नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

शूटआउट इन बर्मा | अनिल मोहन | राजा पॉकेट बुक्स

संस्करण विवरण

फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 284 | प्रकाशक: राजा पॉकेट बुक्स | शृंखला: देवराज चौहान  

पुस्तक लिंक: अमेज़न

शूटआउट इन बर्मा | अनिल मोहन | राजा पॉकेट बुक्स |  Shootout in Burma | Anil Mohan | Raja Pocket Books


कहानी 

वामूल जगवामा बर्मा का एक जाना माना अपराधी था। लोग उसके नाम से काँपते थे और सरकार भी उसके कहने पर चलती थी। बर्मा पर उसका एक छत्र राज चलता था। 

अब हालात ऐसे हो गए थे कि जगमोहन को इसी वामूल जगवामा के घर में घुसकर अपने मिशन को अंजाम देना था। 

लेकिन फिर एक शूटआउट हुआ और सारा खेल ही बिगड़ गया।

अब जगमोहन कैद में था और उसकी जान के लाले पड़ गए थे।  

आखिर जगमोहन को वामूल जगवामा के घर में घुसने की जरूरत क्यों पड़ी?

जगमोहन का मिशन क्या था? देवराज चौहान किधर था और क्या वो जगमोहन को बचा पाया?


मुख्य किरदार

मार्शल - भारतीय खुफिया एजेंसी का अफसर
देवराज चौहान - डकैती मास्टर
जगमोहन - देवराज का साथी
वोमाल जगवामा - बर्मा के सबसे बड़े अपराधिक सिंडिकेट का बॉस
बेवू जगवामा - वोमाल का इकलौता लड़का
मुमरी माहू - वोमाल का खास आदमी
जामास - बर्मा का पुलिस चीफ
विनोद भसीन - मार्शल का एजेंट जो बर्मा में था
सोहन गुप्ता - बर्मा में मार्शल के एजेंटों का इंचार्ज
मोहम्मद रजा मिर्जा - बर्मा में एक एजेंट जो कि वोमाल के संगठन में अपनी जगह बना चुका था
तोंगी - किचन का नौकर
रोशन भसीन - एक एजेंट( पहले विनोद भसीन था और अब 68 में रोशन भसीन हो गया था)
लोएएस - वोमाल की एस्टेट में नौकर
होपिन, ढली , मोक्षी, आदिन - वह लोग जिन्होंने जगमोहन उर्फ बेवु का अपहरण किया था
गाठम - बर्मा के पूर्व के जंगल में रहने वाला अपराधी जो कि अपहरण के धंधे में था
चिकी - गाठम का दायाँ हाथ
ओका समूशा - पुलिस वाले


मेरे विचार


‘शूटआउट इन बर्मा’ (Shootout in Burma) अनिल मोहन (Anil Mohan) द्वारा लिखा गया उपन्यास है जो कि राजा पॉकेट बुक्स (Raja Pocket Books) द्वारा प्रकाशित किया गया था। वैसे तो इस उपन्यास के ऊपर 'देवराज चौहान शृंखला' (Devraj Chauhan Series) दर्ज है लेकिन अगर इस उपन्यास में देवराज नहीं भी होता तो ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। इसमें देवराज एक तरह से अतिथि भूमिका में है। 

उपन्यास की शुरुआत देवराज और जगमोहन को मार्शल द्वारा अपने यहाँ बुलवाने से होती है। मार्शल भारतीय खुफिया संस्था का हेड है और वह कई बार देवराज और जगमोहन को ऐसे खुफिया मिशन पर भेज चुका है जहाँ पर वह अपने एजेंटों को नहीं भेज सकता है। यह मिशन अक्सर भारत के लिए जरूरी होते हैं और इस लिए देवराज चौहान भी ऐसे मिशनों पर जाने से आनाकानी नहीं करता है। 

इस बार भी वह इन्हें एक ऐसे ही मिशन पर भेजना चाहता हैं। यह मिशन बर्मा के कुख्यात अपराधी वोमाल जगवमा के घर में जाकर एक जरूरी जानकारी निकालने का होता है। यहाँ पर ट्विस्ट ये है कि मिशन पर केवल जगमोहन को जाना है। 

यह मिशन बर्मा की धरती पर होना है और उधर जगमोहन भारतीय एजेंटों की मदद से अपने मिशन की तैयारी करता है और जब उन्हें लगता है कि उन्होंने मिशन का पहला पड़ाव प्राप्त कर लिया है तभी पासा पलट जाता है और खेल बदल जाता है। 

जगमोहन जिसे एक महत्वपूर्ण जानकारी का पता लगाना था उसका एक शूटआउट के दौरान अपहरण हो जाता है और फिर बर्मा के दो कुख्यात अपराधी वोमाल जगवामा और गाठम के बीच एक खूनी खेल शुरू हो जाता है। 

जगमोहन को मार्शल द्वारा क्यों चुना गया? वह क्या जानकारी थी जो कि मार्शल को चाहिए थी? गाठम और वोमाल के बीच खूनी खेल क्यों शुरू होता है? जगमोहन की इसमें क्या भूमिका रहती है और देवराज चौहान क्या करता है? यह कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिसके उत्तर आपको उपन्यास पढ़कर पता चलते हैं। 

