नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

हफ्ते में पढ़ी गयी कहानियाँ ( २० अप्रैल - २६ अप्रैल)


इस बार व्यस्तता के चलते पिछले हफ्ते पढ़ी कहानियों को पोस्ट न कर सका। आज मौका मिला तो कर रहा हूँ। काफी अच्छी कहानियाँ पढ़ने को मिली और इन्होने मेरे सोचने के नज़रिए में थोडा बदलाव भी किये। आप भी हो सके तो पढियेगा ज़रूर।

१) किसी और का दुःख - जितेन्द्र रघुवंशी ३/५
स्रोत : कथादेश, अप्रैल २०१५

पहला वाक्य :
मैं जन्मदिन की दावत से लौटा हूँ - आखिर एक बज ही गया। 

सुबु और शमीम दम्पति हैं और रूस के लेनिन ग्राद विश्वविद्यालय के छात्रावास में रहते हैं।  जब सुबु  जन्मदिन कि पार्टी से लौटा तो उसे शमीम थोड़ा भावुक दिखी। कभी कभी वो उसे कुछ ज्यादा ही भावुक लगती थी। शमीम कभी कभी उपन्यासों के पात्रों के विषय में भी इतनी ही भावुक हो जाया करती थी और कई दिन तक उन्ही के विषय में सोचती रहती। अर्थशास्त्र के विद्यार्थी सुबु को ये बात अजीब लगती लेकिन आज बात कुछ और थी। पूछने पर सुबु को पता चलता है कि शाम को उसके घर अनातोली अलेक्सान्द्रोविच आये थे। ये दोनों के परिचित थे और  ६० साल के सज्जन थे।  अनातोली से कभी सुबु और शमीम कि घनिष्ट मित्रता हुई लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ कि इस मित्रता में थोड़ी दूरियाँ आ गयी थी।  क्यों आये थे अनातोली और ऐसा क्या हुआ उनके साथ? ये जानने के बाद  सुबु कि क्या प्रतिक्रिया रही।
कहानी शुरू होती है तो आप शमीम और सुबू के अलग अलग व्यक्तित्व को देखकर  लगता है कि कैसे ये दोनों करीब आये। फिर पाठक कि पहचान अनातोली से होती है और वो उनके अकेलेपन से भी रूबरू होता है। कैसे  इस अकेलेपन से वो जूझते हैं इसका विवरण बहुत मार्मिक है। फिर उनके साथ एक घटना होती है जिससे सुबू को उनके प्रति सहानभूति होनी चाहिए थी लेकिन इसके विपरीत वो एक चिढ़ का अनुभव करता है।  वो ऐसा क्यों करता है इसका कारण जानने  के लिए पाठक कहानी को पढता रहता है। अक्सर हम जब ग्लानि का अनुभव करते हैं तो अक्सर अपना गुस्सा उन लोगों पे निकालते हैं जो हमे उसे बात कि याद दिलाते हैं जिससे हमे ग्लानि महसूस होती है। एक अच्छी कहानी जो आपको पढनी चाहिए।






२)लाख टाकार झूली - सविता पांडे ५/५
स्रोत : कथादेश, अप्रैल २०१५

पहला वाक्य:
पूरे कमरा तो नहीं, एक कोने को बना लिया था मैंने 'अपना कोना'- माँ हँसकर कह देती 'बैठी होगी अपने कोने में'।

