रेटिंग : 3/5
उपन्यास 14 अगस्त 2017 से 15 अगस्त 2017 के बीच पढ़ा गया
संस्करण विवरण:
फॉर्मेट : पेपरबैक
पृष्ठ संख्या : 255
प्रकाशक : रवि पॉकेट बुक्स
श्रृंखला : अर्जुन त्यागी
पहला वाक्य:
उस आने वाले युवक को देखते ही रामभरोसे के हाथ पाँव फूल गए- चेहरे पर घबराहट उभर आई।
अर्जुन त्यागी अशोक नगर का एक छोटा मोटा गुंडा ही था। लोगों को डराना धमकाना, उन्हें पीटना और छोटे व्यापरियों से हफ्ता वसूलना ही उसका काम था। लेकिन अब वो इससे ऊपर कुछ करना चाहता था। उसे पता था लोग उसे लुच्चा कहकर पुकारते थे और वो इस संबोधन से अपना पीछा छुड़ाना चाहता था।
वो एक ऐसा काम करना था जिससे जुर्म की दुनिया में उसका नाम सूरज की भाँती जगमगाए। वो डॉन बनना चाहता था। अंडर वर्ल्ड पर राज करना चाहता था।
उसके पास इस काम को अंजाम देने के लिए योजना भी थी और उस योजना पर चलते हुए उसे जो कुछ करना पड़ता वो उसके लिए तैयार था। चोरी, डकैती, यारमारी ,धोखाधड़ी उसे किसी चीज से फर्क नहीं पड़ता था। जो उसके लक्ष्य तक पहुँचने में सहायक हो वो उस हर काम को करने को राजी था।
आखिर क्या योजना थी अर्जुन त्यागी की? इस योजना को क्या वो सफल बना पाया? उसे अपने लक्ष्य को पाने के लिए क्या क्या करना पड़ा ?
मुख्य किरदार
अर्जुन त्यागी : अशोक नगर का एक मामूली गुंडा जो कि हफ्ता वसूली करता था
कालू , तिलक राज उर्फ़ टिल्लू, बिन्दू : अर्जुन त्यागी के दोस्त जो कि उसकी दादागिरी में उसका साथ देते थे
जगन सेठ - एक पूर्व अपराधी जो कि अब नेता बन गया था और एम एल ए के इलेक्शन के लिए खड़ा हुआ था
सुभाष छाबड़ा - एक अन्य एम एल ए उम्मीदवार
कालिया, हरनाम सिंह, शंकरलाल,जालिम सिंह - जगन सेठ के ख़ास आदमी
रेनु - जगन सेठ की बेटी
इंस्पेक्टर शेखर : पुलिस इंस्पेक्टर जो सुभाष छाबड़ा हत्याकांड की तहकीकात कर रहा था
रहमान खां - एक कबाड़ी जो ढके छुपे तरीके से हथियारों को अपराधियों को उचित दाम में मुहैय्या करवाता था
किशना - एक दादा जिसके साथ अर्जुन त्यागी ने पंगा किया था और जिसे अर्जुन ने पीटा था
बिच्छू - अंडरवर्ल्ड गैंग का सरगना। बिच्छू गैंग का मुख्य काम हथियारों और सोने की स्मग्लिंग था। बिच्छू कौन था ये किसी को नहीं पता था।
'घर का ना घाट का' अर्जुन त्यागी और उसके सपने की कहानी है। अर्जुन त्यागी का सपना है गली के मामूली गुंडे से उठकर अंडरवर्ल्ड की एक बड़ी हस्ती बनना। वो इसे करने के लिए एक योजना बनाता है। इसके बाद जो जीचे घटती हैं वो ही इस उपन्यास का कथानक बनती हैं। शिवा पंडित का ये पहला उपन्यास था जो कि मैंने पढ़ा। शिवा पंडित नाम से लगता है कि भूत लेखक है लेकिन उपन्यास पठनीय है। उपन्यास में एक्शन और मार धाड़ भरपूर है। कथानक तेज रफ़्तार है जो पाठक को बोर नहीं होने देता है।
