नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

कवि बौड़म डकैतों के चंगुल में - अरविन्द कुमार साहू

रेटिंग: 2/5
किताब अक्टूबर 13, 2018 से अक्टूबर 14, 2018 के बीच पढ़ी गई

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक
पृष्ठ संख्या:88
प्रकाशक: सूरज पॉकेट बुक्स
आईएसबीएन:9788193566190

कवि बौड़म डकैतों के चंगुल में - अरविन्द कुमार साहू
कवि बौड़म डकैतों के चंगुल में - अरविन्द कुमार साहू

पहला वाक्य:
उन दिनों डकैतों के मामले में चम्बल घाटी अपने चरम पर थी और बकैतों के मामले में कवि बौड़म अपने चरम पर था।

डाकू खूँखार सिंह की तम्मना है कि दीपावली को बड़ी धूम धाम से मनाये। उसे अपनी ईष्ट देवी चढ़घोटनी माई को प्रसाद चढ़ाना है। अपने साथी डकैतों को मालपुए खिलवाने हैं और दोनों हाथों से पैसा लुटाना है। पर यह सब करने के लिए धन चाहिए और धन के लिए 'पकड़'। जब पकड़ मिलेगी तो उसकी फिरौती माँगी जाएगी और जब फिरौती आएगी तो वह सब कुछ होगा जिसकी इच्छा खूँखार सिंह को है। इसी इच्छा की पूर्ती के लिए वह अपने आदमियों की टोली को शहर भेजता है ताकि कुछ हासिल हो सके।

वहीं दूसरी ओर कवि बौड़म भी परेशान है। कवि सम्मेलनों के सभी आयोजक उसको समझ चुके है और इतने होशियार हो चुके हैं कि कवि बौड़म को पता भी नहीं लगने देते और सम्मेलन का आयोजन कर देते हैं। यही कारण है कि कवि बौड़म की हालत भी पतली है। दीपावली तो उसकी भी आ रही है। और उसे भी ऐसी किसी अवसर की तलाश है जिससे उसकी कुछ कमाई हो सके।

और फिर कुछ ऐसा होता है कवि बौड़म खुद को डकैतों की टोली की गिरफ्त में पाता है।

आखिर कवि बौड़म डकैतों के चंगुल में कैसे फँसा? क्या कवि बच पाया? क्या डाकू खूँखार सिंह की इच्छा पूरी हुई?

ऐसे ही प्रश्नों का उत्तर आपको इस लघु उपन्यास को पढ़कर मिलेगा।


मुख्य किरदार:
खूँखार सिंह - चम्बल का डाकू 
जोहार सिंह - खूँखार सिंह का दाहिना हाथ 
चोरवा,सेंधमरवा, झपटमरवा - खूँखार सिंह के साथी 
कवि बौड़म- एक कवि जिसने सबकी नाक में दम किया हुआ था

यह अरविन्द साहू जी की पहली कृति थी जो मैंने पढ़ी। कृति के विषय में यही कहूँगा कि एक आध जगह मुझे हँसी आई थी। मैं मेट्रो में था और  एक दो प्रसंगों जैसे जब डाकुओं का सरदार अपने साथियों के आने की खबर पाकर उनसे मिलने जाता है और जब  डाकुओं को लगता है वो भूत से बातचीत कर रहे हैं, को पढ़कर मेरी हँसी बेसाख्ता छूट गई थी और काफी देर तक हँसता रहा।

लेकिन उपन्यास का ज्यादातर हिस्सा पढ़ते हुए मुझे  लगा जैसे मैं इसके लिए सही पाठक नहीं हूँ। अलग अलग तरह के लोगों को अलग अलग चीजों पर हँसी आती है और उस हिसाब से वो कृतियों का आनन्द लेते हैं। मुझे यह उपन्यास पढ़ते हुए लगा कि उपन्यास में प्रयुक्त हास्य के तत्व  ऐसे नहीं थे जिसका मैं आनन्द ले पाता। मुझे यह भी लगा कि कवि बौड़म काफी देर में नज़र आया। उसके विषय में तो हमे शुरुआत में पता चल जाता है लेकिन उसकी हरकतें आधा उपन्यास गुजरने के पश्चात देखने को मिलती है। ऐसे में चूँकि मुझे कवि बौड़म के विषय में पहले जानकारी नहीं थी तो कहानी में अधूरापन लगा। अगर शुराआत में कवि बौड़म की हरकतों के किस्से सुनाने के बजाय उसे वह हरकतें  करते हुए ही दिखलाया जाता तो शायद मुझे ज्यादा पसंद आता।

आखिर में यही कहूँगा कि अरविन्द जी कि  दूसरी रचनाएं मैं जरूर पढ़ना चाहूँगा। इस उपन्यास का मैं आनन्द नहीं  उठा पाया।  हास्य में अक्सर यही होता है। या तो आपको हँसी आती है या नहीं आती है। यही मेरे साथ हुआ। शायद मैं इसके लिए उपयुक्त पाठक नहीं हूँ।  हो सकता है आपका अनुभव कुछ और हो।

अगर आपने इस किताब को पढ़ा है तो आपको यह कैसी लगी? अपने विचार आप कमेन्ट के माध्यम से जरूर दीजियेगा।

अगर आप यह किताब मँगवाना चाहते हैं तो इसे निम्न लिंक के माध्यम से मँगवा सकते हैं:
पेपरबैक
किंडल



FTC Disclosure: इस पोस्ट में एफिलिएट लिंक्स मौजूद हैं। अगर आप इन लिंक्स के माध्यम से खरीददारी करते हैं तो एक बुक जर्नल को उसके एवज में छोटा सा कमीशन मिलता है। आपको इसके लिए कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं देना पड़ेगा। ये पैसा साइट के रखरखाव में काम आता है। This post may contain affiliate links. If you buy from these links Ek Book Journal receives a small percentage of your purchase as a commission. You are not charged extra for your purchase. This money is used in maintainence of the website.

Post a Comment

2 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.

Top Post Ad

Below Post Ad

चाल पे चाल