नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

पति पत्नी और वह - कमलेश्वर

रेटिंग : 3 /5
उपन्यास 20 अक्टूबर 2016 से 23 अक्टूबर 2016 के बीच पढ़ा गया

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट : हार्डकवर
पृष्ठ संख्या : 236
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
आईएसबीएन : 9788126711956

पहला वाक्य :
ऑफिस के हाल में लगे क्लॉक ने एक-एक कर पाँच घंटे बजाए तो रंजीत ने चौंकते हुए अपनी कलाई पर बँँधी घड़ी पर नज़र डाली। 

रंजीत के पास सब कुछ था। एक खूबसूरत बीवी शारदा, एक प्यारा सा बच्चा रिंकू , रहने के लिए घर और एक अच्छी नौकरी जिससे वो  अपनी और अपने परिवार की सारी जरूरतों को पूरा कर लेता था। लेकिन जब उसने निर्मला को देखा तो उसे लगने लगा कि उसकी अब तक की बेजार ज़िन्दगी में किसी ने ख़ुशी घोल दी हो। निर्मला आयी तो सेक्रेटरी बनकर थी लेकिन अब रंजीत की जरूरत बन गयी थी। रंजीत उसे पाने के लिए कुछ भी कर सकता था।
रंजीत ने निर्मला को तो पा लिया लेकिन अपने परिवार को क्या वो इन बातों से जुदा रख पाया?
शारदा को जब रंजीत के अफेयर के बारे में पता चला तो उसकी क्या प्रतिक्रिया रही?  क्या रंजीत का परिवार इस तूफ़ान को झेल पाया?


कमलेश्वर जी की यह पहली रचना है जिसे मैंने पढ़ा है। उनके काफी उपन्यासों की चर्चा मैंने सुनी है लेकिन पहले मैं उनके द्वारा लिखे गये कुछ हल्के फुल्के उपन्यास ही पढना चाहता था। कमलेश्वर जी उपन्यास की शुरुआत में ही ये बात साफ़ कर देते हैं कि ये उपन्यास एक सिने उपन्यास है यानी एक फिल्म के लिए लिखा गया है।वो लिखते हैं:

यह उपन्यास साहित्य के स्थायी या परिवर्तनशील रचना विधान और शास्त्र की परिधि में नहीं समाएगा क्योंकि यह सिने शास्त्र के अधीन लिखा गया है। यह फिल्म के तकनीकी रचना विधान की जरूरतों को पूरा करता है जिस पर फ़िल्मी पटकथा आश्रित रहती है।

यानी अगर सरल शब्दों में कहा जाए तो इस उपन्यास को इस तरीके से लिखा गया है कि इसमें मनोरंजक प्रसंग ज्यादा हों और साहित्यिक भारीपन कम हो। इसके इलावा इसकी समय रेखा भी फिल्म के अनुरूप हो।   यहाँ ये बता देना उचित ही होगा कि दो खंडों में विभाजित इस उपन्यास के ऊपर दो फिल्मे बन चुकी हैं। पहले खंड पति पत्नी और वह के ऊपर बी आर चोपड़ा ने पति,पत्नी और वो नामक फिल्म बनाई थी। दूसरा खंड रंग बिरंगी है जिसके ऊपर वो फिल्म बनाना चाहते थे लेकिन व्यस्त होने के कारण नहीं बना पाए तो ऋषिकेश मुखर्जी साहब ने इसके ऊपर रंग बिरंगी नाम से फिल्म बनाई थी। आप इन दोनों फिल्मो का आनंद निम्न लिंक्स पर जाकर ले सकते हैं:
पति पत्नी और वो
रंग बिरंगी

अगर उपन्यास की बात करूँ तो उपन्यास मुझे पसंद आया। उपन्यास पठनीय है । आप कहीं भी बोर नहीं होते हैं। हाँ इसमे नाटकीयता अधिक है लेकिन उसके विषय में कमलेश्वर जी ने पहले ही साफ़ कर दिया था।  उपन्यास दो भागों में विभाजित है पति पत्नी और वह और रंग बिरंगी ।

उपन्यास के पहले भाग रंजीत और शारदा का सुखमय जीवन को दर्शाता है।  रंजीत शारदा से कैसे मिला? उसे पाने के लिए उसने क्या क्या पापड़ बेले? और शादी के बाद उसका विवाहित जीवन कैसा था?
फिर रंजीत के जीवन में शादी के आठ साल बाद निर्मला नामक लड़की का आगमन होता है और रंजीत उसे पाने के लिए मचल उठता है। वो निर्मला को पाने के लिए कितने झूठ बोलता है और उसको पाने के बाद अपने परिवार से कितने झूठ बोलता है ये ही इस भाग में दिखता है। इस भाग के मुख्य किरदार रंजीत, शारदा (रंजीत की पत्नी), निर्मला(रंजीत की सेक्रेटरी), दुर्रानी(रंजीत का दोस्त) हैं।

रंजीत एक मर्द है जो पुरुषवादी सोच से ग्रसित है। वो समझता है चूँकि उसने अपनी बीवी और बच्चे को एक घर दिया है, आर्थिक वैभव दिया है तो अगर वो किसी दूसरी लड़की के साथ कुछ मौज मस्ती कर लेता है इसमें कुछ गलत नही है। वो इसे अपना अधिकार समझता है। रंजीत ऐसा सोचने में अकेला नहीं है। ये पुरुषवादी सोच अभी भी बहुत प्रचलित है। हाँ, हैरत वाली बात ये है कि रंजीत का शुरूआती चित्रण इससे बहुत जुदा था। वो एक ऐसे लड़के के तौर पे दिखाया गया था जिसने शारदा से मिलने से पहले किसी और लड़की को ऐसी नज़रों से देखा तक नहीं था। और फिर आठ सालों के बाद भी कई लडकियाँ उसकी सेक्रेटरी थी लेकिन उसने उनके तरफ ऐसी निगाह नहीं डाली थी। फिर आठ सालो में निर्मला पे उसका आकर्षित हो जाना थोडा खटकता जरूर है।

