नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

नंदित नरक में - हुमायूँ अहमद

उपन्यास 28 अक्टूबर 2019 के बीच पढ़ा गया

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 72 | प्रकाशन: अंतिका प्रकाशन | आईएसबीएन: 9789380044743 | अनुवाद: रामलोचन ठाकुर

नंदित नरक में - हुमायूँ अहमद
नंदित नरक में - हुमायूँ अहमद

पहला वाक्य:
रबेया लगातर एक ही बात दुहरा रही थी।

कहानी
हुमायूँ एक निम्न वर्गीय परिवार से आता है। वह अभी अपनी पढ़ाई के आखिरी साल में हैं। घर में कमाने वाले केवल पिताजी हैं और खाने वाले काफी तो इस कारण कई आभावों से उन्हें गुजरना पड़ता है।

वह चाहता है पढ़ाई खत्म करते ही उसकी नौकरी लगे और वह अपनी स्थिति में कुछ सुधार ला सके। इस कारण वह कड़ी मेहनत भी कर रहा है। घर में उसकी बड़ी बहन रेबया, छोटी बहन रुनु और सौतेला भाई मंटू है। इस परिवार के साथ शरीफ आकंद उर्फ़ मास्टर काका भी रहते हैं।

कई आभावों से गुजरते हुए वो लोग अभी तक खुश हैं। कहा जाए तो नर्क में रहते हुए भी आनन्दित हैं। पर इस साल इस परिवार के साथ ऐसी घटनाएं घटती हैं कि दुखो का पहाड़ इन पर टूट पड़ता है?

इन्हीं घटनाओं को यह लघु उपन्यास दर्शाता है।

आखिर कौन सी घटना इस परिवार के साथ घटती है? यह परिवार उससे उभरने के लिए क्या करता है? और इस परिवार को इस संघर्ष में क्या खोना पड़ता है? यही सब इस उपन्यास की विषय वस्तु है और आप इसे उपन्यास को पढ़कर जान पाएंगे।

मुख्य किरदार:
हुमायूँ - एक युवक 
रबेया -हुमायूँ की बड़ी बहन 
रुनु - हुमायूँ की छोटी बहन 
शहाना - हुमायूँ की माँ 
मंटू - हुमायूँ का छोटा भाई 
हारुन - हुमायूँ के पड़ोस में रहने वाला एक युवक जो अपने परिवार के साथ शांति कॉटेज में रहा करता था 
नाहर - हारून की पत्नी 
शीला - शांति कॉटेज में रहने वाले लोगों की बेटी जो कि रुनु की उम्र की है 
शरीफ आकंद उर्फ़ मास्टर काका - हुमायूँ के घर में रहने वाले उसके पिता के दोस्त 
मेरे विचार

नंदित नरक में हुमायूँ अहमद जी  का पहला उपन्यास था।  यह पहली बार 1972 में प्रकाशित हुआ था। हुमायूँ अहमद बांग्लादेशी उपन्यासकार, फ़िल्मकार हैं जो कि जितना अपनी फिल्मों के लिए जाने जाते हैं उतना ही अपने उपन्यासों के लिए भी मशहूर हैं।

उपन्यास मूलतः बांग्ला भाषा में लिखा गया था। हिन्दी में इसका अनुवाद रामलोचन ठाकुर जी ने किया है। अनुवाद बेहतरीन हुआ है। हिन्दी में भी उपन्यास की भाषा काव्यात्मक है और इससे मैं अंदाजा लगा सकता हूँ कि अनुवाद में मेहनत हुई है। कहीं भी कुछ अटपटा नहीं लगता है। कई जगह बांग्ला शब्दों का ही प्रयोग है। उनके विषय में फुटनोट (पृष्ठ के नीचे) में देते तो शायद अच्छा होता।

उदाहरण के लिए बांग्ला में बच्चे को खोका कहते हैं लेकिन मुझे नहीं पता था तो मैं कुछ देर तक नायक का नाम खोका ही समझ रहा था। इसका अनुवाद में इस्तेमाल करने में बुराई नहीं है बस इसका अर्थ बता देना चहिये था। ऐसे ही एक जगह पजामे के लिए पंजाबी शब्द इस्तेमाल किया है। मेरे पश्चिम बंगाल में रहने वाले मित्र ने एक बार मुझे बताया था कि बांग्ला में पंजाबी पजामे को कहते हैं इसलिए मुझे तो वाक्य का अर्थ समझ आ गया लेकिन अगर कोई बांग्ला नहीं जानता होगा तो उसे थोड़ी दिक्कत होगी। इसलिए इस शब्द का अर्थ दे देते तो अच्छा रहता। ये दो शब्द ही मेरे नजरों से गुजरे थे तो उनके विषय में लिख दिया। इसके अलवा अनुवाद में ऐसा मुझे तो नहीं लगता कुछ है कि जो और बेहतर किया जा सकता था। इसलिए रामलोचन ठाकुर साहब बधाई के हकदार हैं।