सविता पांडे जी कि लघुकथा लाख टाकार झूली एक मर्मस्पर्शी कहानी है। लड़कियाँ अपना सारा बचपन एक घर में बिताती हैं। वे उधर बढ़ी होती है और उनकी कई यादें उस घर के हिस्सों से जुडी होती है। लेकिन फिर शादी होती है और अचानक उनका उस घर से अस्तित्व ही गायब हो जाता है। जहाँ उनका हिस्सा हुआ करता था उधर अब कोई और बस जाता है। सचमुच बहुत पीड़ादायक होता होगा ये बदलाव उनके लिए। इस लघुकथा ने मुझे एक ऐसी बात सोचने पर मजबूर किया जो कभी मेरे मन में आई भी नहीं थी। लेकिन अब जब इसे पढ़ चुका हूँ तो ये विश्वास है कि मेरे बहन कि 'लाख टाकार कि झूली' को कभी खोने नहीं दूँगा। उसका कोना हमेशा उसका ही रहेगा। एक बेहतरीन लघु कथा  जो कम शब्दों में बहुत बढ़ी बात कह देती है। आपको इस लघु कथा को ज़रूर पढ़ना चाहिए।

३)नुचे पंखों वाली तितली - जितेन ठाकुर २.५/५
स्रोत : ज्ञानोदय,अप्रैल २०१५

पहला वाक्य :
अद्भुत दृश्य था।

जितिन अक्सर एक आध महीनों के लिए हिमालय के तलहटी में बसे एक होटल में चले जाया करते थे। वहाँ उनकी मुलाकात मुखर्जी बाबू से होती है जो कि होटल में अक्सर ६ से ८ महीने बिताया करते थे।  उनका प्रमुख शौक यहाँ के विचित्र जीव जंतुओं और ऐसी चीजों को ढूंढना था जो किसी दन्त कथा का हिस्सा लगती थी। फिर एक दिन वो जितिन बाबू को ऐसी जगह ले जाते हैं जहाँ उन्होंने मणि वाला साँप देखा था।  उधर उन्हें जो मिलता है वो उनकी आँखें खोल देता है और उनके दुनिया देखने के नज़रिए को बदल देता है।
अक्सर जब हम भ्रमण के लिए कहीं जाते हैं तो उस स्थान कि खूबसूरती को ही देखते हैं।  लेकिन उस स्थान के लोगों कि मजबूरियाँ,परेशानियाँ एक पर्यटक को नहीं दिखती। वो बस क्षणिक खूबसूरती को देखकर उस जगह को कई उपमाओं से नवाज़ देता है।  लेकिन वहाँ के बाशिंदों कि राय शायद इन उपमाओं से कोई सरोकार नहीं रखती होगी।  यही इस कहानी का सार है।  कहानी पठनीय है। बस मुझे मुखर्जी बाबू में जो बदलाव अचानक आया वो थोडा जमा नहीं। जो चीज जितिन के सामने हुई वो शायद तब भी हुई होगी जब मुखर्जी अकेले उस जगह गये होंगे। जब तब उनके अन्दर बदलाव नहीं आया तो फिर अब क्यों ? बस यही बात मुझे खटकती रही।



४)कार्तिक का पहला फूल - उपासना २.५/५
स्रोत : ज्ञानोदय,अप्रैल २०१५

पहला वाक्य:
कमरे में खामोशियाँ की सरगोशियाँ थीं।

ओझा जी ९० वर्षीय वृद्ध हैं। उपासना जी कि यह कहानी बड़े ही मार्मिक ढंग से उनके अकेलेपन को दर्शाती है। ये कहानी ओझा जी कि ही नहीं अपितु ज्यादातर वृद्ध लोगों कि ही है। आदमी हमेशा से ही चाहता है कि उसकी ज़रुरत किसी को हो। अगर किसी भी व्यक्ति को ऐसी जगह रहना पड़े जहाँ किसी को उसकी कोई ज़रुरत नहीं तो शायद उधर रहना दूभर हो जाये। हम लोग काम भी ऐसी ही जगह करना पसंद करते हैं कि जहाँ हमे ऐसे महसूस कराया जाए कि उधर हमारी ज़रुरत है। लेकिन जब विर्धावस्था में लोग पहुँचते हैं तो ये एहसास कम होने लगता है। ओझा जी भी इसी एहसास से गुज़र रहे हैं। बेटे और बहु अपनी ज़िन्दगी में मशरूफ। और ओझा जी के पास अपने पोते के लिए भी कुछ नया कहने को नहीं है। अक्सर उन्हें ये शब्द सुनने होते हैं:

ओझा जी ने खंखारकर कुछ पंक्तियाँ कहना शुरू किया था। पोते ने ऊबे व विरक्त भाव से कहा, 'सुनाई हुई कहानी कितनी बार सुनायेंगे बाबा?'

