लेखक का काम बड़े जोखिम का है। मैं समझता हूँ, इस किताब में मैं उसे कहीं नहीं भूला हूँ।
न भाषा का शिकंजा है, न भाव का। दोनों किसी कोड के नियम में बँधकर नहीं रह सकते। जिसे बढ़ाना है, वैसी कोई भी चीज शिकंजे में कसी नहीं रह सकती। शिकंजे में कस दोगे तो वह नहीं बढ़ेगी, लुंज रह जाएगी। हम उसी को सुन्दरता मानने लग जाएँ तो बात दूसरी, पर दुनिया की स्पर्धा और दौड़ में वह कहीं की नहीं रह सकती, जैसे चीनी स्त्रियों के पैर। हिन्दी भाषा-भाषियों और भाषा-लेखकों को यह सत्य, पूरे हर्ष से और बिना ईर्ष्या के मान लेना और अपना लेना चाहिए। भाषा और दुनिया का हित इसी में है।
- जैनेन्द्र कुमार, लघु-उपन्यास परख की भूमिका से
बिल्कुल सत्य और सटीक।
ReplyDeleteजी आभार...
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