नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

साक्षात्कार: शब्दगाथा प्रकाशन के प्रबंध निदेशक और सीईओ परवेज़ क़ैसर खान से बातचीत

साक्षात्कार: शब्दगाथा प्रकाशन के प्रबंध निदेशक और सीईओ परवेज़ क़ैसर खान से बातचीत


हिंदी लोकप्रिय साहित्य की बात की जाए तो शब्दगाथा मीडिया पब्लिशर लोकप्रिय साहित्य के क्षेत्र में तेजी से उभरते प्रकाशन के रूप में सामने आया है। प्रकाशन की शुरुआत परवेज क़ैसर खान और सबा खान की जोड़ी ने मिलकर की है। कुछ ही समय में इस जोड़ी ने पाठकों को बेहतरीन गुणवत्ता वाला मनोरंजक साहित्य प्रदान किया है। यही कारण है कि शब्दगाथा से प्रकाशित होने वाली पुस्तकों का पाठकों को इंतजार रहता है।  

एक बुक जर्नल पर हमने शब्दगाथा मीडिया पब्लिशर के प्रबंध निदेशक और सीईओ परवेज क़ैसर खान से बातचीत की है। इस बातचीत में हमने उनकी अब तक की यात्रा को और भविष्य के लक्ष्यों को जानने की कोशिश है। उम्मीद है यह बातचीत आपको पसंद आएगी। 


*****


नमस्कार परवेज जी, अपने विषय में कुछ बताएँ। आप कहाँ से हैं? शिक्षा दीक्षा कहाँ हुई? फिलहाल कहाँ रह रहे हैं?

उत्तर: नमस्कार विकास जी। अपने विषय में ज्यादा कुछ ख़ास तो है नहीं बताने को, फिर भी आप ने पूछा ही है तो मूलतः मेरी जड़ें उत्तर प्रदेश के बहराइच जनपद से जुड़ी हैं। अलबत्ता वहाँ सिर्फ एक डेढ़ साल ही रहना हो पाया। बचपन प्रदेश के विभिन्न जनपदों में पिताजी के ट्रांसफ़र के चलते भटकते ही गुजरा। विभिन्न शहरों के स्कूलों से पढ़ते हुए दसवीं, बारहवीं लखीमपुर खीरी, फिर विज्ञान से स्नातक लखनऊ, तदुपरांत विज्ञान में स्नातकोत्तर पुणे से किया। फ़िलहाल जिंदगी की जद्दोजहद भी अध्यापन से कॉर्पोरेट, फिर वहाँ से नवी मुंबई में कोचिंग के स्व व्यवसाय तक खींच लाई। तो अभी नवी मुंबई ही मेरा वर्तमान ठिकाना है। 


साहित्य से जुड़ाव कब हुआ? वह कौन से लेखक थे जिन्होंने साहित्य की दुनिया में कदम रखवाया और शब्दों के प्रति आपके शौक को पोषित किया?

उत्तर: इसकी भी कोई नई कहानी नहीं है। एक तरह से देखा जाए तो ये विरासत में मिला शौक़ है। दादा जी, फिर पिताजी से होते हुए ये मुझ तक आया। यहाँ हैरत की बात ये है कि हम पाँच भाई-बहनों में सिर्फ मुझी में ये शौक़ आ पाया। अफ़सोस इस बात का है कि दादा जी का सानिध्य नहीं मिल सका। बस कोई सात-आठ साल का रहा होऊँगा, तब पहली बार मिला था। तमाम उर्दू की किताबें उनके कुतुबखाने (पुस्तकालय) में मौजूद थीं। घनघोर पढ़ाकू थे दादा जी। फिर सीधे बारहवीं की परीक्षाओं के बाद मिलना हुआ। क़ुतुब खाना तब भी मौजूद था और दादा जी से तब चर्चा भी हुई थी किताबों पर क्योंकि तब तक मेरा साहित्य से अच्छा-ख़ासा परिचय हो चुका था। हाँ, उर्दू पढ़ना न आया कभी। इसलिए उनके पुस्तकालय में मौजूद किताबों से परिचय न हो पाया। 