उपन्यास का बांग्ला शीर्षक 'नोंदितो नोरोके' है जिसमे नोंदितो आनन्दित का संक्षिप्तिकरण करके किया है। उपन्यास के अनुवाद करने में इस संक्षिप्तिकरण को बरकार रखा गया है। लेकिन इससे थोड़ा संशय की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। उपन्यास खत्म करने के दौरान मैं समझ रहा था कि इसमें कोई नंदित आएगा जो कि नरक में है। पहले मुझे लगा कि मुख्य किरदार का नाम नंदित है जो कि अपनी नारकीय स्थिति के विषय में बता रहा है लेकिन फिर आगे चलकर पता चला कि उसका नाम तो हुमायूँ है। इसलिए शीर्षक को लेकर एक संशय की स्थिति बनी रही। बाद में साहित्य आजतक नाम एक इवेंट में  गया था तो उधर एक परिचित से इस शीर्षक के ऊपर बात की। उन्होंने भी पहले नंदित किसी किरदार के होने की बात की लेकिन फिर मैंने बांग्ला शीर्षक उन्हें बताया और ये भी बताया कि इसमें नंदित नाम का कोई किरदार नहीं है और कहानी एक निम्न वर्गीय परिवार की है तो उनके दिमाग में इस संक्षिप्तीकरण की बात आई। फिर आगे चलकर इसका अंग्रेजी शीर्षक देखा तो यह बात पुख्ता हो गयी। इतनी राम कहानी लगाने का मेरा ध्येय रह है कि शीर्षक में नंदित की जगह आनन्दित होता तो बेहतर न होता। वह कथानक के साथ न्याय करता प्रतीत होता और मुझे ऐसी उलझन का सामना भी नहीं करना पड़ता। आपका इस विषय में क्या ख्याल है? अपने विचार जरूर दीजियेगा।


उपन्यास के कथानक की बात करूँ तो प्रस्तुत उपन्यास हुमायूँ की कहानी है। हुमायूँ एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार का सबसे बड़ा लड़का है जो कि पढ़ाई के अंतिम वर्ष में है और नौकरी की चाह रखता है। उसे अपने ऊपर मौजूद जिम्मेदारियों का अहसास है और उसे पता है अगर उसको अपने परिवार की डगमगाती आर्थिक स्थिति को सम्बल देना है तो उसे एक अच्छी नौकरी हासिल करनी ही होगी।  इसका दबाव वह महसूस करता है।

हुमायूँ के अलावा उसके परिवार में एक बड़ी बहन रेबया है जो कि मानसिक रूप से दिव्यांग है। एक छोटी बहन रुनु है और एक छोटा सौतेला भाई है। उसका भाई उसके पिताजी की पहली पत्नी का बेटा है। यह एक आम परिवार है जो एक व्यक्ति की आय में अपने जीवन को किसी तरह काट रहा है।  हुमायूँ के माता पिता कितनी कठिनाई से अपने बच्चों का भरण पोषण कर रहे हैं यह उपन्यास में गाहे बगाहे चित्रित दिख जाता है।  पूरा उपन्यास परिवार की दारुण स्थिति का विवरण करता है। यह स्थितियां विभिन्न परिस्थितियों से उपजती हैं। कभी बहन की मानसिक हालत और कभी इनकी लचर आर्थिक स्थिति के कारण उपजी परिस्थितियों से ये लोग गुजरते हैं वही इस उपन्यास में दिखता है। उनकी आर्थिक स्थिति तब और ज्यादा उजागर होती है जब उनके बगल में एक परिवार रहने आता है जिसके सदस्यों से इस परिवार के दोस्ताना रिश्ते बनते तो हैं लेकिन एक अमीरी और गरीबी की दीवार हमेशा से इनके बीच रहती है। यह ऐसी दीवार है जिसे चाहकर भी ये नहीं तोड़ सकते हैं। इस बात का एहसास उपन्यास में उन्हें होता रहता है।

