नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

नेताजी कहिन - मनोहर श्याम जोशी

रेटिंग : 4/5
किताब  के बीच पढ़ी गई मई ८ ,२०१६ से जून २,२०१६ के बीच पढ़ी गई 

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट : हार्डबैक
पृष्ठ संख्या : 158
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन


नेताजी कहिन मनोहर श्याम जोशी जी का व्यंग संग्रह है। इसमें उनके उन लेखों को संकलित किया गया है जो कि साप्ताहिक हिन्दुस्तान में अनिमियत रूप से 'नेताजी कहिन' नामक स्तम्भ में प्रकाशित हुये थे। इसमें उनके निम्न लेख हैं:
  1. नेताजी का निर्धारित लक्ष्य : एक करोड़ रुपया
  2. टाप नेता के कुण्डलियो टाप सीक्रेट होवत हय ससुर
  3. सारा सवाल सही सइटिंग का हय
  4. सकल पदारथ या जग माँही
  5. डफ-नेटली मोर गुड मेन
  6. देस का ये होगा जनाबेआली 
  7. देस की हर कुर्सी चूँ-चूँ चरमर हय
  8. जीत मामा जीत
  9. अटमासफीअर फ्रण्डली राखे का चाही
  10. ऐ मे ले ओ मे ले ओ हू मे ले
  11. किर्रू लयवल हय हिन्दी साहित्त
  12. रहिमन सिट सायलेण्टली
  13. हार्ट पुटिंग कौसलपुर किंगा
  14. जब इण्टरटेन्मेण्ट हइयै नाही बा तब टिकसुआ काहे का
  15. चोर चतुर बटमार नट प्रभुप्रिय भँडुआ भण्ड
  16. सवन हवसिन नाइट-डे मोसन
  17. अरे बुलबुलों को हसरत है उल्लू न हुए
  18. गेंदवा गोड़वा पर ल्य, जीयत रहा बचवा
  19. ब्रेनिज बिगर  दयन बफलो योर अक्सलण्टीज
  20. जुग-जुग चालत चाम को
  21. आज हमारे इयार की सादी हय
  22. लास-गेन, डाइन-लिविन, फेम-ब्लेम हिज हैण्ड
  23. 99.99 परसण्ट ई डबल निनानबे का फेर बा
  24. अरे बनाहिने से तो बनिहै बायो-ग्राफी 


नेताजी कहिन के नायक नेताजी हैं। और संग्रह के लेख को उनके चाचा जो कि एडिटर हैं सुना रहे हैं।नेताजी के केवल दो लक्ष्य हैं: एक तो छुटभैया नेता से बड़ भैया नेता बनना और दूसरा नेतागिरी से एक करोड़ की संपत्ति इकठ्ठा करना। पुस्तक में संग्रह लेखों में वो अपने इन्ही दो लक्ष्यों की तरफ अग्रसर रहते हैं। इसके लिए जो जोड़ तोड़ उन्हें करनी होती है उसे आप इन लेखों को पढ़कर जान पायेंगे। लेख इंदिरा गांधी के वक्त में लिखे गये थे तो उस समय की राजनीति के कई रिफरेन्स इसमें मिलेंगे। लेकिन इनमे से ज्यादातर बातें आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितना उस वक्त थी।
लेख रोचक हैं जिन्हें पढ़ने में आनन्द आता है और इसी के साथ राजनीति के अंदर की दुनिया का ये बहुत सटीक खाका भी खींचते हैं।
मुझे पुस्तक बहुत ज्यादा पसन्द आई। मैं इसे पूरे पांच स्टार देता लेकिन लेख अचानक से ही खत्म हो जाते हैं और हमे पता नहीं चलता कि नेताजी अपने दर्शन के बल पर अपने निर्धारित लक्ष्य प्राप्त कर पाये या नहीं। मुझे लगता है ये ऐसा व्यंग संग्रह है जिसे हर हिंदी भाषी को पढना चाहिए। पुस्तक के ऊपर कक्काजी कहिन नाम का धारवाहिक भी बना था जो कि  अस्सी के दशक में दूरदर्शन पर  प्रसारित होता था। 

 पुस्तक के कुछ अंश:

इस पुन्न भूम भारत में कबीर के बाद कोई बुरा आदमी पइदा हुआ हो तो हमें बता देंगे, प्लीज ! '- नेताजी ने हमें टोका - 'अंतम व्यक्त वाहियै था जिसने पब्लकलि डक्लेयर किया कि मुझसा बुरा न कोय।

