नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

पाप का घड़ा - अनिल मोहन

उपन्यास २३ जुलाई २०१७ से २५ जुलाई २०१७ के बीच पढ़ा गया 

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 255  | प्रकाशक: रवि पॉकेट बुक्स | शृंखला : देवराज चौहान सीरीज  

पहला वाक्य :
हर कोई एक दूसरे का चेहरा निहार रहा था।

'सुपर वाल्ट' भारत का सबसे सुरक्षित वाल्ट समझा जाता था। कहा जाता था कि उसको लूटना असम्भव है। वैसे जिसने अब तक ये कोशिश की थी उन लोगों का हश्र देखकर सुपर वाल्ट वालों के दावों पर यकीन करना मुश्किल नहीं था। ये ऐसा वाल्ट था जिसकी ग्राहकों की सूची में  देश के बड़े बड़े रईस लोगों के नाम शामिल थे। ऐसे ही एक रईस थे सूरत गढ़ के राजा सुरेन्द्र प्रताप सिंह थे जिनके करोड़ों के जेवरात भी इसी वाल्ट के अन्दर थे।

देवराज चौहान की नज़र इन्ही जेवरातों पर थी। उसने सुपर वाल्ट के लॉकर से इन जेवरातों को उड़ाने का प्लान बना लिया था।

लेकिन प्लान बनाना  और उसको बनाकर कामयाब होना दो जुदा बातें थी। अगर योजना कामयाब होती तो सबके हाथ में एक एक करोड़ रूपये आने निश्चित थे।

क्या योजना सफल रही ? क्या देवराज चौहान जेवरात हासिल कर पाया?

उपन्यास के मुख्य किरदार निम्न हैं :
देवराज चौहान - डकैती मास्टर
जगमोहन - देवराज का साथी
सोहन लाल - लॉक बस्टर जिसे गोली वाली सिगरेट पीने की लत है
बैकुंठ लाल -डकैती में देवराज का साथी
भजन सिंह - डकैती में देवराज का साथी
राजीव खत्री - सी बी आई इंस्पेक्टर जिसे लूट का केस सुलझाने के लिए नियुक्त किया गया था
अमरनाथ वर्मा - एक एकाउंट्स फर्म का मालिक
अनोखेलाल बाली - एक दादा जिसकी गैंग का उस शहर में बहुत दबदबा था जहाँ सुपर वाल्ट था
दयाल सिंह - बाली का आदमी
जुगल किशोर - बाली का आदमी
रंजन गुप्ता - सुपर वाल्ट के द्वारा उसकी सुरक्षा के लिए नियुक्त किया गया  प्राइवेट जासूस

उपन्यास के विषय में कुछ भी कहने से पहले तो ये बात साफ़ कर देनी चाहिए 'पाप का घड़ा' अनिल मोहन जी का नया उपन्यास नहीं है बल्कि ये एक पुराने उपन्यास का रीप्रिंट है। ये बात उपन्यास के प्रथम पृष्ठ पर ही प्रकाशक मनीष जैन जी साफ़ कर देते हैं। देवराज चौहान श्रृंखला के और भी उपन्यासों को रीप्रिंट वो करवाने वाले हैं जो कि देवराज को चाहने वालों के लिए अच्छी खबर है।

अब उपन्यास के ऊपर आते हैं। उपन्यास की शुरुआत ही डकैती की प्लानिंग से होती है। और आगे के सौ पृष्ठों तक इस योजना में अमल किया जाता है। यहाँ तक उपन्यास साधारण है क्योंकि कुछ एक लम्हों को छोड़कर जो सोचा होता है वो होता है। उपन्यास में असली खेल डकैती के बाद शुरू होता है जिसके बाद घटनाक्रम ऐसे होने लगते हैं कि पाठक को सांस लेने की भी फुर्सत नहीं होती है।

एक के बाद एक किरदार आने लगते हैं जिनका मकसद एक ही होता है और जो उपन्यास में रोचकता बरकरार रखते हैं। ये रोचकता और रोमांच उपन्यास के अंत में जाकर खत्म होती है। इसलिए अगर मैं कहूँ उपन्यास मुझे पसंद आया तो उसमे कोई झूठ बात नहीं होगी।

 उपन्यास पठनीय है और अगर आप देवराज चौहान के फेन हैं तो आपको निराश नहीं करेगा।

अब आते है उपन्यास के उन हिस्सों पर जो मुझे पसंद नहीं आये। उपन्यास  के पहले के तीस पृष्ठों में देवराज चौहान और उसके साथी किस तरह से प्लान बनाते हैं उसके विषय में लिखा गया है। ये वाला हिस्सा मुझे थोडा बोरिंग लगा। अगर इसको छोटा कर दिया जाता तो उपन्यास की रफ़्तार शुरुआत से ही तेज होती और पाठक शुरुआत से ही बंध जाता। इसके इलावा देवराज चौहान को एक किरदार दूसरे किरदार के बेईमान रवैये के प्रति आगाह करता है।देवराज चौहान, जो सब कुछ सोच समझ कर करता है, इसके प्रति सतर्क नहीं रहता है और वो किरदार अपनी चाल चल जाता है। य बात थोडा मुझे नहीं जमी। ऐसी गलती हो सकती है लेकिन देवराज चौहान जैसे डकैती मास्टर से भी हो तो फिर वो किस बात का मास्टर।

इसके इलावा उपन्यास में कहीं ऐसी घड़ी का जिक्र है जिसके पहनने वाले को अगर कोई बुलाता है तो उस घडी से एक सुई निकलकर उसके कलाई में चुभ जाती है।