ऐसे माहोल में रहना, शायद अगर अभी मैं सोचूँ तो मेरे लिए मुश्किल ही होगा। शायद ओझा जी के लिए भी था और इसीलिए वो अपना पूरा ध्यान अपने बाग़ कि तरफ लगाते थे। उस बाग़ के फूल के उगने कि ख़ुशी क्या होती होगी ये मैं अब समझ सकता हूँ। और यही ख़ुशी ओझा जी को तब मिलती है जब उनके लगाये पौधे पर एक फूल खिलता है। आगे क्या होता है ये तो आप कहानी पढ़कर ही जान पायेंगे। जरूर पढियेगा। एक बेहद मार्मिक कहानी है।

५) नदी और पहाड़ - अंकुश्री २.५/५
स्रोत : ज्ञानोदय, अप्रैल २०१५

पहला वाक्य :
नदी किनारे एक पहाड़ था - ऊँचा और हरा भरा, लेकिन कुछ दशकों से उसकी हरियाली पर ग्रहण लग गया था। 

अंकुश्री कि यह लघु कथा एक नदी और चट्टान के बीच का  संवाद है। एक नदी बहती थी जिसके किनारे एक पहाड़ है।  कभी वो हरा भरा था लेकिन अब इंसानी हरकतों के कारण उसमे से पेड़ गायब हो रहे थे और विस्फोटों से उसका सीना चीरा जा रहा था।  ऐसे में एक विस्फोट से एक चट्टान पहाड़ को छोड़ नदी कि तरफ लुड़कने लगती है। ये देख नदी विचलित हो जाती है और चट्टान से वार्तालाप करने लगती है। क्या बात चीत होती है उनके बीच इस बात को तो आप इस लघुकथा को पढ़कर ही जान पायेंगे।

मेरे हिसाब से इस कथा का नाम नदी और चट्टान होता तो बेहतर था। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ कि लघुकथा इन्ही दोनों के वार्तालाप के ऊपर है। कहानी मनुष्यों द्वारा पृथ्वी के शोषण को दर्शाती है।  इसमें ये भी दिखता है कि अगर ये नदियाँ , पहाड़ और अन्य प्राकृतिक साधन अगर अपनी पीड़ा व्यक्त कर पाते तो उसमे कितना रोष होता।  इस बात का अंदाजा लघु कथा के इस अंश  को पढ़कर लगाया जा सकता है :

"जब तुम्हे तोड़ा जा रहा था तो तुम नीचे ही क्यों आईं?" नदी की आवाज़ में कड़क थी,"तुम ऊध्वर्गामी भी हो सकती थीं, तुम्हारा एक टुकड़ा उछलकर तोड़ने वाले के सिर पर जा सकता था, तुम उसका सिर तोड़ सकती थी।"

प्रकृति एक संतुलन बनाकर रखती है।  जब तक ये संतुलन बरकरार रहता है तब तक प्रकृति  शांत  रहती  है लेकिन जब ये संतुलन बिगड़ता है तो प्रकृति अपना रौद्र रूप दिखाने में भी नहीं हिचकिचाती है। अक्सर कुछ  मनुष्य अपने लालच के चलते इस संतुलन को बिगाड़ने पर तुले रहते  हैं और फिर पूरी जन जीवन को इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है।  एक अच्छी लघु कथा जो पर्यावरण के संगरक्षण को अलग नज़रिए से दिखाती है।  
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