सकल पदारथ या जग मांही, बाकी ऐसा है कि बिना हेर-फेर कुछ पावत नाही

“मंदिर का देवता भी बोर होता है?"
"असली देउता होगा तो जरूरे बोर होगा। इतनी लम्बी लाइन लगती हय भगतों की, कामकाज का मार टेंसन। एइसे में कोई दिले-नादान टाइप भगत आये अउर जब उससे पूछा जाये, भय्या, क्या चाहिता हय तू अउर दान दच्छिना क्या लाया हय, तब वह कहे, जी मैं तो यवै मिलने चला आया था, लाया भी यह चउन्नी अउर चार बतासा हूँ। अब बताइये इस मसखरी पर देउता भिन्नायेगा कि नहीं? यहाँ ससुरी एक से एक नेसनल - इंटरनेसनल अउर क्या नाम कहते हैं फाइनेंसियल प्रॉब्लम करने में हम बिजी हैं अउर आप चले आये हाउ-डू-डू कहिने। हम देउता हैं या आपकी मासूका!”

अरे करम तो करबे करता है राजनेता। काउन करम छूटा है ससुरे से।" नेताजी हँसे, "बाकी यह कि फल की कोनो चिन्ता मत करो तो ऊ असली पोलटिक्सवाली बात नहीं।राजनेता कर्मठ होता है समझे आप? हर काम टिंच, हर मामला फिट,हर मोर्चा चउकस रखना हँसी ठट्टा थोड़ो है। महीनत-मसक्कत करे बेचारा अउर आप कहें फल यानी मजूरी की चिंता मत का, यवै पिले रह, यह कोई बात हुई! असली पॉलिटिक्स का फलसफा तो यह है कि सतत फल की चिंता कर और इस सिलसिले में किसी करम से परहेज मत कर !"

अगर बस नहीं है तो चुनाव के समय क्यों एक दूसरे पर दोष देते हैं और ऐसा आश्वासन देते हैं कि हम ठीक कर देंगे?" हमारी पत्नी ने पूछा।
"इसी का नाम राजनीति है कि हर अच्छी चीज के लिये कहो हमारी वजह से हो रही हय और हर बुरी चीज के लिये कहो यह हमारे बस की नहीं हय, या हमारे सत्ता में न होने की वजह से हो रही हय।" नेताजी बोले।

सोफे पे लंबे लेटकर उन्होंने कहा,"दुःख पीड़ा, समझे कक्का,यह सब चक्कर इतना ज्यादा है मानौ जीवन में कि उपायै यह हय कि देखा,अनदेखा,अउर सुना, अनसुना कर दिया जाये। संसार का दुःख देखकर राज पाट छोड़ने की राजनीत करनी हो तो बात दूसरी है- बुध्द बन जाइयेगा या बुद्धू। चांसिज बुद्धू बनने के ही हैं।

भागवान की दया से तगड़ी आसामी, जिसे कहिते हैं पा-रटी, खुद चली आती हय हमारे पास।फ़िल्म-छेत्र से भी आई रही एक ठो। अपने मुन्नन बाबू के साले हय ना माधो, इम्पोट-अक्सपोटवाले उनके पास बिलैक एण्ड वाइट जियादा ही हो गया बिंधबासिनी की किरपा से। बिलैक एंड वाइट से कोई रंगीन चीज बन सकती हय तो हिन्दी फिलिम। सो उन्होंने बना डाली एक ठो-"पउनसूत हनुमान की जय।"

आदर्स ससुर ब्यौहारिक होते तो आदर्स अउर जथार्थ दुई सब्दों का अस्कोप रहिता भासा में?"नेताजी हुचहुचाये,"मगर वह एइसा हय कि आदर्स की चरचा जरूरी हय। अडवटाइज़ का जुग हय जइसा प्रचारत कीजियेगा वइसा अटमास्टफीयर बनबे करेगा।

"वइसे यह भी समझ लिया जाय कक्का कि अगर भगवान की दया से हमारे गुरूजी गदहे हैं तो उसी भगवान की दया से जमाना डार्क डंकी का हय।" "डार्क हॉर्स।" हमने भूल सुधार करना चाहा। "अरे ऊ सब आपका ज़माने में होता था। आउटाफ डेट आयडाज हैं आपके सारे। अब डार्क डंकिहि होता हय अउर गुरु जी हमारे साच्छात डार्क डंकी कुल सिरोमन हैं। नहीं, आपसे सही बताते हैं कोई अजब नहीं कि कभी सी यम बनकर उ-नहिको भेज दिया जाय।"

"तुम्हारा रस-सिद्धांत हमारी समझ में तो आता नहीं। संघठन सचिव का काम नीरस क्यों है भला?" "रस सिद्धांत समझा जाय," नेताजी ने चैतन्यचूर्ण को मुँह में घुमाते हुए कहा,"राजनीत में रस वहीं है जहाँ निचोड़ने का पावर मिला हुआ हो।"

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