नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

फरेब - अमित श्रीवास्तव

उपन्यास 29 अगस्त 2019 से सितम्बर 2, 2019 के बीच पढ़ा गया

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट : पेपरबैक
-पृष्ठ संख्या : 191
प्रकाशक : सूरज पॉकेट बुक्स
आईएसबीएन: 9788193584521
मूल्य : 150 रूपये


फरेब - अमित श्रीवास्तव
फरेब - अमित श्रीवास्तव 

पहला वाक्य:
माउंट आबू, राजस्थान का एक बहुत ही खूबसूरत हिल स्टेशन।

कहानी:
सुमित अवस्थी का खून हुए काफी वक्त बीत चुका था लेकिन पुलिस को उसके कत्ल के सिलसिले में कोई सुराग नहीं मिला था। थाना प्रभारी किशोर सिंह भाटी के ऊपर इस मामले को सुलझाने का दबाव बढता ही जा रहा था क्योंकि सुमित अवस्थी राज्य के स्वास्थ्य मंत्री का बेटा था।

वहीं एक और विचित्र मामला थाना प्रभारी किशोर सिंह भाटी और इंस्पेक्टर निरंजन सिंह के सामने आ गया था। चन्द्रेश मल्होत्रा माउंट आबू का एक बड़ा व्यापारी था। उसका कहना था कि उसके घर में कोई लड़की उसकी पत्नी वंशिका का नाम लेकर जबरदस्ती रहने आ गयी थी। चन्द्रेश की माने तो उसके घर में जो लड़की आई थी वो एक बहरूपिया थी वहीं पुलिस के तहकीकात से यह बात साबित हो रही थी कि वह लड़की ही वंशिका थी।

ये दो जुदा से दिखने वाले मामलों ने माउंट आबू की पुलिस को परेशान कर दिया था। लेकिन क्या ये दो मामले वाकई अलग थे या इनके तार आपस में जुड़े थे?

क्या थाना प्रभारी किशोर सिंह भाटी और इंस्पेक्टर निरंजन इन मामले को सुलझा पाए?
आखिर चन्द्रेश के घर में आने वाली लड़की कौन थी? आखिर मंत्री जी के लड़के का खून किसने किया था?

ऐसे कई प्रश्नों का उत्तर आपको इस उपन्यास को पढ़कर मिलेगा।


मुख्य किरदार:
सुन्दरलाल अवस्थी - स्वास्थ्य मंत्री
सुमित अवस्थी - सुन्दरलाल अवस्थी का पुत्र
चन्द्रेश मल्होत्रा  - माउंट आबू का एक व्यापारी
वंशिका मल्होत्रा - चन्द्रेश की पत्नी
निरंजन - पुलिस सब इंस्पेक्टर
विमल - एक रेलवे कर्मचारी
किशोर सिंह भाटी - माउंट आबू का थानाधिकारी
राम सेवक- पुलिस का हवलदार
शंकर दयाल -पुलिस का हवलदार
सुनीता - राम सेवक की पत्नी
निगम साहब - एक व्यक्ति जिसे सुनीता जानती थी
श्रीवास्तव - पुलिस कमीश्नर
राहुल मकरानी - एक व्यक्ति जो कि ठग और जुआरी था। चन्द्रेश  का दोस्त था।
सागर - एक वकील जो खुद को वंशिका का मुँह बोला भाई बताता था
निशा कोठारी - एक युवती जिसे राहुल ब्लैक मेल करके अपना काम करवाता था
रंगा और बिल्ला - दो मवाली
अयूब खान - एक बड़ा दादा जो ड्रग्स के धंधे में शामिल था
देसाई - एक और अपराधी जो अयूब का दुश्मन बन बैठा था
जोशी - आयूब खान का गुर्गा

मेरे विचार:

