नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

किताब परिचय: फेक कपल - अशफाक अहमद

किताब परिचय: फेक कपल - अशफाक अहमद



 किताब के विषय में 

'फेक कपल' अपनी जिम्मेदारियों को निभाते अधेड़ होते जा रहे एक शख़्स और ताज़ी-ताज़ी जवान हुई लड़की की कहानी है, जिन्हें किसी क्राइटेरिया को फिल करने और अपनी ज़रूरत के मद्देनज़र एक फ्लैट को बतौर कपल शेयर करना पड़ता है। अब रिश्ता झूठ का था— लेकिन साथ तो हकीक़त था। भले वे अलग वर्ग से थे, अलग एज-ग्रुप से थे, अलग फील्ड से थे, अलग मिज़ाज के थे— उनके गोल अलग थे, लेकिन साथ रहते-रहते वे एक दूसरे के आकर्षण से कितना बचे रह पाते हैं, यह बड़ा सवाल था।

यह कहानी दो हिस्सों में है— पहला हिस्सा जहां मुंबई की भागदौड़ और संघर्ष भरी दुश्वार ज़िंदगी को सामने रखता है, वहीं दूसरा हिस्सा जातिवाद, घटिया राजनीति और दबंगई से ग्रस्त पूर्वांचल के एक गांव की तस्वीर सामने रखता है। इस कहानी की यूएसपी वे छोटे-छोटे सपोर्टिंग किरदार हैं, जिनके सहारे कई गंभीर बातें कही गई हैं, कई गंभीर मसले उठाये गये हैं। प्रेम कहानी तो है— लेकिन इस प्रेम कहानी पर कई सोशल इश्यूज की गार्निशिंग भी की गई है।

अब अगर आप इस तरह की कहानियों में दिलचस्पी रखते हैं तो फेक कपल आपके लिये है।

पुस्तक लिंक: अमेज़न  (किंडल अनलिमिटेड सब्सक्राइबर बिना किसी अतिरिक्त शुल्क के इसे पढ़ सकते हैं।)



पुस्तक का एक अंश 

किताब परिचय: फेक कपल - अशफाक अहमद

रास्ते पर मौजूद गंदगी के चलते उसे कुछ इस तरह संभल-संभल के चलना पड़ रहा था कि बचपन में किसी गाड़ी पर लिखी एक सस्ती सी शायरी उसे याद आ रही थी— ख़ुदा जब हुस्न देता है, क़यामत आ ही जाती है, क़दम गिन-गिन के रखते हैं, कमर बल खा ही जाती है। अब हुस्न के पैमाने पर वह किस मकाम पर थी, इसका निर्धारण ख़ुद करती तो बेईमानी होती, लेकिन आइना बताता था कि कम तो नहीं थी— पर क़यामत आने जैसा कुछ उसे कभी महसूस ही नहीं हुआ था, अलबत्ता अभी जिस अंदाज़ में उसे चलना पड़ रहा था, उसे देखते दूसरी लाईन ज़रूर चरितार्थ हो रही थी।

मुंबई आने से पहले उसने इस शहर के स्लम एरिया के बारे में ज़रूर सुना था— लेकिन देखने का दुर्भाग्य आज हासिल हो पाया था। नाक-भौं सिकोड़ते बमुश्किल वह ख़ुद को सायन के उस हिस्से में क़दम बढ़ाने के लिये राज़ी कर पाई थी।

सुबह का टाईम था और कामकाजू लोग दिहाड़ी कमाने की जद्दोजहद के लिये कबूतरखानों जैसे घरों से निकल रहे थे तो रास्ता कैसा भी हो, लेकिन गलियाँ इंसान उगलने में कोई कोताही न कर रही थीं। अलबत्ता एक बात थी— कि एक बीस बाईस वर्षीय, स्लिम-ट्रिम, गोरी और सुंदर नवयौवना को उस इलाके में यूँ अकेले भटकते देख लोगों की निगाहों में एक कौतहूल ज़रूर पनप रहा था और ढेरों निगाहें उसका पीछा कर रही थीं, उसका मुआयना कर रही थीं और कई शौकीन तो आँखें सेंकने से भी गुरेज़ न कर रहे थे।

यूँ तो उसे सख़्त उलझन हो रही थी, लेकिन चारा भी क्या था? गरज़ तो उसी की थी— तो यह रास्ता और निगाहें, दोनों बर्दाश्त करनी ही थीं। अचानक पीछे छूटती गली से एक सनसनाती हुई आवारा बाॅल उसकी कमर से आ टकराई और वह चिंहुक कर थम गई। सर थोड़ा पीछे करके देखा तो गली में बारह से चौदह साल के कुछ लड़के दिखे जो कुछ सकपकाये से सांय-बांय करने लगे थे। शायद वे आपस में कैच-कैच खेल रहे थे और किसी एक कैचर की नाकामी को भुनाते हुए उस मुई बाॅल ने उसकी कमर को चूम लिया था और अब लड़के सकपकाये से रुक कर उसका पीछे खिंचा चेहरा देख रहे थे कि इस हादसे का जिम्मेदार गांधी, नेहरू में से किसे ठहरायें।