पिताजी तमाम साहित्यिक पत्रिकाएँ मँगवाया करते थे। उनके पास भी तमाम किताबें थीं। उपन्यास, कहानियाँ कम थीं। ज्यादातर गंभीर विषयों पर आधारित किताबें थीं। कुछेक पढ़ने की कोशिश कीं भी, मगर बहुत ज्यादा घुसता नहीं था तब दिमाग में। हाँ पत्रिकाओं में छपी कहानियाँ जरूर पढ़ता था। आठवीं में कॉमिक्स पढ़ने के दौरान दुकान पर एक उपन्यास दिखा ‘गैंगवार’। पाठक साहब (सुरेन्द्र मोहन पाठक) से परिचय था वो और लोकप्रिय साहित्य से भी। उसके बाद पढ़ने का असल चस्का लगा था। फिर पढ़ने के मामले में रुकना ना हुआ। फिर साहित्य भी समझा, गंभीर किताबें भी समझीं। आज भी पढ़ता ही रहता हूँ। उस दरम्यान लिखा भी जो उस समय की खूबसूरत अंदाज़, रूप की शोभा जैसी पत्रिकाओं में छपी भीं। कुछेक कविताएँ भी लिखीं जो कादम्बिनी जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में छपी थीं। खूबसूरत अंदाज़ में छपने वाली कहानियों का मेयार बदलने के बाद लिखना भी बंद कर दिया। पहले वो पत्रिका लोकप्रिय साहित्य की विधा में किस्से कहानियाँ छाप रही थी, मगर फिर उसने खुद को ड्रामा और रोमांस तक ही सीमित कर लिया। तो फिर नहीं लिखा आगे। 


आपने जो पत्रिकाओं के लिए लिखा क्या उसे पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने का इरादा है? कभी प्रकाशित करके या प्रकाशन की वेबसाईट पर प्रकाशित करके?

उन्हें सहेज नहीं पाया कभी। या फिर कहूं थोड़ी लापरवाही हुई। फाइल्स, पुरानी मैगजीन, सब पड़ी रहीं, सब पर वक्त की मार पड़ गई, कुछ लोग उठा ले गए। 

'अपने अपने दायरे', 'शबनम', 'स्याह दायरे', 'शैरीन' आदि बहुत प्रशंसित कहानियाँ थीं मेरी।

हाँ, ये संभव है कि हू ब हू ना सही, मगर ९५% पुनर्लेखन कर सकता हूँ।


उम्मीद है पुनर्लेखन का यह काम आप जल्द ही करेंगे। अच्छा परवेज जी, शब्दगाथा का ख्याल कब मन में आया? इसके पीछे की कहानी पाठकों को बताएँ?

उत्तर: कुछ शब्दों के प्रति मेरा मोह और श्रीमती जी (सबा खान जी) का शब्दों को लेकर समर्पण ही इसकी बुनियाद है। शब्दगाथा किसी व्यावसायिक उपलब्धि के तौर पर नहीं शुरू की थी। इसकी स्थापना आदरणीय रमाकांत मिश्र के आशीर्वाद से हुई थी और हम दोनों (परवेज और सबा खान) के साथ-साथ चंद्र प्रकाश पांडेय इसके संस्थापक सदस्यों में से हैं। कैरियर एवं अध्ययन हेतु चंद्र प्रकाश जी ने ब्रेक ले रखा है। तो अभी श्री मिश्रा जी के मार्गदर्शन में बस हम दोनों ही इसे देख रहे हैं। कुछेक लोग और भी जुड़ चुके हैं। तो काफिला भी आगे बढ़ ही रहा है। इसके माध्यम से हम दोनों का प्रयास यही है कि लोकप्रिय साहित्य, जिसे उसका अपेक्षित मुकाम नहीं मिला है, उस दिशा में स्तरीय लेखन को बढ़ावा देते हुए साहित्य जगत में उसका भी सम्मानजनक स्थान सुनिश्चित कर सकें। मेरा हमेशा से यही मानना रहा है कि ‘चलेंगे, तो ही कहीं पहुँचेंगे। मंजिल न सही, मरहले ही सही, जड़ता तो टूटेगी।’ अच्छा लगता है कि आज इस दिशा में काम भी हो रहा है। बहुत सारे प्रकाशक इस दिशा में काम कर भी रहे हैं। एक छोटा सा योगदान ‘शब्दगाथा’ का भी।    