फरेब अमित श्रीवास्तव जी का पहला उपन्यास है। अमित जी माउंट आबू रहते हैं और उन्होंने अपने शहर में ही इस कथानक को गढ़ा है। यह एक अच्छी बात है क्योंकि पाठकों को एक नये शहर के विषय में जानने को मिलेगा।

फरेब में अमित जी ने एक दिमाग घुमाने वाला जटिल कथानक लिखने की कोशिश की है जिसमें काफी हद तक वो कामयाब हए हैं। उपन्यास में दो मुख्य प्लाट तो हैं ही लेकिन साथ में कई और प्लाट साथ में चलते हैं जिससे कथानक में रोमांच बना रहता है। सागर के किरदार से कथानक में हास्य की मौजूदगी भी रहती है। ड्रग्स माफिया, राजनीतिज्ञ और अपराधिक तत्वों में साठ गाँठ और अचानक आई नोट बंदी से कैसे सफेद पोश अपराधियों की दिक्कत बड़ी इन बिन्दुओ को भी लेखक ने कथानक में बखूबी पिरोया है।

शुरुआत में ही आपको पता चलता है कि पुलिस सुमित के कातिल को पकड़ने के लिए परेशान है और आप जानना चाहते हैं कि स्वास्थ्य मंत्री के बेटे की हत्या अगर हुई तो हुई कैसे और उसके पीछे कारण क्या था? वहीं चन्द्रेश के घर में कोई लड़की क्यों खुद को वंशिका कह रही है? उसका इसके पीछे कारण क्या है? यह बात जानने के लिए भी आप उपन्यास पढ़ते जाते हैं। फिर उपन्यास में धीरे धीरे करके अलग अलग किरदार आते हैं और वो उपन्यास में रोचकता लाते हैं। उपन्यास में राहुल नाम का किरदार है जो लोगों को ब्लैक मेल करता है और उसके पीछे दादा लोग लगे हैं। वही उपन्यास में निशा नाम की लड़की है जो राहुल के साथ मिलकर चन्द्रेश के खिलाफ कुछ योजना बना रही है।
ये सब वो क्यों कर रहे हैं? राहुल दादा लोगों से अपनी जान बचाने के लिए कौन कौन से पैंतरे अजमाता है? और इन सबके बीच कैसे इन किरदारों के जुड़ने से पुलिस मुख्य प्लाट के रहस्यों को कैसे सुलझाती है? यह देखना रोचक रहता है।

अमित जी ने ये उपन्यास वेद जी को  समर्पित किया है और जिस तरह कहानी में मोड़ लाने की कोशिश की गयी हैं उससे साफ़ झलकता है कि अमित जी वेद जी से प्रभावित हैं। वेद जी के कथानक जैसा फील इसमें आता है। कई जगह चीजों का विवरण करते हुए भी वेद जी की झलक दिख जाती है।

यह एक अच्छी कोशिश है लेकिन फिर भी कहानी में कुछ कमजोरियाँ हैं जो कि अगर न होती तो कहानी काफी बेहतर हो सकती थी।

नकली वंशिका चन्द्रेश के घर आती है तो पुलिस खाली उसके दो दोस्तों के ब्यान पर ही मान लेती है कि वह असली वंशिका है। यह केस दो पुलिस वाले  देखते हैं और दोनों का ही वंशिका की पहचान साबित करने का तरीका पुलिस अफसरों जैसा नहीं लगता है। जबकि एक पुलिस वाला तो यह डायलॉग भी मारता है कि उसने 27 साल से ऊपर की नौकरी में घास नहीं छिली है।
पुलिस में नौकरी करते हमे सत्ताईस साल हो गये मोहतरमा, हमने सत्ताईस साल में घास नहीं छिली है मैडम।
(पृष्ठ 53)