पहले उसका दिल किया कि कुछ बोले— लेकिन यह बात इतनी बड़ी न लगी कि इसपे कुछ कीमती लफ्ज़ खर्चे जायें। वह उस कानपुर के पड़ोसी शहर की थी, जहाँ के लोगों के बारे एक चुटकुला चलता था कि कमबख़्त मुँह में गुटखा भरा हो तो बोलने की ज़हमत भी तभी उठाते हैं जब बात की कीमत गुटखे से ज्यादा हो। वही सोचते उसने बस अपने संतरे की फाँकों को मात करते होंठों को दोनों गालों की तरफ़ थोड़ा खींच के मुस्कराहट की शक्ल दी, और आगे बढ़ ली।

आह! वह रही मस्जिद और वह रहा पनवाड़ी का खोखा— चार क़दम और चल के सड़क में आया कर्व पार करते ही सामने दिखे डेस्टिनेशन ने उसे बड़ी राहत दी। ऐसी जगहों पर कैसे रह लेते हैं लोग— कीड़े-मकोड़ों की तरह। ख़यालात उसे बहका रहे थे— मन में शंकाएँ घुमड़ रही थीं कि ऐसी जगह टिके मर्द से भला बन भी पायेगी उसकी? ऊँहू— चेक करने में क्या जाता है, कौन सी शादी करनी है कि उससे पीछा छूटना मुश्किल हो। न समझ में आया तो कोई और विकल्प देखेगी— ख़ुद को तसल्ली देते उसने कमज़ोर पड़ते क़दमों को स्थिरता दी और खोखे की तरफ़ बढ़ ली।

गनीमत थी कि खोखे पर कोई भीड़ नहीं थी, एक बूढ़ा खड़ा बीड़ी सुलगा रहा था, तो दूसरा भारत का भविष्य अपने आने वाले कल को अपनी हथेली पर रख के दूसरे हाथ से पीट रहा था। जब तक वह पहुँची, उसने पिटे हुए भविष्य को अपना होंठ खींच कर अंदर दबा लिया था और अपने चेहरे पर एक अलौकिक तृप्ति के भाव पैदा करता हट ही रहा था कि अपनी तरफ़ आते एक हसीन बला को देख उसके उठे हुए पाँव ने वापस ज़मीन पकड़ ली।

"सुनिये।" उसने नज़दीक पहुँचते हुए कहा तो था लेकिन तय करना मुश्किल था कि उसका सम्बोधन उस पिटनी को दाबते युवा से था, या बीड़ी फूँकते वृद्ध से या पान लगाते पनवाड़ी से— जवाब में नज़रें तो तीनों ने उठाई थीं और एक्स-रे के अंदाज़ में उस पर टिकाई थीं।

"सुनाईये।" लेकिन लगता था कि युवक ने सम्बोधन ख़ुद पर लिया था और विनोद भरे स्वर में बोलते हुए मुस्कराया था।

"यह आसिफ साहब कहाँ मिलेंगे, जो कानपुर के रहने वाले हैं।" युवक के अंदाज़ और तीनों की निगाहों से क़तई असहज होते हुए फिर भी उसने पूछा।

"क्यों— उससे क्या काम?" पनवाड़ी ने आश्चर्य मिश्रित स्वर में आँखें फैलाते हुए कहा।

"अरे आपको क्या करना है— पैसे लेने हैं मुझे उससे। बचपन में लिये थे, लेकिन अब तक लौटाये नहीं।" वह कुछ झुँझलाहट भरे अंदाज़ में बोली।

"बचपन में? किसके बचपन में?" पनवाड़ी ने सर खुजाया— ऐसा लगा जैसे गेंदें उसके सर के ऊपर से जा रही हों।

"गांधी जी के बचपन में, ठीक है। अब बताएँगे प्लीज— मुझे अजगर जुर्राट ने बोला कि उनके बारे में यहाँ  से पता चल सकता है।"

नाम सुन कर बूढ़े और युवक, दोनों की हंसी छूट गई और पनवाड़ी दोनों को घूरने लगा। उसे घूरते हुए देख दोनों ने अपनी हँसी पर लगाम लगाई और पनवाड़ी की आँखों के इशारे को कैच करते आगे बढ़ लिये।

"असगर नाम है उनका, रिश्ते में भाई लगते हैं और रहने वाले भी हमाये ही उधर के हैंगे— कन्नौज के। नाम तो सुने ही होगे मैडम जी।" दोनों के हटने के बाद वह उसकी तरफ़ आकर्षित हुआ।

"हाँ तो? मुझे कन्नौज नहीं जाना, अजगर-असगर जो भी हैं, उनसे बात कर लूँगी लेकिन फिलहाल मुझे आसिफ से बात करनी है। कुछ काम है।" उसने मुँह बिचकाते हुए कहा।

