नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

पुस्तक अंश: खतरे का हथौड़ा


'खतरे का हथौड़ा' लेखक अनिल मोहन की अर्जुन भारद्वाज शृंखला का उपन्यास है। यह उपन्यास राजा पॉकेट बुक्स से प्रकाशित हुआ था। खतरे का हथोड़ा एक लॉकड रूम मर्डर मिस्ट्री जिसमें प्राइवेट जासूस अर्जुन भारद्वाज को सेठ पिशोरीलाल के हत्यारे का पता लगाने का मामला मिलता है। वह यह किस तरह कर पाता है यही उपन्यास का कथानक बनता है।  

आज 'एक बुक जर्नल' पर पढ़िए अनिल मोहन के इसी उपन्यास का एक छोटा सा अंश। उम्मीद है यह पुस्तक-अंश पुस्तक के प्रति आपकी उत्सुकता जगाने का कार्य करेगा। 



लंच के करीब विजय मेहरा करोल बाग स्थित चैम्बर ऑफ जमुना प्रसाद में पहली मंजिल पर सुपर डिटेक्टिव एजेंसी पहुँचा। 

भीतर प्रवेश करने पर रिसेप्शन पर डेस्क पर मौजूद नीना मिली। 

“हैलो।” विजय मेहरा शरीर पर पड़े कीमती कोट को ठीक करते हुए बोला। 

“हैलो।” नीना ने शांत निगाहों से उसे देखा। 

“जासूस साहब से मिलना था।”

“जासूस साहब से?”नीना ने उसके शब्दों को दोहराया- “मिस्टर अर्जुन भारद्वाज से?”

“व... वही।” विजय मेहरा मुस्कराया। 

“मिस्टर भारद्वाज अपने ऑफिस में नहीं हैं। अभी आने वाले हैं।”

“कहीं दूर गए हैं क्या?”

“नहीं, पास ही में। लंच करने गए हैं।”

“ओह लंच करने...। आपको साथ नहीं लेकर गए क्या?”

नीना ने विजय मेहरा को घूरा फिर एकाएक मुस्करा पड़ी। 

“नहीं। वे मुझे लेकर कभी नहीं जाते।”

“यह तो बहुत गलत बात है।” विनय मेहरा ने सहानुभूति दर्शाई- “क्यों नहीं लेकर जाते?”

“कहते हैं मैं खूबसूरत नहीं हूँ।” नीना मुँह लटकाकर बोली। 

“आप खूबसूरत नहीं हैं।” विजय मेहरा की आवाज ऊँची हो गई - “कौन कहता है। वह जासूस तो मुझे पागल लगता है। मेरे पिता द्वारा की गयी आत्महत्या को जबरदस्ती ही हत्या साबित करने की चेष्टा कर रहा है। मैं सब देख रहा हूँ उसके तमाशे।” अगले ही पल विजय मेहरा की आवाज धीमी हो गई। - “मेरी निगाहों से पूछिए आप कितनी खूबसूरत हैं।” 

“सच?”

“हाँ।” विजय मेहरा ने मोहब्बत भरे स्वर में कहा - “आप मेरे साथ चलिए।  हम एक साथ लंच करेंगे।”

“ओह, आप कितने अच्छे हैं।” नीना जैसे खुशी से नाच उठी-” मेरे पहले तीनों पतियों ने मुझे इसी प्रकार लंच के लिए इन्वाइट किया था और फिर शादी हो गई।”

“अ... आप शादीशुदा हैं। त...तीन पति...!”

“चिंता मत कीजिए। तीनों को तलाक दे चुकी हूँ। सिर्फ साढ़े तीन बच्चों की माँ हूँ और...।”

"साढ़े तीन ब... बच्चे... ?" विजय मेहरा तुंरत एक कदम पीछे हट गया।  

“जी हाँ। चौथा यहाँ मेरे पेट में है न! मैं सोच रही थी कि किसे  इसका बाप कहूँ। अच्छा हुआ जो आप मिल गए। चलिए ना, लंच पर चलते हैं, उसके बाद...।”

“उसके बाद?” विजय मेहरा के चेहरे पर ऐसे भाव थे, जैसे उसने खामखाह ही मुसीबत गले में अटका ली हो। 

“उसके भविष्य का प्रोग्राम तय करेंगे कि कैसे हमने बच्चों की परवरिश...।”

“देखिए...।” विजय मेहरा सकपकाया-सा कह उठा - “दरअसल बात यह है कि आज मैं लंच करके आया हूँ।”