अब आते है उपन्यास के मुख्य किरदार अर्जुन त्यागी के ऊपर। जब भी किसी उपन्यास में किसी एंटी हीरो का जिक्र होता है तो उसके अन्दर एक ऐसा गुण रखा जाता जिससे पाठकों को उसके प्रति थोड़ी सहानुभूति या लगाव हो। लेकिन अर्जुन त्यागी के विषय में ऐसा कुछ नहीं है। वो धोखे बाज है, मक्कार है , यारमार है और सच कहूँ तो एक नंबर का हरामी है। इधर अर्जुन त्यागी उपन्यास का मुख्य किरदार तो है लेकिन उसका नायक नहीं है। वो उतना ही बुरा है जितना कि उसके विपक्ष में खड़ा किरदार। अगर अर्जुन में कुछ ऐसे गुण होते जिनके कारण वो मुझे पसंद आता और उसकी लड़ाई मुझे अपनी लड़ाई लगती तो उपन्यास की रेटिंग तीन से साढ़े चार तो हो ही जाती। लेकिन ऐसा नहीं था। अभी तो हालात ऐसे थे कि दोनों मुख्य किरदारों में से कोई भी जीतता तो मुझे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता।
हाँ, आखिर के दो अनुच्छेद पढकर मुझे काफी ख़ुशी हुई और मुझे काफी अच्छा लगा।
उपन्यास के बाकी किरदार भी कहानी के अनुरूप ठीक बन पड़े हैं। हाँ, पूरे उपन्यास में एक किरदार ही ऐसा था जो कि ईमानदार था लेकिन उसका आगमन भी अंत में होता है। इसके इलावा जितने भी किरदार थे वो सब अपराधी ही थे।
उपन्यास में एक दो कमियाँ मुझे लगी जो कि इस प्रकार हैं :
पृष्ठ 87 में एक गुंडा जब बात कर रहा होता है तो वाक्य के अंत में बाप लगाता है उदाहरण: "अब तुम जाकर चैन की नींद सो बाप... तुम्हारा काम हो जायेगा। ' ये एक मुम्बैया लहजा है। पढ़ते हुए मैं यही सोच रहा था कि इस लहजे वाला बन्दा दिल्ली के निकट अशोक नगर में क्या कर रहा था? उधर कोई हरियाणवी टोन वाला या भोजपुरी अवधि टोन वाला बन्दा होता तो कितना सही जँचता।
अर्जुन त्यागी एक जगह से पुरानी गाड़ी लेता है। जब गाड़ी बेचने वाला खरीददार का नाम कागजात के लिए पूछता है तो अर्जुन उसे फर्जी नाम बताता है। मुझे हैरानी इस बात से हुई कि गाड़ी बेचने वाला अर्जुन से उसकी आई डी नहीं मांगता। ये उपन्यास 2016 में आया था और मैं नहीं समझता कि डीलर बिना किसी आइडेंटिफिकेशन के ऐसे ही गाड़ी दे देगा। इससे बढ़िया अर्जुन को एक गाड़ी चुराते हुए बताते या चोरी की गाड़ी खरीदते हुए दर्शाते तो ज्यादा ठीक रहता।
जगन सेठ के चार कार्यकर्ता थे : शंकरलाल, जालिम सिंह,हरनाम सिंह और कालिया। ये चारों बिच्छू के वफादार भी थे। कालिया और हरनाम तो थे ही क्योंकि उपन्यास में इन दोनों को उसके बगल में खड़ा दर्शाया गया है। लेकिन फिर भी जगन और बिच्छू के बीच का रिश्ता कोई भी अपराधी नहीं भाँप पाया ये हास्यास्पद बात थी।
एक जगह रेनू की हाई टेक गाड़ी का जिक्र है जो कि मुझे जंचा नहीं। इसके बिना भी काम चल सकता था। रेनु को जेम्स बांड जैसी गाड़ी देने का क्या फायदा था। फिर रेनू और अर्जुन के टकराव का अंत मुझे थोड़ा लिजलिजा लगा जिसे और रोमांचक किया जा सकता था।
क्या मैं अर्जुन त्यागी श्रृंखला के दूसरे उपन्यास पढूँगा ? शायद उन्हें पढूँ क्योंकि मैं जरूर चाहूँगा कि उसके किरदार में कुछ ऐसी तब्दीलियाँ हो जिससे मुझे उसके प्रति कुछ सहानुभूति हो। क्योंकि अगर लेखक पाठकों को किरदारों से भावनात्मक रूप से बाँध देता है तो पाठकों को उसकी कहानी जानने की उत्सुकता रहती है और उपन्यास ज्यादा रोचक हो जाता है। ये देखा भी गया है कि वो कहानी हमे ज्यादा पसंद आती है जिसमे हम खुद को या तो देख पाते हैं या किरदारों के जैसा बनना चाहते हैं। अर्जुन त्यागी के रूप में न खुद को देख पाया और न ही उसके जैसा मैं बनना चाहता था। तो आगे इस किरदार में क्या तब्दीलियाँ होंगी ये देखने के लिए एक दो उपन्यास तो पढूँगा।