"घर पे होंगे, पीछे ही है— यहीं बुलाये देते हैं। क्या है कि उधर जाते आप अच्छी न लगें शायद। एस्क्यूज मी।" पनवाड़ी ने अपने पीछे की तरफ़ रखा फोन उठाते हुए कहा और लाॅक खोल कर कोई नंबर मिलाने लगा। फिर उधर से फोन उठा होगा तो उसने कहा— "अरे आसिफ हैंगे क्या ठिये पे, अच्छा… तो भेजियो तनिक दुकान पर, कोई तकादेदार आया है उधारी का तकादा करने। फौरन भेजो।" फिर वह फोन कट करके उसकी जगह वापस पहुँचाने के बाद उसकी तरफ़ आकर्षित हुआ और आवाज़ में मिश्री घोलते हुए बोला— "आप कुछ लेंगी क्या मैडम जी। क्या है कि दो चार मिनट तो लग ही जायेंगे आसिफ बाबू को आते। मीठा पान लगा दें।"

"चूना लगा लेते हो?" उसने भी पनवाड़ी के अंदाज़ में ही पूछा।

"जी बिलकुल— काम है हमारा।"

"तो नेतागीरी क्यों नहीं करते, चूना लगाने के लिये सबसे बढ़िया फील्ड तो वही हैगी।"

पहले तो एकदम से गेंद उसके सर के ऊपर से गई, लेकिन फिर बात पल्ले पड़ी तो 'हे-हे-हे' करके हँसने लगा।

"आप भी मैडम… आसिफ हमारी बेगम के भाई लगते हैंगे तो इधर रुक जाते हैं कभी-कभार। वैसे आप कब से जानती हैं उन्हें?"

"मैं नहीं जानती और न ही जानने की कोई ख्वाहिश है। बस कुछ काम है तो बात करने आई हूँ।"

तब तक खोखे पर सुंदर कन्या देख, कुछ मनचले भी उधर ही सिमट आये और वह खोखे से थोड़ा हट के खड़ी हो गई। अब दुकान थी, तो कुछ न कुछ तो लेने का बहाना था ही और चूना लगाने वाले भाई साहब भले सबकी मंशा से भलीभांति अवगत हों लेकिन मना करने का हक़ तो नहीं रखते थे। लिहाजा दुकानदारी को वयीयता देना बुद्धिमानी थी। एक मैडम की बदौलत अगर चार गहक बेज़रूरत भी दुकान की तरफ़ खिंच आयें तो सौदा बुरा तो नहीं था। हाँ, उनकी ताड़ती निगाहों से वह कुछ असहज हो रही थी तो बचने के लिये अपने पर्स से मोबाईल निकाल कर देखने लगी थी।

पाँच मिनट बाद वह आया… उसे पहचानती तो नहीं थी वह, लेकिन आने और सवाल भरी नज़रों से इधर-उधर देखने के चलते समझना मुश्किल नहीं था कि वही आसिफ था, जिससे मिलने वह इस स्लम में आई थी। उसने ग़ौर से उस शख़्स का मुअयना किया— चालीसेक साल तो उम्र रही होगी उसकी। शरीर इकहरा ही था, लेकिन पेट ने हाथ उठा कर अपने होने का सबूत देना शुरु कर दिया था। रंगत उसकी तरह गोरी तो नहीं थी, अलबत्ता साफ़ ज़रूर थी, बाकी चेहरे के सभी कोने ठीक-ठाक थे। कोई बहुत हैंडसम, या हैंडसम की रैंकिंग तो नहीं दी जा सकती थी लेकिन तीन स्टार देने लायक ठीक-ठाक तो था ही। एक चीज़ उसे हालाँकि खली कि उसके सोचे हुए के हिसाब से वह उम्र में काफी ज्यादा था।

"अनवर भाई— कौन तकादा कर रहा था?" उसने इधर-उधर देखने के बाद पान वाले से पूछा और पान वाले ने एक तरफ़ सभी के आकर्षण का केंद्र बनी खड़ी लड़की की तरफ़ भंवें नचाईं।

वह आँखें फैला कर उसे देखने लगा— अंदाज़ में सवाल कम और हैरत कहीं ज्यादा थी।

"मैंने कब आपसे कुछ उधार लिया मोहतरमा? मैं तो आपको जानता तक नहीं, पहली बार तो देखा है आपको।" वह थोड़ा हिचकते हुए बोला।

"मेरा नाम अरीबा है और मैं लखनऊ से हूँ। मुझे असगर भाई ने भेजा है आपके पास— क्या हम कुछ बात कर सकते हैं।" उसने बड़ी शराफ़त से अपना परिचय देने के साथ उसे बातचीत की पटरी पर लाने की कोशिश की।

"जी।" अब कोई खूबसूरत लड़की बातचीत की ख्वाहिश जताये तो बेचारे मर्द के पास कहने को बचता ही क्या है।

"यहाँ नहीं— मेन रोड की तरफ़ चलिये।" उसने कुछ झिझकते हुए ही कहा था— इतने लोगों के सामने वह बात तो की ही नहीं जा सकती थी, जो वह करने आई थी।