परवेज जी, अक्सर ये कहा जाता है कि पाठक कम हो रहे हैं। ऐसे में आप पाठकों की घटती संख्या के विषय में क्या सोचते हैं? एक प्रकाशक के तौर पर पाठकों की घटती संख्या को कैसे देखते हैं और किस तरह अधिक से अधिक पाठकों तक पहुँचने का प्रयास करते हैं?

उत्तर: इस बात से मैं सहमत हूँ। आज बहुत से लोग कहते हैं कि पाठक कहीं नहीं गए हैं। तो मैं नहीं मानता। पाठक वाकई में कम हुए हैं। किताबों से पाठक हैं और पाठक से ही किताबें। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। अब सवाल यही है कि पाठक हैं कहाँ? तो दूसरा सिरा पकड़ते हैं, किताबों ने अपना वजूद खोना क्यों शुरू किया? क्या कारण थे कि किताबें अपना चार्म, अपना आकर्षण बनाये नहीं रख पायीं? जवाब यही है कि किताबें अपना स्तर बरकरार रख ही ना पाईं। वही घिसे-पिटे पैटर्न पर लेखन होता रहा। या तो दुरूह रहा, या फिर पुराना, या फिर सब-स्टैण्डर्ड। दूसरा इसका सीधा प्रतिद्वंदी मैदान में आ गया-मोबाइल। जिस पीढ़ी पर जिम्मेदारी थी यानी हम लोगों की पीढ़ी पर कि अपनी नस्लों को किताबों की अहमियत से महरूम न रखा जाए, उन्हें उसके महत्व को बताया जाए, खुद ही उनके हाथों में ये अस्त्र थमा बैठे, जो आज खुद ही हमारे जी का जंजाल बन गया। अब हम अपने बच्चों की इस लत से बेज़ार हुए मनोचिकित्सक के चक्कर लगाते बैठे हैं। तो कहने का मतलब ये कि नए पाठक बने ही नहीं। हर समय, हर युग का अपना खुद का एक मनोविज्ञान होता है। आज के युवाओं, बच्चों की जरूरत, उनके संघर्ष, उनकी मान्यताएँ वो नहीं जो हमारी हुआ करती थीं। तो लेखन भी उसी के अनुरूप होना चाहिए था। हमारे पास वैसे भी मौलिक लेखन का खाना काफी कमजोर है। जो भी है वो उधार का है या दोयम दर्जे का है। जो कुछ मौलिक है भी, वो बस चंद खानों में ही समाकर रह जाता है। तो वर्तमान समय की माँग यही है कि नए पाठक बनाओ। किताबों का दौर फिर वापस लौटेगा और उन्हीं खुशबूदार पन्नों के साथ लौटेगा, बस जरूरत है प्रयासों की। आज नई भाषा, नए तेवरों के साथ आधुनिक युवाओं के हरबे-हथियारों से लैस लेखक आ भी रहे हैं, ये अच्छा संकेत है। एक बात और भी यहाँ कहना चाहूँगा कि बच्चों के लिए लेखन पर विशेष रूप से काम किया जाना चाहिए और इस बात पर जरूर ध्यान रखा जाना चाहिए कि उस लेखन में हमारी भारतीय संस्कृति, हमारी तहजीब, हमारे सामाजिक मूल्य, संस्कार, मान्यताओं का जरूर समावेश हो। लेकिन ये अकेले होने वाला काम नहीं, ये हम सबको मिलकर करना होगा। मेरे बच्चे आज भी किताबें पढ़ते हैं। बिटिया अब तक ढेर सारी किताबें पढ़ चुकी है और आज भी अपनी व्यस्तता में भी रोज रात को किसी भी किताब का एक अध्याय या उप अध्याय पढ़कर ही सोती है। क्या आप ये नहीं कर सकते? फिर देखते हैं कि कैसे पाठक कम होते हैं। मैंने इस चर्चा में दूसरी चीजों पर जान बूझकर बात नहीं की है कि मनोरंजन के अन्य साधन सुलभ हो गए आदि पर। उस पर पहले ही बहुत कुछ कहा जा चुका है। 


शब्दगाथा को लेकर आपकी आगामी योजनाएँ क्या हैं?

