नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

हफ्ते में पढ़ी गयी कहानियाँ ( १३ अप्रैल - १९ अप्रैल)

इस हफ्ते निम्न  कहानियाँ पढ़ी। इस  बार  ज्यादातर कहानियाँ ऑनलाइन साइट्स से थी जिन्हें आप भी पढ़ सकते हैं। पढ़िएगा ज़रूर और अपने विचार जरूर बताईयेगा।



१) हाँ, मैं डायन.....पिशाचिनी... - गीता दुबे  ३.५/५

स्रोत : रचनाकार 


पहला वाक्य :
उसे आज भी याद है जब वह इस गाँव में बहू बनकर आई थी तो इस गाँव की औरतें, बच्चे उसकी एक झलक देखने के लिए किसी न किसी बहाने नंदू के घर आ जाते। 

फुलमनिया को ब्याह के जब नंदू घर लाया तो उसकी खूबसूरती की वाह वाही गाँव में हर जगह हो रही थी। फुलमनिया खूबसूरत तो थी ही लेकिन इसके साथ सास का ख्याल रखने वाली व्यवहार कुशल स्त्री थी। लेकिन फिर ऐसा क्या हुआ कि लोग उसे डायन कहने लगे ?

गीता दुबे जी कि कहानी समाज कि दो बुराइयों को दिखलाती है। फुलमनिया जब नहीं बन पाती तो वो सास, जिसकी फुलमनिया अपनी माँ की तरह सेवा करती थी, उसे गालियाँ देने लगती है। सच ही कहा है औरत ही औरत की दुश्मन होती है। वो उस पर अपने नंदू की नौकरी छूटने और आवारा होने का आरोप भी मढ़ देती है। अक्सर औरत को हर किसी बुरे काम के लिए दोषी ठहराने का रिवाज़ है। कही जगह तो ऐसा होता है कि अगर कोई लड़का आवारा है तो उसके अभिभावक उसकी शादी करवा देते हैं और फिर उस लड़के को ठीक करने कि ज़िम्मेदारी उस लड़की पे डाल देते हैं। और अगर वो लड़की उसमे सफल नहीं होती तो सारा दोष लड़की पे डाल देते हैं। इस कहानी में भी तो यही हुआ है।
दूसरी बात जो इसमें दिखाई गयी है वो है अभी भी लोगों का अन्धविश्वासी होना। आज के समय में भी हम समाचारों में ऐसे किस्से सुनते हैं कि फलां फलां गाँव में लोगों ने एक औरत को आदिवासी करार देकर प्रताड़ित किया। वो उसका इतना शोषण करते हैं कि उसके पास इस बात को मानने के सिवाय कोई चारा ही नहीं होता।
कहानी पठनीय है और एक बार पढ़ी जा सकती है। हाँ, अंत यथार्थ के नज़दीक नहीं लगता। अक्सर जब लोग किसी डायन से झूझने
के लिए आते हैं तो इस बात से घबराते नहीं है कि वो क्या कर सकती है। असल, ज़िंदगी में फुलमनी के बचने के आसार काफी कम थे। खैर, कहानी में ये देख कर अच्छा लगा कि कैसे फुलमनी अंत में अपने ऊपर लगी तौमत को अपने भले के लिए इस्तेमाल करती है।


२)बस कंडक्टर - मोहम्मद इस्माईल खान ३.५/५

स्रोत :रचनाकार 

पहला वाक्य :
उस साल बहुत ज्यादा बारिश थी। 

अक्सर लोगों के बोल चल और कपडे पहनने के तरीके से ही हम उनके प्रति  अपनी राय कायम कर देते हैं लेकिन अक्सर ये देखा गया है ये राय सही नहीं होती। फर्स्ट इम्प्रैशन मे बी द लास्ट इम्प्रैशन बट इट इस नॉट ऑलवेज द करेक्ट इम्प्रैशन। बारिश का माहोल है, चारो तरफ कीचड़ ही कीचड़ और पब्लिक ट्रांसपोर्ट का खस्ता हाल है। ऐसे में जब लेखक को अपने भाई से मिलने जाना पड़ा तो उन्होंने पाया सारे रोड जाम हैं। वे जिस बस से जाने वाले थे उसमे काफी भीड़ थी लेकिन चारा न होते हुए उस पर चढ़ गये। उस बस का कंडक्टर, बस एक अलग सा इन्सान था। वो कैसा था? लेखक उसके विषय में की राय क्या थी? और कहानी का अंत तक तक वो राय तब्दील हुई या नहीं? ये बाते तो आप इस कहानी को पढ़कर ही जान पायेंगे।
एक अच्छी कहानी पढ़िएगा ज़रूर। इस कहानी में कंडक्टर द्वारा कहा गया वाक्य मुझे ताजिंदगी याद रहेगा:
'बाबू जी मेरी एक बात याद रखना। इस आपाधापी के जमाने में नेक काम करने का मौका मिलता कहाँ हैं। मिले तो छोड़ना नहीं।'