आसिफ बाबू ने कंधे उचका दिये, जैसे हथियार डालने का इशारा कर रहे हों और ख़ुद ही पहला क़दम बढ़ा दिया। वह एक उचटती नज़र उन चेहरों पर डालती पीछे ही हट ली, जिनपे फिक्स निगाहें शरारतन मुस्कराने लगी थीं। वह उन नज़रों का अर्थ समझ सकती थी— वे अनुमान लगाने वाली निगाहें थी, वे उन अनुमानों के आधार पर औरत को जज करने वाली निगाहें थीं। मर्द इससे आगे बढ़ भी कहाँ पाता है… हुँह।

फिर उसी गंदे, कीचड़ भरे रास्ते से वापसी हुई और फिर संभल-संभल कर क़दम रखने की कोशिश में कमर बल खाने की अनचाही लजाज़त से सराबोर होते वह उस बेपरवाह से शख़्स के पीछे डोलती बढ़ती गई, जिस पर उसके हुस्न का कोई रौब ग़ालिब हुआ लगता नहीं था। शायद उसके सीने में मौजूद दिल बस खून पम्प करना भर ही जानता था— धड़कना नहीं।

एक संकरी, तो एक थोड़ी चौड़ी सड़क से गुज़रते वे ऊपर चढ़ती सीढ़ियों पर होते, चेम्बूर की तरफ़ जाती मेन रोड पर आ गये, जहाँ एक बस स्टाॅप मौजूद था तो क़दम थम गये। बस स्टाॅप पर ज़रूर भीड़ थी लेकिन वे उस भीड़ से थोड़ा हट कर बात कर सकते थे।

"फरमाइये— क्या बात करनी थी आपको?" फिर वह उसकी तरफ़ रुख़ करते हुए बोला था।

"आपका फोन नहीं लग रहा— लगातार स्विच्ड ऑफ बता रहा।" उसने बातचीत की शुरुआत के लिये अपेक्षाकृत एक आसान सिरा पकड़ा।

"हाँ, वह बांद्रा से सायन की तरफ़ आते बस में किसी ने मार लिया। सिम लाॅक करा दिया है, पुलिस में रिपोर्ट कर दी है, लेकिन मुझे अपने देश की पुलिस पर पूरा भरोसा है कि मुझे अपने फोन के लिये रेस्ट इन पीस कहना ही पड़ेगा।" बंदे ने सीने पर हाथ रखते बाकायदा पूरी संजीदगी से अफसोस जताया।

"ओह— मुझे दरअसल अजगर जुर्राट, मतलब असगर भाई ने भेजा है आपके पास। उन्होंने ही उस पान वाले का पता दिया था कि आप वहाँ मिल सकते हैं, क्योंकि फोन तो आपका लग नहीं रहा था।"

"लेकिन क्यों? मुझसे क्या काम है आपको?"

"दरअसल मैैं यहाँ नई हूँ— मुझे अपने बजट में रहने के लिये एक सेफ ठिकाना चाहिये था। किसी जानने वाले ने मुझे असगर भाई का नंबर दिया था कि वे दो प्रतिशत कमीशन पर मुझे जगह दिला सकते हैं।" उसे एकदम से तो समझ में भी न आया कि सीधे अपनी बात कहे कैसे— पता नहीं यह कैसे रियेक्ट करेगा।

"हाँ, वह यही काम करते हैं तो दिला ही सकते हैं, लेकिन जब उनसे मिल ही ली थीं तो मेरे पास आने की क्या ज़रूरत पड़ गई? मैं तो यह काम नहीं करता।"

"अरे नहीं— आपसे वह काम नहीं। बात कुछ और है।" कहते-कहते वह झिझक गई… भला इतनी अजीब मगर अहम बात ऐसे कैसे कही जा सकती थी— बिना कोई भूमिका बाँधे।

सामने खड़ा शख़्स गहरी उलझन में पड़ गया।

"आप भी कोई जगह ढूँढ रहे थे न रहने के लिये? असगर भाई ने बताया।"

"हाँ, ढूँढ  तो रहा हूँ, मिल भी दसियों रही हैं लेकिन बस ऐसी ही, जैसी पीछे देखी… मेरे लिये बड़ा मुश्किल है क्योंकि मेरा मिज़ाज थोड़ा अलग है। कई लोगों के साथ एडजस्ट करना मुश्किल होता है और सारे ऑप्शन ऐसे ही हैं। तभी अजगर भाई से कहा था कि कोई ढंग की जगह हो तो बतायें, थोड़ा सुकून से रहना चाहते हैं लेकिन मुश्किल यह है कि ऐसी जगह के लिये जो बजट चाहिये, वह अपनी औकात से बाहर है। तो बस अपने बजट के हिसाब से किसी ढंग की जगह की तलाश जारी है।"

"जी— कुछ ऐसी ही समस्या मेरी भी है। मुझे रहने के लिये कोई एक सही ठिकाना चाहिये, मेरे घर वालों की शर्त के मुताबिक— वर्ना वे मुझे गुज़ारे के लिये पैसे नहीं देंगे और ख़ुद तो मैं अभी यहाँ किसी लायक हूँ नहीं कि अपना खर्च उठा सकूँ।"

"मैं समझा नहीं— इस समस्या में मेरा क्या रोल है?"