उत्तर: जैसा कि पहले ही बताया कि शब्दगाथा का उद्देश्य क्या है। तो इस दिशा में हम सतत प्रयासरत हैं, इसके विषय में समय-समय पर हम विभिन्न माध्यमों के माध्यम से आप तक सूचना पहुँचाते रहेंगे। 


पुस्तकों के प्रकाशन की चुनाव की प्रक्रिया क्या रहती है?

उत्तर: चुनाव की एक ही प्रक्रिया है- किताब का स्तरीय होना। नवलेखन को हम बढ़ावा जरूर दे रहे हैं, इसलिए जो भी कमियाँ दिखती हैं, उसे दूर करने अथवा करवाने का प्रयास करते हैं। कोशिश यही रहती है कि किताबें ऐसी हों, जिनसे आज का पाठक अगर पढ़े तो जुड़ाव महसूस कर सके।

  

ऊपर आपने बात की कि आप उर्दू साहित्य तक पहुँच होते हुए भी आप उसे पढ़ न सकें। उर्दू और हिंदी बहने हैं। उर्दू में काफी कुछ लिखा भी जा रहा है पर उसे आम हिंदी पाठक भी नहीं पढ़ पाता। लिपि के फर्क के चलते मूलतः ऐसा होता है। जबकि अन्य भाषा से हिंदी में अनुवाद करने की जगह उर्दू से हिंदी में अनुवाद करना या हिंदी से उर्दू में अनुवाद करना सरल होता होगा। 

उर्दू से हिंदी में अनूदित रचनाओं की बात की जाए तो अभी हाल ही में खालिद जावेद के उपन्यास 'नेमत खाना' और मोहसिन खान के उपन्यास 'अल्लाह मिया का कारखाना' ने हिंदी पाठकों के बीच खास जगह बनायी है। नेमत खाना के अंग्रेजी अनुवाद द पैरडाइस ऑफ फूड को तो 2022 का जे सी बी पुरस्कार भी प्रदान किया गया है। यह दर्शाता है कि पाठक भी उर्दू की रचनाएँ पढ़ना चाहता है। फिर इब्ने सफी की लोकप्रियता से तो हम सब वाकिफ हैं ही। 

आपका इस विषय में क्या सोचना है? क्या उर्दू में रचे जा रहे लोकप्रिय साहित्य से आप वाकिफ हैं? क्या उर्दू के लोकप्रिय साहित्य को हिंदी में लाने की दिशा में भी शब्दगाथा कुछ कार्य कर रहा है? इसके अतिरिक्त क्या शब्दगाथा में हिंदी में  प्रकाशित हुई रचनाओं को उर्दू में ले जाने की भी आपकी कोई योजना है?

शब्दगाथा में सबा जी को ही उर्दू में महारत है, और वे उर्दू की कई रचनाओं को हिंदी में लाने की तैयारी कर रही हैं। हाँ, फिलहाल हिंदी में प्रकाशित हुई रचनाओं को अभी उर्दू में लाने का कोई इरादा नहीं है। इसके अतिरिक्त सबा जी अपनी मूल भाषा मराठी से भी काफी कुछ लाने के लिए प्रयासरत हैं।

वाह ये तो बहुत अच्छी खबर है। 


परवेज जी यह बताइए कि लेखक शब्दगाथा से संपर्क कैसे स्थापित कर सकते हैं? उसकी प्रक्रिया क्या रहती है?