उपन्यास में एक लाइन थी जो मुझे जँची:
जुर्म की जड़े चाहें जितनी भी गहरी क्यों न हो जायें- क़ानून का घुन एक दिन उसे चाट ही जाता है (पृष्ठ 66 )
अक्सर घुन को एक बुरा जीव ही समझा जाता रहा है लेकिन इधर सकारात्मक रूप से उसका उपयोग करना
अक्सर घुन को एक बुरा जीव ही समझा जाता रहा है लेकिन इधर सकारात्मक रूप से उसका उपयोग करना
अच्छा लगा।
अगर आपने इस उपन्यास को पढ़ा है तो इसके विषय में अपनी राय देना नहीं भूलियेगा। आपने अर्जुन त्यागी श्रृंखला के और कौन से उपन्यास पढ़े हैं उसके विषय में भी लिखियेगा।
मैंने तो इस उपन्यास को गुडगाँव बस स्टैंड से खरीदा था। अमेज़न पे ये किताब कभी थी लेकिन अब उधर भी उपलब्ध नहीं दिखा रहा है। वैसे नीचे अमेज़न का लिंक दिया है। अगर कभी उपलब्ध हुआ तो उपन्यास उधर ही होगा।
अमेज़न
#हिंदी_ब्लॉगिंग
विकास भाई,
ReplyDeleteअर्जुन त्यागी का पहला उपन्यास 2001 के आसपास आया था, अर्जुन त्यागी के करीब 15 - 16 उपन्यास मैने पढे हैं सभी उपन्यासों का अंत लगभग एक जैसा है, मनोरंजन के उद्देश्य से तो ठीक है पर कोई भी सरीफ इंसान सपने मे भी अर्जुन त्यागी बनने की नहीं सोच सकता
ओह!! मुझे लगा था कि उसके अन्दर उपन्यास के कथानक के बढ़ने के साथ कुछ बदलाव होगा। एक मुख्य किरदार के रूप में अर्जुन के अंदर मुझे कोई भी ऐसे गुण नहीं दिखे जिससे मेरा उससे कोई लगाव हो। वैसे तो मेरे पास पढने की सूची काफी लम्बी है और अर्जुन त्यागी इस सूची में काफी निचले पायदान पर है। मार्गदर्शन करने का शुक्रिया। आते रहियेगा ब्लॉग पर।
DeleteAapke pass kitne upnyas hai kya aap.sell krna chahte hai
Deleteजी विकास भाई, अच्छा लगता है जब अपने जैसा कोई दूसरा दिवाना मिल जाता है । वैसे आज कल उपन्यास और कोमिक्स प्रेमी बहुत कम रह गये हैं, और सबसे बडी छति वेद जी के जाने के बाद हुई उपन्यास जगत का एक मजबूत स्तम्भ गिर गया अब उनके जैसा लेखक मिलने मे वक्त लगेगा.......
ReplyDeleteजी, ये बात सही कही आपने। हम बचपन से बच्चों के अन्दर पढ़ने की आदत नहीं डालते इसलिए भी पढने वालों में ये कमी आई है।
Deleteवेद जी के जाने का तो दुःख हुआ लेकिन पल्प का सहित्य उनके रहते हुए सिमटने लगा था। खैर, अभी नये प्रकाशक आये हैं जो अच्छा काम कर रहे हैं।
अर्जुन त्यागी का मैंने एक उपन्यास पढ़ा है साढ़े साती जो की एक टाइम पास उपन्यास है उसमे जो उसने खज़ाना चुराने की प्लानिंग बनायीं वो बढ़िया लगी। पर इसके उपन्यास मे फालतू की चीज़े घुसा देते है की आपस में सेक्स कर रहे है वगेरा वगेरा जो मुझे कतई पसंद नहीं आते उपन्यास मे और अर्जुन पंडित तो हरामी ही है और शायद हरामी ही रहेगा।
ReplyDeleteअर्जुन त्यागी का मैंने एक उपन्यास पढ़ा है साढ़े साती जो की एक टाइम पास उपन्यास है उसमे जो उसने खज़ाना चुराने की प्लानिंग बनायीं वो बढ़िया लगी। पर इसके उपन्यास मे फालतू की चीज़े घुसा देते है की आपस में सेक्स कर रहे है वगेरा वगेरा जो मुझे कतई पसंद नहीं आते उपन्यास मे और अर्जुन पंडित तो हरामी ही है और शायद हरामी ही रहेगा।
ReplyDeleteसही कहा आपने
ReplyDeleteशुक्रिया।
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