"कुछ नहीं— बस आपकी वजह से इस समस्या के हल की ज़रूर गुंजाइश है, तभी आप तक पहुँची हूँ।" बात खत्म करके वह ऐसे हाथ मसलने लगी जैसे फैसला न कर पा रही हो कि आगे कैसे कहे।

और वह बंदा सरापा सवाल बना गहरी उलझन से उसे देखता रहा। बैकग्राउंड में हल्की-तेज़ आवाज़ करती भाँति- भाँति की गाड़ियाँ दोनों दिशाओं को भागती दिख रही थीं।

"मैं यहाँ किसी को नहीं जानती, एक टार्गेट ले कर ख़ुद को आजमाने आई हूँ, एक टाईम पीरियड के अंदर। घर वाले नहीं चाहते कि कहीं अकेले रहूँ, या ग़लत लड़कियों के साथ रहूँ— वे फ्लैटों में अलग रहती अकेली आज़ाद लड़कियों को भी ग़लत ही मानते हैं, पता तो होगा आपको, हमारे यहाँ आर्थोडाॅक्स फैमिलीज की सोच कैसी होती है। उनका सारा ज़ोर इस पर है कि मैं वर्किंग वीमन के बीच किसी पीजी, हाॅस्टल में रह सकती हूँ या किसी ज़िम्मेदार फैमिली के साथ रह सकती हूँ।"

सामने वाले के होंठ से तो कुछ न फूटा, पर चेहरे पर जैसे एक शब्द का खाका खिंचा— तो?

"यहाँ मैं एक ऐसी फ्रेंड के पास आई थी, जो फेसबुक से मेरी दोस्त बनी है, लेकिन इतनी मदद तो की उसने कि चार-पाँच रोज़ के लिये मुझे अपने घर आसरा दे दिया— लेकिन उसके घर वाले इतने भी अच्छे नहीं हैं कि मुझे अपने यहाँ ही रख लें। मुझे दो-तीन दिन में हर हाल में शिफ्ट करना ही है।" उसने बात आगे सरकाई।

सामने वाले के चेहरे पर पैदा हुआ 'तो' अभी भी वैसे ही बरकरार था।

"किसी ने असगर साहब का नंबर दिया था तो उनसे मिली— पिछले तीन दिनों में उन्होंने मुझे कम से कम बीस जगहें बताई, जिनमें तीन मेरे मतलब की नहीं थीं, मतलब मेरे घर वालों के हिसाब से आवारा लड़कियों का साथ हो जाता… सात मेरी औकात से बाहर थीं, उतना किराया मैं अफोर्ड नहीं कर सकती— और दस बांद्रा से बाहर दूर-दूर की ऐसी जगहें थीं जो मुझे न सूट करतीं, क्योंकि मुझे जगह बांद्रा या आसपास में चाहिये।"

"हाँ तो?" आखिरकार आसिफ नाम के उस बंदे के चेहरे पर बैठा 'तो' उसके होंठों से खारिज हुआ।

"असगर साहब बता रहे थे कि उन्होंने आपको संतोष नगर की तरफ़ एक कोई जगह दिखाई थी, जो आपको पसंद आई थी?"

"मुझे? अच्छा वह— हाँ, शांति के हिसाब से पसंद थी मुझे लेकिन एक तो अकेले किराया अफोर्ड करना मुश्किल था और दूसरे उनकी शर्त भी मेरे लिये मुमकिन नहीं थी। वह फ्लैट है टू बीएचके, दो मियाँ-बीवी ही रहते हैं बस। वे भी किराये पे ले रखे हैं और किसी के साथ शेयर करना चाहते हैं कि किराये का बोझ कम हो सके, लेकिन न अकेली लड़कियों को रखना चाहते हैं और न ही किसी मर्द या लड़कों को। वे किसी बाल-बच्चे वाले परिवार को भी नहीं रखना चाहते हैं, बल्कि अपने जैसे ही किसी कपल को साथ रखना चाहते हैं।"

"तो असगर साहब ने कुछ कहा था आपसे?"