लेकिन जिस तरह से वो मामले को देखते हैं तो लगता है कि वो और उसके मातहत घास ही छील रहे थे। अगर मैं पुलिस की जगह होता तो मैं दोस्तों से पूछने से पहले वंशिका के मायके वालों से पता करता। उधर सच्चाई का पता आसानी से लग जाता। मोबाइल फोन के मामले में मुझे खाली उस थाने से सम्पर्क करना रहता जिधर उसका मायका था।  फिर उसके कॉलेज के रिकार्ड्स खंगाल सकता था। कई तरीके थे जिससे वंशिका की पहचान निकलवाई जा सकती थी जो कि न पुलिस ने किया और न ही चन्द्रेश को इसका ख्याल आया।


उपन्यास में एक प्रसंग शंकर दयाल और रामसेवक का है। इसमें रामसेवक की पत्नी सुनीता का भी जिक्र है। शायद इस प्रसंग का जिक्र कहानी में कॉमेडी पैदा करने के लिए किया था लेकिन मुझे व्यक्तिगत तौर पर लगा कि यह न होता तो बेहतर था। प्यार की पहचान करने का जो तरीका वो आजमाते हैं वो मुझे बचकाना लगा। बाद में सुनीता का क्या हुआ यह भी नहीं बताया गया?


वहीं उपन्यास में एक हिस्सा बैक फ़्लैश का है जिसमें किरदारों की कॉलेज की कहानी दर्शाई गयी है। इसमें एक प्रसंग कॉलेज के इलेक्शन का है। इसी  प्रसंग में आखिर में रोमांच स्थापित करने की कोशिश की गयी थी कि इलेक्शन कौन जीतेगा? लेकिन  इस बैक  फ़्लैश के शुरू होने से पहले यह बता दिया गया था कि इलेक्शन कौन हारा था। इस कारण इस प्रसंग में रोमांच उतना नहीं बन पाता है। बेहतर होता कि बेक फ़्लैश से पहले इलेक्शन और उसके परिणाम का जिक्र ही नहीं होता।  अगर ऐसा होता तो इलेक्शन वाला प्रसंग काफी रोमांचक हो सकता था।

उपन्यास की एक और बड़ी कमी मुझे जो लगी वो ये थी कि पुलिस आखिर में जिस तरह की तहकीकात करके असल कातिल तक पहुँचती है वो ऐसे कदम थे जो अपराध जब होते हैं तो सबसे पहले उठाये जाने चाहिए। लेकिन पुलिस ऐसा नहीं करती है। अगर किसी होटल में मुझे किसी घटना के सिलसिले में तहकीकात करनी है तो मैं सबसे पहले सी सी टी वी फुटेज की बाबत पूछूँगा लेकिन कत्ल के इतना वक्त गुजर जाने के बाद भी पुलिस वाले इस मामले में यह नहीं करते हैं।  वो मेनेजर से संदिग्ध लोगो के विषय में बात करते हैं और मेनेजर उन्हें उस बाबत बताता भी है लेकिन न वो किसी स्केच आर्टिस्ट का प्रयोग कर उन संदिग्ध व्यक्तियों के विषय में जानकारी हासिल करने की कोशिश करते हैं और न किसी और तरीके से यह काम करते हैं। जिस तरह से पुलिस को कार्य करते हुए इसमें दिखाया गया है मुझे लगता है ऐसी पुलिस तो शायद गाँव देहात में भी नहीं होगी। फिर माउंट आबू जैसी पर्यटन स्थल में ऐसी पुलिस का होना असम्भव ही लगता है।

ऊपर बताई बातें आम चीजें हैं जिसे एक अपराध कथा लेखक को ध्यान में रखना चाहिए। कहानी में रहस्य बरकरार रखने के लिए किरदारों को हद से ज्यादा बेवकूफ नहीं दिखाना चाहिए।  वो भी उन किरदारों को जो आगे जाकर केस सोल्व करते हैं और पाठक से उम्मीद की जाती है कि वह उनको उपन्यास का नायक माने।