शारदा का किरदार मुझे पहले भाग में अचंभित करता है। उसे आम औरतों की तरह नहीं दिखाया गया है। आम औरतें जब अपने पति के अफेयर के बारे में जान जाती हैं तो अक्सर दूसरी औरत को ही दोषी ठहराती हैं। लेकिन शारदा की परिपक्वता इस बात से झलकती है कि वो जल्द बाजी में कोई कदम नहीं उठाती। और जो दोषी होता है उसी को सजा देने के पक्ष में होती है।

निर्मला एक ऐसी लड़की है जो गरीब परिवार से आती है। उसके अन्दर आत्मसम्मान है लेकिन अच्छा जीवन जीने की लालसा भी है। उसके अन्दर करुणा भी है। इसलिए जब उसका बॉस उससे झूठ कहकर हमदर्दी हासिल करना  चाहता है तो वो उसके झूठ को सच मानकर उसकी हमदर्द बन जाती है। फिर जब निर्मला को वो घुमाने फिराने लगता है और ऐसी जगहों में ले जाने लगता है जहाँ के केवल वो सपने  देखा करती थी तो इन बातों का भी लोभ उसके अन्दर आ जाता है। लेकिन फिर भी वो खुद्दार है और सही वक्त पर सही निर्णय लेती है।

सबसे अच्छा किरदार पहले भाग में मुझे दुर्रानी का लगा। वो एक कॉमेडियन की भूमिका निभाता है। वो रंजीत का दोस्त है और सहकर्मी भी है। वो उसे वक्त पड़ने पर सलाह भी देता है और जब उसका घर टूटने की कागार पर होता है तो उसके लिए झूठ भी बोलता है। वो एक अच्छा इंसान है और चाहता है उसका दोस्त सुधर जाये। उस वक्त की फिल्मों में एक किरदार हमेशा से ऐसा होता था जो ज्यादातर कॉमेडी  ही करता था। इसके इलावा अगर एक्शन फिल्म हो तो हीरो के लिए जान भी दे देता था। ये किरदार हीरो का दोस्त होता था और हर कोण से हीरो से कमतर ही होता था। दुर्रानी भी कई मामलों में रंजीत से कम ही है लेकिन फिर भी एक सशक्त किरदार है।

उपन्यास के दूसरे भाग में भी रंजीत,शारदा, दुर्रानी ही मुख्य किरदार हैं।

रंजीत अपने किरदार के अनुरूप ही है। जहाँ पहले आपको उससे थोड़ी सहानुभूति होती है वहीं इधर उसके कृत्य देखकर मुझे तो गुस्सा ही आया था। वो एक ऐसे शेर के सामान हो गया था जिसके मुँह में खून लग गया है। वो सुधर सकेगा इस बात के ऊपर मुझे तो विश्वास नहीं है।
जहाँ पहले भाग में रंजीत के दवारा लेखक ऐसी पुरुषवादी सोच को दिखता है जिसमे वो बहार मौज मस्ती करना अपना हक समझता है तो वहीं दुसरे भाग में ये दर्शाता है कि कैसे वही पुरुष अपनी बीवी को अपनी मिलकियत समझता है। अगर वो बाहर कुछ करे तो ये उसका हक है लेकिन अगर उसकी बीवी ऐसा कुछ करे तो इससे उसके अहम को ठेस पहुँचती है और वो मरने मारने पे उतर जाता है। इस भाग में मुझे शारदा का किरदार थोडा कमजोर लगा। वो ऐसी पत्नी के रूप में दिखती है जो किसी भी हाल में अपने घर को बचाना चाहती है। उसे पता है उसका पति गलत है लेकिन फिर भी वो उससे अलग नहीं होती बल्कि उसे सबक सिखाकर उसे सही रास्ते में लाने की कोशिश करती है। वो भी तब जब एक बार गलती करने के बाद उसके पति के अन्दर पछतावा तो दूर की बात है वो दोबारा, तिबारा वही काम करता है। ऐसे में सबक सीख कर भी वो सुधर जाएगा कहना मुश्किल है। वही किसी को सबक सिखाने के लिये अपने चरित्र के अनुसार काम न  करके शारदा को ग्लानी ही होगी जबकि रंजीत को वही काम करके ग्लानि नहीं होती है। ऐसे में इस नाटक के समापन के बाद शारदा और रंजीत की ज़िन्दगी कैसी रही ये सोचने वाली बात है।
यहीं  कहानी फ़िल्मी हो जाती है। अंत में सब भला दिखा दिया जाता है।

अंत में केवल इतना कहूँगा कि उपन्यास पठनीय है और कथानक रोचक है। ये एक हल्का फुल्का उपन्यास है जिसका मकसद मनोरंजन करना है। और इस मामले में खरा उतरता है। मुझे तो ये उपन्यास काफी पसंद आया और इसे एक बार पढ़ा जा सकता है।

अगर आपने इसे पढ़ा है तो अपनी राय जरूर दीजियेगा।
अगर आपने इस उपन्यास को नहीं पढ़ा है तो आप इस  उपन्यास को निम्न लिंक से मंगवा सकते हैं :
अमेज़न
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