"अरे वह झकलं… साॅरी, वह अजीब सी राय दे रहे थे कि जगह की तलाश में लगी कोई फीमेल पार्टनर ढूँढ  लो और मियाँ-बीवी बता कर एडजस्ट हो जाओ— उन लोगों को कौन सा वेरिफाई करना है। अब यह तो अजीब बात हुई… ऐसी कोई लड़की कहाँ ढूँढे मिलेगी जो किसी अजनबी मर्द के साथ एक बेडरूम में रह ले और किसी लड़की को क्या पड़ी ऐसे रहने की? उन्हें तो कोई भी रख ही लेता है, उन्हें थोड़े प्राब्लम होती है— प्राब्लम तो मर्दों को होती है। मैंने कहा था अजगर भाई से कि मेरी तरफ़ से आप अखबार में इश्तिहार दे दो— कोई मिल जाये तो बताना मुझे।"

"हाँ तो वही बताने मैं आई थी आपके पास… समझिये कि उन्होंने इश्तिहार दिया था और एक ज़रूरतमंद लड़की उस इश्तिहार को पढ़ कर उनके पास पहुँच भी गई।" उसने फौरन आसिफ की बात पकड़ते जल्दी से कहा था।

"कौन?" आसिफ ऐसे हैरान हुआ जैसे कुछ अनोखा सुन लिया हो— आँखें भी अपने हल्कों में कुछ फैल गई थीं और मुँह खुल गया था।

"अब पूछते और ढूँढते हुए मैं आई हूँ तो ज़ाहिर है कि वह लड़की मैं ही होऊँगी। मेरे पास बहुत कम वक़्त है कुछ कर दिखाने के लिये और मैं अपना ज्यादातर वक़्त न तो रहने की जगहें ढूँढने और बदलने में खपा सकती हूँ और न कहीं दूर-दराज़ में रह कर रोज़ बसों और ट्रेनों के धक्के खाने में… तो मैं एडजस्ट करने के लिये तैयार हूँ। बस असगर साहब का भरोसा कायम रहना चाहिये कि आप शरीफ और बाकिरदार शख़्स हैं, जो मेरी इज्ज़त और प्राइवेसी, दोनों का ख्याल रखेंगे।"

"अरे आप पागल हो गई हैं क्या मोहतरमा! मैं कैसा भी होऊँ लेकिन आप अपना सोचिये, किसी मर्द के साथ इस तरह एक बेडरूम में रह सकेंगी? यह तो टू मच है… मतलब मुझे सुन के भी अजीब लग रहा है और आप तैयार भी हो गईं।" उसके लफ्ज़ों के साथ आँखों से भी बेयकीनी बरस रही थी।

"हाँ तो मुझे कोई आपकी बीवी बन के नहीं रहना, बस एक पार्टनर की तरह रहना है। अपना सामान रखने और रात में सोने के लिये एक ठिकाना भर चाहिये और वह इस तरह मिल सकता है। खाना वगैरह बाहर से ही करना है, या उन लोगों से शेयर भी किया जा सकता है खर्च में पार्टिसिपेट करके… मेरा ज्यादातर वक़्त तो बाहर ही गुज़रना है। फिर दिक्कत क्या है?"

"एक मिनट— मोहतरमा एक तरफ़ तो आप कह रही हो कि आप एक ऑर्थोडाॅक्स फैमिली से हो, जो आपको कहीं ऐसी-वैसी जगह रहने देना अलाऊ नहीं करेंगे, और दूसरी तरफ़ आप किसी की नकली बीवी बन कर रहने के लिये तैयार हो— मतलब हाऊ? कैसे कनविंस करोगे घर वालों को और कल को कैसे भी यह बात उन्हें पता चल गई तो क्या अंजाम होगा?"

"मेरा या मेरे घर वालों का ऐसा कोई रिश्तेदार-नातेदार या जानने वाला यहाँ नहीं रहता कि वह मेरी खोजबीन करके उन्हें खबर पहुँचाये और न उनके बस का है कि वे यहाँ वेरिफाई करने आयें। उनकी शर्त बस इतनी है कि जिनके यहाँ रहूँगी, उनसे बात करा दूँ तो उन्हें तसल्ली हो जायेगी। तो एक बार उन फ्लैट वालों से वीडियो काॅल पर बात करा दूँगी— फिर वे बेफिक्र हो जाएँगे।"

"और वे दोनों मियाँ-बीवी… वे बात करेंगे तो मेरा, मतलब तुम्हारे शौहर का ज़िक्र न करेंगे? भूल से भी ऐसा कुछ बोल दिया तो? तब क्या मतलब रह जायेगा इस कवायद का?"

"अरे आप उसकी फ़िक्र में काहे दुबले हो रहे— वह मेरी हेडेक है, मैं संभाल लूँगी।"

"क्या नाम बताया था आपने अपना?"

"अरीबा— अरीबा खान।"

"और उम्र क्या है आपकी?"

"बाईस साल और तीन महीने— क्या करना है आपको मेरी उमर का?"

"और मैं इकतालीस साल और कुछ महीनों का हूँ— मतलब आपसे लगभग उन्नीस साल बड़ा। सही टाईम पे शादी हो गई होती तो बड़ी बेटी जवान हो रही होती। मतलब कोई मैच है हमारा? क्या बताएँगे उन मियाँ-बीवी को? कैसे ऐसी बेमेल शादी हो गई?"