उत्तर: लेखकगण अपनी रचना को लेकर सीधे शब्दगाथा के आधिकारिक व्हाट्सएप नंबर पर संपर्क कर सकते हैं अथवा सीधे हमारी वेबसाइट www.shabdgaatha.com पर ‘PUBLISH WITH US’ पेज पर जाकर उसमें दर्शायी गयीं नियमावली के तहत अपनी रचनाएँ हम तक भेज सकते हैं। रचना प्राप्त होने पर प्राप्ति का संदेश देने के उपरांत दो हफ़्तों में रचना की स्वीकृति अथवा अस्वीकृति के संबंध में सूचित कर दिया जाता है। उसके बाद आगे की प्रक्रिया होती है। यहाँ ये बताना भी जरूरी है कि ‘शब्दगाथा’ पूर्णतया ट्रेडिशनल प्रकाशन है, अतः हम सेल्फ या वैनिटी पब्लिशिंग जैसी कोई भी सुविधा नहीं देते। आप यदि अपनी रचनाओं में बताये गए सुझावों (अगर हुए तो) के आधार पर बदलाव करने को तैयार हैं, तो बतौर लेखक शब्दगाथा में आपका स्वागत है।


आज के समय में एक लेखक के लिए केवल लिखना ही महत्वपूर्ण नहीं रह गया है। क्या आप उभरते हुए लेखकों को कुछ सलाह देना चाहेंगे? लेखन के अतिरिक्त उन्हें किन किन बिंदुओं पर भी ध्यान देने की जरूरत है?  

विकास जी, आज के लेखक उत्साह से भरे हुए हैं, उनके पास नई चीज लिखने की चाह तो है, मगर एक कोना जरूर ऐसा है, जो उनसे छूट रहा है। एक तरह से अच्छे लेखन की बुनियाद भी वही है। और आप जानते ही हो कि कमजोर बुनियाद पर खड़ी इमारत की क्या हैसियत है। वही आज लेखन में भी नव लेखक कर रहे हैं। वे पढ़ना ही नहीं चाहते। लिखो वही जो मन चाहे, मगर उच्च कोटि का साहित्य भी पढ़ना जरूरी है। आपके सारे लेखन के टूल्स वहीं से आएँगे। सारे हरबे असलहे वहीं से आने हैं।

कई सारी रचनाएँ हम लोग खेद सहित वापस कर देते हैं। लेखक संपादन और प्रूफ रीडर में फर्क तक नहीं समझते। कुछ सलाह दो, तो कान पर पड़ी मक्खी की तरह उड़ा देते हैं। कुछ हैं जो निरंतर सीखने की इच्छा रखते हैं, वे कर भी रहे हैं और नित निखर भी रहे हैं।


क्या आप कुछ रचनाओं या लेखकों के नाम सुझाना चाहेंगे जिन्हें किसी भी उभरते हुए लेखक को पढ़ना जरूरी हो जाता है?

शुरुआत तो प्रेमचंद जी से ही करनी होगी। फिर धीरे धीरे स्वाद विकसित करते हुए उदय प्रकाश जी, प्रियंवद, संजीव, सुरेंद्र वर्मा, अब्दुल बिस्मिल्लाह, शानी, निर्मल वर्मा आदि जी की रचनाओं को जरूर पढ़ना चाहिए।



*****

तो यह थी परवेज केसर खान के साथ हमारी एक छोटी सी बातचीत। उम्मीद है यह बातचीत आपको पसंद आयी होगी। 


यह भी पढ़ें




FTC Disclosure: इस पोस्ट में एफिलिएट लिंक्स मौजूद हैं। अगर आप इन लिंक्स के माध्यम से खरीददारी करते हैं तो एक बुक जर्नल को उसके एवज में छोटा सा कमीशन मिलता है। आपको इसके लिए कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं देना पड़ेगा। ये पैसा साइट के रखरखाव में काम आता है। This post may contain affiliate links. If you buy from these links Ek Book Journal receives a small percentage of your purchase as a commission. You are not charged extra for your purchase. This money is used in maintainence of the website.

Post a Comment

0 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.

Top Post Ad

Below Post Ad

चाल पे चाल