उपन्यास में एक किरदार शरीफ आकंद उर्फ़ मास्टर काका का भी है। यह नायक के पिता का मित्र है और काफी वर्षों से उनके साथ रह रहा है। इस किरदार के विषय में पढ़ते हुए मुझे ब्योमकेश के अजित की याद आई। तब मैं यही सोच रहा था कि क्या उधर अक्सर ऐसा होता है कि कोई पुरुष जीवन भर शादी नहीं करता और अपने दोस्त के परिवार के साथ ही रहने लगता है। अगर ऐसा होता है तो क्यों? या यह इक्का दुक्का मामला ही है। क्योंकि यह उपन्यास हुमायूँ की दृष्टि से लिखा गया है तो मास्टर काका के विषय में मुझे उतना ही पता लगता है जितना कि हुमायूँ बताता है लेकिन मुझे इनकी कहानी रोचक लगी थी। अगर इनके दृष्टिकोण से भी उपन्यास का कुछ भाग होता तो मुझे लगता है कि उपन्यास और बेहतर बन सकता था। क्योंकि फिर उपन्यास का जो मुख्य घटनाक्रम है जिसके कारण परिवार तबाह होता है उसे  समझने में ज्यादा आसानी होती। वैसे क्या बांग्ला में ऐसा कोई उपन्यास लिखा गया है जिसमें मास्टर काका जैसा कोई अविवाहित पुरुष हो जो अपने दोस्त के परिवार के साथ रहता हो और वह अपनी दृष्टिकोण से उस परिवार की कहानी सुना रहा हो। ब्योमकेश तो है ही उसके अलवा आपको मालूम हो तो बताइयेगा।

उपन्यास में एक घटना ऐसी है कि वह दिल तोड़ देती है। आपको एहसास दिलाती है कि इनसान से बड़ा जानवर इस दुनिया में कोई नहीं है। अपने इच्छाओं की पूर्ती के लिए वह किसी भी मासूम को उस आहुति में डाल सकता है। ऐसी घटनाएं हम अखबार में पढ़ते हैं और उसके जिम्मेदार खुद के विकारों को न ठहराकर दूसरी चीजो पर थोपने की कोशिश करते हैं। कभी किसी संस्कृति को दोष देते हैं तो कभी तकनीक को लेकिन भूल जाते हैं कि यह विकार आदमी के मन में सदियों से हैं और वह सदियों से इनके चलते शोषण करता आ रहा है। मन दुखी हो जाता है। जब किसी नासमझ के साथ ऐसा होता है तो दुःख कई गुना बढ़ जाता है क्योंकि उस मासूम को तो पता भी नहीं होता कि उसके आस पास के लोग ऐसी प्रतिक्रिया क्यों दे रहे हैं। और ऐसा नहीं है कि ऐसे शोषण की घटनाएं केवल निम्न वर्गीय जगहों में ही होती हैं। उच्च वर्गीय और मध्यमवर्गीय जगहों और परिवारों में भी ऐसे पिशाच मौजूद हैं। इससे ज्यादा मैं कुछ कहूँगा तो शायद कहानी खुल जाये। इसे भी नहीं लिखना चाहता था लेकिन लिखे बिना रह भी न सका।

उपन्यास के मुख्य किरदार का नाम लेखक ने अपने नाम पर ही रखा है तो पढ़ते हुए मैं कई बार सोच रहा था कि कहीं यह उनकी अपनी कहानी तो नहीं है। क्या पता? विकिपीडिया से तो ऐसा कुछ पता नहीं लगा। हाँ, उपन्यास उन्होंने जिस वर्ष लिखा था उसी दौरान उनके पिता की हत्या हुई थी और वो उस वक्त विश्वविद्यालय में थे तो शायद इस कारण इस उपन्यास में दुःख की इतनी भरमार है। लेकिन ये मेरे कयास ही हैं।  मुझे यकीन है उन्होंने इस उपन्यास की रचना प्रक्रिया के विषय में कुछ न कुछ कहा होगा जो कि मैं आगे ढूँढूँगा। अगर आपको कुछ पता हो तो जरूर बताइयेगा।

उपन्यास की भाषा के विषय पर भी मैं कुछ कहना चाहूँगा। 'नंदित नरक में' की भाषा काव्यात्मक है जिसे पढने में आनंद आता है। हाँ, उपन्यास की भाषा कभी भी कथ्य को अवरोधित नहीं करती है। यह कथ्य के पढ़ने के अनुभव को और बेहतर करती है वरना कई बार गम्भीर साहित्य के लेखक भाषा की काव्यात्मकता पर इतना ध्यान देते हैं कि वह चीज सुंदर तो होती है लेकिन बेमतलब होती है। वह ऐसा होता है कि कहानी से उतना हिस्सा हटा भी दो तो कहानी पर फर्क नहीं पड़ेगा और क्योंकि वो कहानी में है तो पाठक सिर खुजलाता रहता है कि यह कहना क्या चाह रहा है। ऐसा कुछ इधर देखने को नहीं मिलता है।