अंत में यही कहूँगा कि फरेब से अमित जी लेखन की दुनिया में कदम तो रख चुके हैं लेकिन उम्मीद है वो कथानक की गुणवत्ता में सुधार लायेंगे। वो अपनी कहानी पर और महेनत करेंगे और आइन्दा से ऐसे लूप होल्स से बचेंगे। हिन्दी के अपराध लेखकों को यह समझना होगा कि उन्हें वेद जी या पाठक जी के बराबर नहीं लिखना है उन्हें जो नेस्बो, ली चाइल्ड जैसे दिग्गजों के बराबर का लिखना है और जब आप ऐसे लोगों के साथ प्रतिस्पर्धा में होते है तो ऐसी गलितयाँ करना आप अफ्फोर्ड नहीं कर सकते हैं।

अमित जी के अगले उपन्यास का इन्तजार रहेगा।

मेरी रेटिंग: 2/5

अगर आपने उपन्यास पढ़ा है तो आपको यह उपन्यास कैसा लगा ? अपने विचारों से मुझे जरूर अवगत करवाईयेगा। अगर आपने उपन्यास नहीं पढ़ा है और इसे पढ़ना चाहते हैं तो निम्न लिंक पर जाकर इसे मँगवाया जा सकता है:
किंडल
पेपरबैक

हिन्दी पल्प के दूसरे उपन्यासों के प्रति मेरी राय आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
हिन्दी पल्प साहित्य 
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6 Comments
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  1. 'फरेब' उपन्यास मैंने पढा है। अमित जी 'आबू रोड़' के निवासी हैं। मैं 'माउंट आबू' में निवास करता हूँ। अमित जी से अक्सर मुलाकात हो जाती है।
    कहानी वास्तव में रोचक और घुमावदार है। लेकिन कुछ गलतियाँ उपन्यास में हैं और वे भी बड़ी गलतियां। जैसे CCTV की तस्वीरें न देखना, जैसे माउंट आबू में प्रवेश शुल्क है लेकिन उपन्यास में निकासी के वक्त दिखा दिया। उपन्यास में 'सुनीता प्रसंग'काॅमेडी के लिए ही है, वह मुझे अच्छा लगा।
    उपन्यास के द्वितीय संस्करण में संशोधन हो सकता है। वैसे उपन्यास पठनीय, रोचक और दिलचस्प है।
    धन्यवाद।
    गुरप्रीत सिंह
    www.sahityadesh.blogspot.in

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    1. जी।टोल वाला तो केवल उनको ज्यादा खलेगा जो माउंट आबू में रहते होंगे क्योंकि आम पाठक शायद मेरी तरफ इस बात को न पकड़ पायें। बाकि बातें आपकी सही हैं। सुनीता वाली बात थोड़ा बच्चों जैसी लगती है। इसलिए वो मुझे पसन्द नहीं आई। हाँ, सुधार की गुंजाइश तो है। उम्मीद है अगले संस्करण में सुधारें। आभार।

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  2. हर बार की तरह बढ़िया समीक्षा | अभी हाल ही में मैं अपने ननिहाल गया था | गया तो था एक रात के लिये पर बाद में काम पड़ते गये और 5 दिन रुकना पड़ गया| बुक्स लेकर गया नही था| स्मार्टफोन ख़राब हो चुका था और पढ़ने के कुछ था नही|समय कट नही रहा था | मामा के पास जिओ का कीपैड फोन था बस उसी में आपकी साईट पर 'हिंदी पल्फ़ फिक्शन' की सभी समीक्षाएं पढ़ डाली| आखिर कुछ तो पढना ही था | आपकी साईट ने मेरी बोरियत को कुछ कम तो किया ही| समीक्षाए भी अच्छा माध्यम है समय निकालने का और आपकी समीक्षाए होती भी रोचक है |

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    1. जी आपकी प्रतिक्रियाएँ पढ़कर अभिभूत हुआ। ऐसे ही पढ़ते रहिये।  

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