"क्यों— इतने गैप से शादियाँ होती नहीं क्या? यह कोई ऐसी चीज़ है कि सामने आते ही लोग अपने काम-धाम छोड़ कर यह जानने के पीछे लग जाएँ कि ऐसा कैसे हुआ। रोज़ ही जाने कितनी शादियाँ इस देश में ऐसी होती हैं जहाँ हसबैंड-वाईफ के बीच का एज-गैप ओवर टेन ईयर्स हो। सुना देंगे कोई कहानी— फेसबुक पर मिले थे, दोस्ती हुई, दोस्ती प्यार में बदल गई तो घर वालों को बिना बताये शादी कर ली। हो गया… मुझे नहीं लगता कि असगर साहब के वेरिफिकेशन के बाद भी वे हमसे मैरिज सर्टिफिकेट मांगेंगे।"

"आप अजीब हो— मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि ऐसी बात के लिये कोई लड़की राज़ी भी हो सकती है।"

"मजबूरी, हर बात के लिये इंसान को राज़ी होने पर मजबूर कर देती है। मेरे पास बस एक साल है, और मुझे लगता है कि अगर आप उस किरदार पर क़ायम रहे जो असगर साहब ने आपका बताया— तो यह नाटक कामयाबी से साल भर चल सकता है। हाँ, बशर्ते कि आपके बीवी-बच्चे न आ कर भेद खोल दें।"

"मेरे बीवी-बच्चे? अजगर भाई ने नहीं बताया इस बारे में कुछ?"

"नहीं— क्यों? कुछ बताने लायक है जो मुझे जानना चाहिये?"

"बहुत दुख भरी कहानी है, सुन कर आँसू आ जाएँगे और आपकी आँखों का काजल बह जायेगा… इसलिये रहने देते हैं— लेकिन वे यहाँ आ कर ऐसे किसी नाटक का भांडा फोड़ने की हालत में नहीं हैं। बस इतना ही कह सकता हूँ उनके लिये… पर यह मेरे लिये अभी भी हजम करना मुश्किल हो रहा है कि कोई लड़की सिर्फ रहने की मनपसंद जगह पाने के लिये इस बात पर भी राज़ी हो सकती है।"

"एग्जेक्ट वर्ड इज, इतना नीचे भी गिर सकती है— क्योंकि आप जैसे शरीफों के लिये तो यह नीचे गिरना ही हुआ न… और फिर इस नीचे गिरने की बिना पर मेरे कैरेक्टर को जज करेंगे कि ज़रूर मैं कैरेक्टरलेस होऊँगी। मेरे लिये किसी अजनबी मर्द के साथ एक बेडरूम में उसकी बीवी बन के सो लेना तो नार्मल सी बात होगी, इसीलिये फौरन राज़ी हो गई।" वह एकदम से तुनक गई, चेहरे पर क्रोध की रेखाएँ खिंच गईं और आँखें भी सिकुड़ कर छोटी हो गईं— बेख्याली में ही मुट्ठियाँ अलग भिंच गई थीं कि जैसे मार ही बैठेगी और उसकी भाव-भंगिमा देखते आसिफ एकदम से सकपका गया।

"मम-मेरा वो मतलब नहीं था।" उसने फौरन ही खेद जताया।

"फिर क्या मतलब था? ऐसी सिच्युएशन में ऐसे अल्फाज़ का कोई और मतलब भी होता है तो बताइये। मेरी जानकारी में भी इजाफा हो।" अरीबा के अंदाज़ में चुनौती देने वाला पुट आ गया और अनजाने में ही उसके हाथ कोहनियों से मुड़ते कमर पर पहुँच गये।

"आप तो लड़ने के ही मूड में आ गईं… मेरा मतलब कुछ नहीं था। बस इसलिये बोल गया कि मुझे नहीं लगता कोई लड़की ऐसी बात के लिये तैयार हो सकती है।" अरीबा के तेवर देखते वह एकदम नर्वस हो गया।

"क्यों, कोई मर्दों की शौकीन, ठरकी, कैरेक्टरलेस लड़की या कोई प्रास्टीच्यूशन में रत् लड़की भी नहीं तैयार होगी इस तरह रहने के लिये?"

"वह तो हो जायेगी— लेकिन—"

"लेकिन कोई शरीफ लड़की नहीं तैयार होगी, यही न? अब मैं तैयार हूँ तो मुझे फिर ऑबवियसली वही मर्दों की शौकीन, कैरेक्टरलेस, ठरकी, प्रास्टीच्यूट लड़की होना चाहिये? तो यही मतलब तो निकाला न मैंने— कोई और मतलब निकलता हो तो आप बता दो।"

"अच्छा साॅरी माता जी— मुझसे भूल हो गई, मेरा मुँह टूट जाये, मेरे मुँह में कीड़े पड़ें, जो मेरे मुँह से ऐसी कोई बात ग़लती से भी निकल गई।" आसिफ ने बाकायदा दोनों हाथ जोड़ दिये थे और उसकी हालत देखते अरीबा का मूड फौरन चेंज हुआ और उसकी हँसी छूट गई।

