होनेका नाटक कर रही थीं। कई बार पढ़ते हुए यह सोच रहा था कि उपन्यास में हमे ये नहीं बताया गया है कि जिन लड़कियों से वो  प्रेम करते थे उन का इस विषय में क्या विचार था। उन्हें पता नहीं रहा होगा यह तो मुमकिन नहीं है। मैं एक बार लड़की के मन की बात भी जानना चाहता था।

पारिवारिक रिश्ते किस हिसाब से भारतीय समाज में तय होते हैं यह भी इधर देखने को मिलता है।  यह उपन्यास तो 1983 में लिखा गया था। अभी भी भारतीय समाज में विवाह के रिश्ते ज्यादातर व्यापार ही होते हैं। इज्जत के दकियानूसी ख्याल ही होते हैं जो कि मायने रखते हैं। जात,पात, धर्म,पेशा इत्यादि ही मायने रखते हैं तो मीरा के साथ जो होता है वो पढ़कर अचरच नहीं होता है। कई बार प्रेमी भी इसके दबाव में आ जाते हैं जो कि इस उपन्यास में देखने को मिलता है।

मीरा की जिस हिसाब से शादी होती है वह मुझे अजीब लगा। मुझे अचरज बस इसलिए हुआ था कि मीरा भी शादी के लिए राजी हो जाती है। इतनी शर्तों और ऐसे मजबूरी में हुई शादी का सफल होना नामुमकिन ही था। रूनू भी इसके लिए राजी होती है लेकिन उसके मन की बात मैं समझ सकता था। उसने काफी कुछ भोगा था। वो नही चाहती थी कि उसकी आगे की पीढ़ी इससे गुजरे।  उसने इस शादी में ही अपनी बेटी को बज़ार की लड़की होने के कलंक से बचाने का रस्ता देखा था।  बाद में जो हुआ वो अलग बात थी।

उपन्यास के अंत में मीरा जो निर्णय लेती है वही मेरे ख्याल से सही था। मुझे लगता है वह निर्णय उसे शादी से पहले ले देना चाहिए था लेकिन  देर आये दुरस्त आये। मीरा का जीवन इसके बाद क्या मोड़ लेगा यह मेरे लिए ज्यादा रोचक रहता। अब तो बस उसकी कल्पना ही कर सकता हूँ।

(ऊपर के दो अनुच्छेदों में लिखी बातें उपन्यास के बेककवर में भी पढ़ने को मिल जाती है तो मुझे नहीं लगता यह कोई स्पोइलर होगा।)

उपन्यास की भाषा सुन्दर है। कई जगह कथानक में ऐसे अंश पिरोये गये हैं जो कि आपको सोचने के लिए काफी सामग्री देते हैं। कई वाक्य एक बार पढकर मन नहीं भरता है, उन्हें बार बार पढने का मन करता है।  उपन्यास में एक प्रसंग हैं जिसमें एक स्वामी जी और एक व्यक्ति  की भगवान के ऊपर बहस होती है। वो काफी अच्छा बन पड़ा है। उपन्यास में  कई जगह भाषा कुछ ऐसी है जो कि आम पाठकों को कठिन लग सकती है। कुछ ऐसे शब्द इस्तेमाल हुए हैं जिनके अर्थ मुझे मालूम नहीं थे और उनके लिए मुझे शब्द कोष खोलना पड़ा था। मुझे ऐसे शब्दों से दिक्कत नहीं होती है बस अगर प्रकाशन ऐसे कठिन शब्दों के अर्थ फुटनोट में दे देते तो बेहतर रहता। इससे पढ़ते हुए रवानगी पर असर नहीं पड़ता है क्योंकि बार बार उठकर शब्दकोष देखने की जरूरत नहीं पड़ती हैं। अर्थ नीचे ही लिखा दिख जाता है।

उपन्यास मुझे पसंद आया।


उपन्यास के कुछ अंश जो मुझे पसंद आये:
सामने कुछ मकबरे खड़े दिखाई देते हैं- कहने को आप इन्हें घर भी कह सकते हैं। लोग रहते हैं वहाँ, सपने देखते हैं, हाथ-पाँव भाँजते हैं, पासे फेंकते हैं, जम्हाई लेते हैं और सो जाते हैं - पर घर से ज्यादा ये मकबरे ही हैं, क्योंकि हर आदमी के भीतर चार-पाँच प्रेत पल रहे हैं- कुछ दबकर घुट गयी इच्छाएँ, कुछ धुआँती स्मृतियाँ, कुछ योजनाएँ, कुछ षड़्यंत्र, कुछ और भी फुटकर दर्द, अभिशाप,त्रास,संताप, गलतफहमियाँ-खुशफहमियाँ... वगैरह-वगैरह।

अपने से टूट-छूट जाने की स्थिति शायद यही होती हो, जब आदमी एक रेस के एक घोड़े के सिवा कुछ नहीं रह जाये।

उसने हमेशा से महसूस किया था कि पाँव के नीचे की धरती जब दरकने लगे, तभी लोगों की आँखें आसमान की ओर उठती हैं, औसत आदमी हर तरफ से निराश होकर ही भगवान को पुकारता है- जैसे मूंगफलियाँ फाँक-फाँककर थक गया गरीब आदमी सफर के अंत में घर से यत्नपूर्वक लपेटकर लायी रोटी निकाले।

श्रद्धा का सागर एक कंकड़ का आघात भी झेलने को तैयार नहीं होता। मछलियाँ बड़े बड़े बुलबुले गुड़गुड़ाने लगती हैं- इसीलिए तो प्रेम की तरह भक्ति भी अंधी कही गई है, पर उसे बहरी भी होना चाहिए था।

जहाँ अक्सर ही भूकम्प के झटके आते हों, उस धरती की बाहरी सतह पेड़, मकान, मीनारें प्रायः अप्रभावित ही छूट जाती हैं।

झूठ की उम्र भले ही कम हो, हाथ-पाँव बड़े लम्बे होते हैं जिनसे वो वह दूर तक पासे फेंक सकता है। अफवाहें मेंढक होती है - एक जीभ से दूसरी जीभ पर फुदकती हुई आस-पास के हर साफ-गंदे नाले में एक बार गुडुप से डुबकी ले लेने वाली।....दरअसल हर आदमी के मन में जीवन में कुछ कर नहीं पाने का जो रिसता पछतावा होता है, परनिन्दा-वृत्ति उसका ही विषैला मवाद है- जिस पर भिनभिनाने में कुंठाएँ विशेष सुख पाती हुई पलती-पुसती हैं।

शुभ्रता का अपना अलग ही आतंक होता है और शायद वह अपने मन का अपराध बोध होता है जो ऐसी किसी भी शुभ्र मूर्ति के सामने कुलबुलाकर गले में पंख फटकने लगता है, जैसे मंदिर तक आते-आते कोई रो दे।


रेटिंग: 3.5/5

उपन्यास अगर आपने पढ़ा है तो आपको यह कैसा लगा? अपने विचारों से मुझे जरूर अवगत करवाईयेगा। अगर आप इस उपन्यास को पढ़ना चाहते हैं  तो आप इसे निम्न लिंक्स से मँगवा सकते हैं:
पेपरबैक 
किंडल

हिन्दी की दूसरी कृतियों के विषय में मेरी राय आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:

हिन्दी साहित्य


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