ईमानदार - मनमोहन भाटिया  ३/५

स्रोत : प्रतिलिपि


पहला वाक्य:
नाम छेत्रपाल, उम्र बारह साल , सातवीं में पढ़ता है।

छेत्रपाल एक गरीब घर का बच्चा था। उसके पिताजी एक मोची थे और माँ लोगों के घरों में काम करके घर का गुजारा करती थी। छेत्रपाल पढ़ने में अच्छा था और बारहवीं में बहुत अच्छे अंको से उत्तीर्ण हुआ था। अब समस्या ये थी कि उसकी आर्थिक स्थिति ऐसी थी कि आगे कि उच्च शिक्षा के विषय में वो सोच नहीं सकता था। इसलिए वो अपने पिता का हाथ बटाने लगा। आगे क्या हुआ ये तो आप कहानी पढ़कर ही जान पायेंगे।

 छेत्रपाल जब उच्च शिक्षा की सारी उम्मीद त्याग कर अपने को पिता कि मदद करने के लिए लगाता है तो सोचना बनता है कि वो ऐसा क्यों करता है। वो एक बारहवीं पास नौजवान था, उसके लिए कई विकल्प खुले हुए थे जिनसे वो इससे अच्छी कमाई कर सकता था। कहानी पढ़ते समय में यही सोच रहा था। शायद उन्हें उम्मीद थी कि कोई उनकी मदद करेगा। और ऐसा होता भी है। रंगराजन के रूप में उन्हें मददगार मिलता भी है। वो उनकी आर्थिक मदद करने को तैयार हो जाता है। छेत्रपाल गरीब ज़रूर है लेकिन वो ईमानदार है। अक्सर गरीब आदमी को बईमान कि संज्ञा आसानी से मिल जाती है। और यही सोच रंगराजन की भी है लेकिन फिर सच्चाई का एहसास उसे होता है तो उसे अपने से शर्मिन्दिगी और छेत्रपाल पर गर्व होता है। कहानी अच्छी है। और एक बार पढ़ी जा सकती है। हाँ कंप्यूटर साइंस से पढ़े होने के वजह से ये बात मुझे अटपटी लगी कि पहले ही साल के अंत में छेत्रपाल को कंपनी में एक ट्रेनी के तौर पर काम मिल गया। हमारे वक़्त में बच्चे गर्मी की छुट्टियों में मॉल वगेरह में काम करके अपने जेब खर्च में बढ़ोतरी करते थे। कंपनी ट्रेनिंग तो आखरी साल में होती थी। खैर, ये शायद बाल कि खाल निकालना होगा।


तो दोस्तों ये थी इस हफ्ते की कहानियाँ जो मैंने पढ़ी।  इसके इलावा  फिलहाल  राहुल संकृत्यायन जी कि पुस्तक वोल्गा से गंगा और Robert R McCammon का उपन्यास 'Mine' पढ़ रहा हूँ। आप लोग क्या पढ़ रहे हैं ? बताईयेगा ज़रूर। 
FTC Disclosure: इस पोस्ट में एफिलिएट लिंक्स मौजूद हैं। अगर आप इन लिंक्स के माध्यम से खरीददारी करते हैं तो एक बुक जर्नल को उसके एवज में छोटा सा कमीशन मिलता है। आपको इसके लिए कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं देना पड़ेगा। ये पैसा साइट के रखरखाव में काम आता है। This post may contain affiliate links. If you buy from these links Ek Book Journal receives a small percentage of your purchase as a commission. You are not charged extra for your purchase. This money is used in maintainence of the website.

Post a Comment

0 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.

Top Post Ad

Below Post Ad

चाल पे चाल