"ओके-ओके— हाथ मत जोड़िये, बिना उस फ्लैट में शिफ्ट हुए, हमें लोग यहीं से मियाँ-बीवी समझने लगेंगे। मैं बस इतना कहना चाह रही हूँ कि मेरे पास वक़्त नहीं है और जगहें ढूँढने या और एक्सपेरिमेंट करने का, तो मजबूरी में इस ऑप्शन के लिये राज़ी हुई हूँ कि आप शरीफ़ आदमी हैं, अपने मतलब से मतलब रखेंगे, इस नाटक का कोई ग़लत फायदा नहीं उठाएँगे और इस नाटक के भरोसे हम दोनों की एक्सपेक्टेशन के मुताबिक एक जगह हमें मिल सकती है तो क्यों न ट्राई किया जाये। चल गया तो ठीक— नहीं तो हमें कुछ मोहलत तो मिल ही जायेगी अगले ठिकाने की तलाश के लिये।"

"चलिये ठीक है— जब आप को ही इससे परेशानी नहीं तो मेरे पास ऑब्जेक्शन के लिये क्या बचता है। वैसे वह जगह ठीक है, सड़क से हट के है तो शोर-शराबे और ट्रैफिक से भी दूर है। लोगों की भीड़-भाड़, गाड़ियों के शोर और चौबीस घंटे की हलचल से मन एकदम ऊब गया है तो ऐसी ही जगह चाहता था, मुश्किल यह है कि अंधेरी में नौकरी करता हूँ तो ईस्ट की तरफ़ के किसी दूर-दराज़ इलाके में भी जाना नहीं चाहता था। बहरहाल, मेरे पास फोन नहीं है अभी— दूसरा लेना है लेकिन अभी या फोन से या चाहें तो आप वापसी में अजगर भाई से बात कर लें या मिल लें और हो सके तो एक बार उस फ्लैट की विज़िट करके उन दोनों मियां-बीवी में से जो भी मिले, उससे बात कर लीजिये। मैं अपना सामान ले कर पहुंचता हूँ कल सुबह।"

"अभी क्यों नहीं चलते? कोई काम कर रहे हैं क्या?"

"नहीं तो— अच्छा चलिये, मैं अपने काम पे निकल ही रहा था बस। चलिये फिर, हो लेते हैं। उधर होते हुए मैं निकल जाऊँगा काम पर।" चेहरे से अनिश्चय की स्थिति दिख रही थी, लेकिन शब्दों ने इरादा जताया तो अरीबा को राहत महसूस हुई और वह एक ठंडी साँस ले कर रह गई।


*****

 

पुस्तक लिंक: अमेज़न  (किंडल अनलिमिटेड सब्सक्राइबर बिना किसी अतिरिक्त शुल्क के इसे पढ़ सकते हैं।)


लेखक परिचय

किताब परिचय: सर्वाइवर्स ऑफ द अर्थ - अशफाक अहमद

अशफाक अहमद लेखक, ब्लॉगर और प्रकाशक हैं। वह वर्डस्मिथ, आखरवाणी पत्रिका, लफ़जतराश,परिहास पत्रिका जैसी कई वेबसाईट चलाते हैं। उन्होंने अब तक दस से अधिक पुस्तकें लिखी हैं। वह ग्रेडिआस पब्लिशिंग हाउस नामक प्रकाशन चलाते हैं और प्रतिलिपि जैसे ऑनलाइन प्लैटफॉर्म भी पर भी लिखते हैं।

वन मिसिंग डे, जूनियर जिगोलो, सावरी, आतशी, CRN-=45, द ब्लडी कैसल, गिद्धभोज इत्यादि उनकी कुछ पुस्तकें हैं। 

संपर्क

नोट: 'किताब परिचय' एक बुक जर्नल की एक पहल है जिसके अंतर्गत हम नव प्रकाशित रोचक पुस्तकों से आपका परिचय करवाने का प्रयास करते हैं। 

अगर आप चाहते हैं कि आपकी पुस्तक को भी इस पहल के अंतर्गत फीचर किया जाए तो आप निम्न ईमेल आई डी के माध्यम से हमसे सम्पर्क स्थापित कर सकते हैं:

contactekbookjournal@gmail.com




FTC Disclosure: इस पोस्ट में एफिलिएट लिंक्स मौजूद हैं। अगर आप इन लिंक्स के माध्यम से खरीददारी करते हैं तो एक बुक जर्नल को उसके एवज में छोटा सा कमीशन मिलता है। आपको इसके लिए कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं देना पड़ेगा। ये पैसा साइट के रखरखाव में काम आता है। This post may contain affiliate links. If you buy from these links Ek Book Journal receives a small percentage of your purchase as a commission. You are not charged extra for your purchase. This money is used in maintainence of the website.

Post a Comment

2 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.
  1. अशफाक अहमद जी का उपन्यास 'वन मिसिंग डे' आजकल पढ रहा हूँ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी वन मिसिंग डे पर आपकी टिप्पणी की प्रतीक्षा रहेगी।

      Delete

Top Post Ad

Below Post Ad

चाल पे चाल