कथानक की रफ्तार तेज है। एक के बाद एक घटनाएँ घटती हैं और कहानी में ट्विस्ट आता रहता है। कथानक एक तरफ को बढ़ता है तो लेखक एक नई चीज इसमें जोड़ देते हैं जो कि कथानक में रुचि बरकार रखता है। उपन्यास में कुछ जगहों पर डायलॉग्स का दोहराव जरूर है लेकिन ये एक दो पृष्ठों तक ही सीमित है। इसके अलावा कथानक भटकता नहीं है। 

हाँ, अगर आप देवराज चौहान के लिए इस उपन्यास को पढ़ रहे हैं तो आपको थोड़ा निराशा हो सकती है। इसमें देवराज चौहान की काफी कम भूमिका है। ज्यादातर कथानक गाठम और वोमाल जगवामा के बीच की लड़ाई पर केंद्रित रहता है। मुझे लगता है अगर इस उपन्यास में जगमोहन की जगह कोई और किरदार होता और देवराज चौहान नहीं भी होता तो ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। 282 पृष्ठ के उपन्यास में देवराज चौहान 200 पृष्ठ के बाद आता है और उसके बाद भी ज्यादा कुछ करने के लिए उसके पास नहीं रहता है। आखिर में उसका एक फाइट सीक्वेंस है लेकिन वो भी इतना खास नहीं रहता है। ऐसा लगता है चूँकि देवराज चौहान शृंखला का उपन्यास है और पूरे उपन्यास में उसके पास करने को कुछ नहीं था तो उसे आखिर में कुछ करने को दे दिया है ताकि उसके नायक होना औचित्यपूर्ण लगे। 

कहानी के बाकी किरदारों की बात करूँ तो वोमाल जगवामा और गाठम का किरदार अच्छे से रचा गया है। वोमाल जगवामा तेज तर्रार व्यक्ति है जिसका शरीर भले ही काम् नहीं कर पा रहा हो लेकिन उसका दिमाग काम करता है। उसके तेज दिमाग के नमूने कई बार देखने को मिलते हैं। उपन्यास में दूसरा कुख्यात अपराधी गाठम है। वह वोमाल से कम हैसियत रखता है लेकिन उसका अपना रुतबा है। उपन्यास में उसका नाम काफी लिया जाता है लेकिन वह आता आखिर में ही है। उसका इतना रुतबा क्यों है यह उपन्यास में लेखक झलकाने में कामयाब हुए हैं। 

अपराधी कितने भी ताकतवर क्यों न हों लेकिन अगर पुलिस अपने पर आ जाए तो वह क्या क्या कर सकती है यह इस उपन्यास में दर्शाया गया है। रोचक बात ये है कि जब रविवार को मैं ये उपन्यास पढ़ रहा था तो इसके जैसा घटनाक्रम असल में घटित हुआ था। उपन्यास में देवराज चौहान एक अपराधी को मारता है और असल में पुलिस के बीचों बीच एक माफिया की जान कुछ अपराधियों द्वारा ली गई थी। अब क्या उन्हें भी किसी सरकारी संस्था द्वारा वैसे ही भेजा गया था जैसे देवराज को इस उपन्यास में आखिर में भेजा जाता है? यह सवाल ऐसा है जिसका उत्तर शायद ही हमें कभी मिले। हाँ, आम जनता केवल कयास ही लगा सकती है।  

उपन्यास और असल की घटना से यही दिखता है कि व्यक्ति भले ही खुद को कितना ही ताकतवर समझ ले लेकिन शेर को सवा सेर मिल ही जाते हैं।  

उपन्यास की कमी की बात करूँ तो उपन्यास बर्मा में बसाया गया है और लेखक ने किरदारों के उलटे पुलटे नाम जरूर रखें हैं लेकिन वो बर्मी नाम नहीं है। ऐसे ही जगहों के नामों के विषय में भी देखने को मिलता है। अगर लेखक रिसर्च करके नाम बर्मी रखते तो कथानक थोड़ा और यथार्थ के करीब होता और पढ़ते हुए ज्यादा मज़ा आता। 

देवराज के प्रशंसकों के लिए उसकी उपस्थिति उपन्यास में कम होना भी खलेगा। मुझे व्यक्तिगत तौर पर लगता है लेखक अगर उपन्यास को देवराज चौहान शृंखला का न बनाकर एक रोमांचकथा के रूप में लिखते तो बेहतर होता। 

इसके अतिरिक्त आखिर में जिस तरह से उपन्यास का आखिरी हिस्सा घटित होता है वह भी उतना खास नहीं बन पड़ा है। देवराज एक व्यक्ति से लड़कर ही बाजी अपने हाथ में कर लेता है। देवराज को बाजी अपने नाम करने के लिए थोड़ा अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ी और क्लाइमैक्स का स्केल बड़ा होता तो उपन्यास और अच्छा बन सकता था। 

लेकिन असल ज़िंदगी में भी तो बड़े बड़े बाहुबलियों का क्लाइमैक्स इतना नाटकीय कहाँ होता है। फूँक मारते ही  जैसे दीपक की लौ बुझ जाती है वैसे ही पलक झपकते ही बड़े -बड़े बाहुबली धराशाही हो जाते हैं। हाल ही का एक उदाहरण देख लीजिए। इस लिहाज से क्लाइमैक्स यथार्थ के नजदीक ही लगता है। 


अंत में यही कहूँगा कि उपन्यास रोचक है।  उपन्यास में भले ही देवराज का इतना रोल नहीं है लेकिन उसके बिना भी उपन्यास में रोचकता बनी रहती है। इसे एक बार पढ़ा जा सकता है।

पुस्तक लिंक: अमेज़न



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