उनके भारी दरवाजों की दरारों से घायल लोकगीत रह-रहकर निकलते और राजधानी के आधुनिक बाजारों में बेमकसद भटकते रहते। ज्यादातर ट्रैफिक में गाड़ियों के टायरों के नीचे आकर कुचलकर या धुएं से मर जाते। कुछ बेहद कोमल थे जो सड़कों के किनारे ठिठके खड़े रहते, कभी कभार लोग उन्हें अपने साथ उठाकर भी ले जाते थे।
- अनिल यादव, लोककवि का बिरहा
किताब निम्न लिंक से मँगवाया जा सकता है:
नगरवधुएं अखबार नहीं पढ़ती हैं
No comments:
Post a Comment