इस उपन्यास को जब मैंने खरीदने की ठानी थी तब न जाने क्यों मुझे ऐसा लगा था जैसे यह सामाजिक उपन्यास न होकर एक हॉरर उपन्यास था। शायद मैंने कहीं पढा था कि हुमायूँ अहमद जी ने काफी अच्छे हॉरर उपन्यास लिखे हैं और तब मैंने यह मान ही लिया था कि यह भी इसी शैली का होगा। फिर इसका कवर भी ऐसा था कि मुझे लगा यह किसी परालौकिक घटना से सम्बन्ध रखता होगा। मुझे याद है मैंने यह उपन्यास 2018 में हुए नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेले (इधर क्लिक करके आप मेरी उस वक्त की घुमक्कड़ी का वृत्तांत पढ़ सकते हैं) से लिया था और जब वहाँ मौजूद व्यक्ति से मैंने कहा था कि हुमायूँ जी ने अच्छे हॉरर उपन्यास लिखे हैं और आप उनके लिखे उपन्यासों का अनुवाद कर के अच्छा काम कर रहे है तो वह गम्भीर साहित्य के प्रकाशन से जुड़े व्यक्ति एक बार के लिए अचकचा गए थे। खैर, इतना सब बताने का तातपर्य यह है कि मैंने इस उपन्यास को पढ़ना शुरू हॉरर उपन्यास मानकर ही किया था लेकिन मुझे पता नहीं था कि यह असल जीवन के हॉरर को इस तरह दर्शायेगा। मुझे उम्मीद है अंतिका प्रकाशन हुमायूँ अहमद जी के दूसरे उपन्यासों को हिन्दी में अनूदित करवाकर हम पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करेगा।

अंत में यही कहूँगा कि निम्न वर्ग के संघर्ष को दर्शाते इस उपन्यास ने  मुझको अंत तक बाँधे रखा। कहानी के किरदारों से मैंने जुड़ाव महसूस किया। मैंने उनके दुःख में दुःख का अनुभव किया, उनकी सुख की चाह को मैंने  अपनी सुख की चाह बना ली। उपन्यास की अंतिम पंक्तियाँ निम्न हैं:

सुबह होती जा रही है। चाँद डूब चुका है। विस्तृत मैदान के ऊपर चादर-सी फैली उदास चाँदनी अब नहीं है।


और इन पंक्तियों को पढ़ते हुए मैं केवल यही आशा कर रहा था कि यह सुबह इस परिवार के लिए भी एक नई सुबह लेकर आये और यह अपने दुखो से उभर कर एक सुखमय जीवन बिताये।

उपन्यास के कुछ अंश जो मुझे पसंद आये:

रूनू बड़ी भली लड़की है। इतनी अच्छी भली कि कभी कभी मुझे कष्ट होता है। पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि ऐसी लड़कियाँ जीवन में सुखी नहीं हो पातीं।

रेबया बोली,"माँ, मुझे दूध चाहिए।"

कल रात माँ को बुखार आया था। उसका मुँह सूखकर छोटा हो गया था। रेबया की बात सुनकर वह और छोटा हो गया। वह छोटी बच्ची लगने लगी। मुझे है कि हम में से कोई जब किसी चीज की जिद करते हैं और माँ उसे पूरा नहीं कर पाती, तब इसी तरह उनका मुँह सूखकर नन्ही बच्ची की तरह लगने लगता है।

पीढ़ियों से सुखी सम्पन्न परिवार की सन्ततियों के चेहरे पर एक अलग तरह का लालित्य नजर आता है शायद! सोचते हुए भी अच्छा लगता है कि इस परिवार में कोई कष्ट नहीं है। इस परिवार की माँ को महीने की पन्द्रह तारीख के बाद खर्च घटाने और घर चलाने के लिए प्राणपण चेष्टा नहीं करनी पड़ती।

लड़को से पहले ही लड़कियों की मानसिक परिपक्वता शुरू होती है। वे अपनी बचकानी आँखों से भी धरती की बुराईयाँ देख सकती हैं। इन बुराइयों का शिकार ज्यादातर वे ही होती हैं। शायद इसीलिए अँधेरे की सूचना सबसे पहले प्रकृति इन्हें ही देती हैं।

रुनु प्रश्न करती है "मरने के बाद क्या होता है दादा?"

मैं कोई उत्तर नहीं देता। मन ही मन कहता हूँ, कुछ नहीं होता। सब शेष हो जाता है। कितनी ही असंबद्ध बातें याद आती हैं।

रेटिंग : 3.5/5

अगर आपने इस उपन्यास को पढ़ा है तो आपको यह कैसी लगी? अपने विचारों से मुझे अवगत करवाईयेगा।
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©विकास नैनवाल 'अंजान'


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4 Comments
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  1. बहुत बढ़िया पोस्ट । यह उपन्यास मिला कहीं तो जरूर पढ़ना चाहूंगी ।

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    1. जी, शुक्रिया मैम।  इसकी हार्ड कवर का लिंक तो पोस्ट में दिया है। अमेज़न पर इसे जाकर आप मँगवा सकती हैं। पेपरबैक भी शायद उधर उपलब्ध हो। 

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