“लेकिन...” नीना ने कुछ  कहना चाहा कि उसकी साँस जैसे गले में ही अटक गई हो। 

दरवाजा खोले अर्जुन भारद्वाज कहरभरी निगाहों से उसे देख रहा था। 

अर्जुन को देखते ही विजय मेहरा के होंठों से गहरी साँस निकली। 

“ओह आप आ गए जासूस साहब! विजय मेहरा जल्दी से बोला।”

अर्जुन भारद्वाज भीतर आया और मुस्कराकर नीना से बोला - “मैं जल्दी ही तुम्हारे लिए चौथे पति का इंतजाम कर दूँगा।”

“ज... जी सर, व... वो।”

अर्जुन भारद्वाज आगे बढ़ा और दरवाजा खोलकर अपने केबिन में प्रवेश कर गया। विजय मेहरा उसके पीछे था। अर्जुन अपनी कुर्सी पर बैठता हुआ बोला - “बैठो।”

“थैंक्यू!” विजय मेहरा बैठता हुआ बोला। 

“कैसे आए?”

“जासूस साहब!” विजय मेहरा जल्दी से बोला - “जैसा कि आपने कहा था, जयपाल से उसकी बीती जिंदगी के बारे में जानूँ। क... कल शाम मैंने उसे शराब पिलाकर जानने की...”

“वह बोला कुछ?”

“हाँ,  बोला तो, लेकिन उसकी बातें म... मेरी समझ से बाहर हैं।”

“तुम बातें बोलो विजय, समझ मैं अपनी इस्तेमाल कर लूँगा।” अर्जुन ने गहरी निगाहों से उसे देखा। 

विजय मेहरा ने कल श्याम जयपाल के साथ हुई सारी बातचीत बता दी। 

सुनकर अर्जुन भारद्वाज की आँखें सिकुड़ गईं। 

“राना सूरजभान...?” अर्जुन ने विचार भरी निगाहों से विजय मेहरा को देखा। 

विजय मेहरा ने सिर हिलाया। 

“यह नहीं मालूम किया कि वह कौन है। कहाँ रहता है?”

“नहीं। यह मालूम करने से पहले ही उसकी घंटी बज गई थी और दोबारा उठाकर पूछने से गड़बड़ हो सकती थी, क्योंकि आज सुबह ही उसे शक-सा हो गया था कि जैसे वह रात को कुछ बक गया है।”

“तो उसने कहा कि उसे इस सारे खेल में से पाँच-सात लाख ही मिलेगा।”

“हाँ।”

“और दिव्या को बीस-पच्चीस, बाकी का वह राना सूरजभान ले जाएगा।”

“जी हाँ, लेकिन मैं इन बातों का मतलब समझ नहीं पाया।”

अर्जुन भारद्वाज के होंठ सिकुड़े पड़े थे। 

“मैं कुछ-कुछ समझ रहा हूँ विजय...।”

“क्या?”

“रहने दो। तुम सिर्फ जयपाल के साथ लगे रहो। अगर उसके मुँह से कोई और बात निकलती है तो उस पर ध्यान दो। बाकी का मामला मैं देखूँगा।” अर्जुन ने सोच भरे स्वर में कहा। 

“लेकिन कुछ मुझे भी तो पता चले कि...”

“प्लीज, अप इस बात की तरफ सोचिए भी मत जो आपसे वास्ता नहीं रखती।”

विजय मेहरा गहरी साँस लेकर रह गया। 

“तो आप उस बात का ही जवाब दे दीजिए, जो मुझसे ताल्लुक रखती है।” विजय मेहरा बोला। 

“क्या?”

“शर्त का लाख रुपया, मेरे पल्ले पड़ेगा या मेरे पल्ले से निकलेगा?”

अर्जुन  भारद्वाज के होंठों पर अजीब-सी मुस्कान उभरी। 

“अगर जयपाल की नियत तुम्हें लाख रुपये देने की होगी तो तुम्हारे पल्ले पड़ेगा। शर्त तुम जीते हुए हो।”

“तो फिर देर किस बात की... आप...।”

“मैं पहले भी कह चुका हूँ कि जब तक सबूत हाथ में नहीं आते, तब तक  मैं किसी को कुछ नहीं सकता।...”


******

तो यह था अर्जुन भारद्वाज शृंखला के उपन्यास 'खतरे का हथौड़ा' का एक छोटा सा अंश। उम्मीद है यह अंश पुस्तक के प्रति आपकी उत्सुकता जागृत करने में कामयाब हुआ होगा। 

आपको यह अंश कैसा लगा हमें बताना न भूलिएगा। 

लेखक अनिल मोहन के उपन्यास अमेज़न पर उपलब्ध हैं। उन्हें निम्न लिंक पर जाकर खरीद सकते हैं:

अनिल मोहन

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