'तभी राजीव खत्री की कलाई पर बंधी घड़ी में से पतली सी सुई निकलकर कलाई के मांस में चुभने लगी ; यानी कि उसका चीफ पी. पी उसे याद कर रहा था। '

 यही चीज दयाल सिंह के साथ भी होती लेकिन वो पूछता है कि उधर कौन है :

'दयाल सिंह के शब्द अधूरे रह गये। कलाई पर बंधी घड़ी से नन्ही सी सुई निकलकर उसकी कलाई पर चुभने लगी।'

अब ये पढ़कर मेरे मन में ये ख्याल आ रहा था कि कोई ऐसी चीज कौन पहनेगा जो चुभता हो। फिर सोचा कि उपन्यास पुराना है तो हो सकता है कि उस वक्त ऐसा कुछ रहा होगा लेकिन फिर चूँकि रीप्रिंट हुआ है तो इसको चुभने के स्थान पर कम्पन कर देते तो ज्यादा सही नहीं रहता। मतलब अगर कोई मुझे ऐसी घडी पहनने को बोलेगा जो कि मुझे चुभे तो मैं शायद ही उसे पहनूँ भले ही वो फोन या ट्रांसमीटर का काम करती हो।

उपन्यास के बाकी किरदार कहानी के अनुरूप ही थे। बैकुंठ लाल और बाली मुझे पसंद आये। वो ऐसे किरदार थे जिनका कोई भरोसा नहीं रहता और वो कितने खूंखार हो सकते हैं इस विषय में कुछ भी कहा जाये कम हैं। ऐसे खलनायक हों तो उपन्यास पढ़ने  में मज़ा आ जाता है।अगर उपन्यास का नायक सब पर भारी पड़ने लगे तो मुझे तो वो बोरिंग लगने लगता है। हाँ, बाली उपन्यास में थोड़ा कम दिखा। उम्मीद है आगे उसे देवराज के समक्ष एक अच्छे खलनायक के रूप में खड़ा किया गया होगा। राजीव खत्री भी एक रोचक किरदार था जिसे पढने में मज़ा आया। देखना है वो आगे के उपन्यासों में आया था या नहीं। अगर आता तो कथानक को मज़ेदार बना सकता था।ये शायद पहला उपन्यास था जिसमे सोहन लाल की एंट्री हुई थी और इसके बाद वो देवराज चौहान की टीम का पक्का हिस्सा बन गया था। मैंने कुछ उपन्यास पढ़े हैं जिनेम देवराज चौहान,जगमोहन और सोहनलाल की तिकड़ी है। मुझे बस उत्सुकता ये जानने की है कि इस उपन्यास के घटनाक्रम के बाद वो कैसे मिले और उनके बीच सम्बन्ध कैसे स्थापित हुए। ये उपन्यास अब पढने की मन में इच्छा है।

अंत में ये ही कहूँगा मुझे तो यह उपन्यास पसंद आया।  उपन्यास में किरदार वक्त के साथ बदलते रहते हैं जिससे उपन्यास की पठनीयता तो बरकरार रहती ही है और ये एक हद तक किरदारों को तीन आयामी भी बनाता है। ये बात मुझे जँची। तीन आयामी किरदार अगर उपन्यास में हो तो रोचकता बढ़ जाती है क्योंकि उपन्यास कम प्रेडिक्टेबल और ज्यादा जीवंत हो जाता है।

अगर आपने उपन्यास पढ़ा है तो इसके विषय में अपनी राय से मुझे जरूर अवगत करवाईयेगा। अगर उपन्यास नहीं पढ़ा है तो आप इसे निम्न लिंक से खरीद सकते हैं :
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आपको ये उपन्यास शायद किसी ए एच व्हीलर के स्टाल्स से भी मिल सकता है। मैंने इसे गुडगाँव बस  स्टैंड पे से खरीदा था क्योंकि उस वक्त ये अमेज़न पे नहीं था।  
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7 Comments
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  1. मित्र बबूल जाखङ और खुमेश शर्मा के प्रयास से रवि पॉकेट बुक्स ने इस उपन्यास को पुन: प्रकाशित किया है।
    काफी रोचक उपन्यास बताया जाता है।

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    1. जी उनका नाम भी प्रकाशक ने लेखकीय में दिया है।जानकर अच्छा लगा था कि प्रकाशक पाठकों की राय को इतना महत्व देते हैं।

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  2. आपने उपन्यास में पिन चुभने वाली घङी का जिक्र किया है ये बात सही है। उस समय के उपन्यासों में इस प्रकार की घङी का बहुत जिक्र होता था।
    सोचनिय बात तो ये है की किसी लेखक ने इस बात पर कभी ध्यान नहीं दिया की पिन चुभने की जगह कंपन कर देते तो ज्यादा अच्छा रहता।
    आपने एक अच्छा प्रसंग उठाया है।

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    1. जी, शुक्रिया। पॉकेट बुक्स में एडिटर की कमी इधर ही खलती है। अगर कोई सम्पादक इसे छपने से पहले पढता तो ये सुझाव लेखक को दे सकता था। और मुझे नहीं लगता कि लेखक इस सुझाव से असहमत होता।

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  3. बिल्कुल सर,
    उस समय मे ऐसी घड़ियों का प्रयोग उपन्यासों में खूब हुआ है,,
    और ऐसा भी तो होता है कि बीप बीप की आवाज या कम्पन भी तो शोर पैदा करता है।
    यही वजह है कि काल्पनिक कहानियों में ऐसी सुई वाली घड़ी का प्रयोग हुआ।
    ऐसा तो हम सब जानते है कि अगर फोन में कम्पन हो रहा हो या घड़ी में कम्पन जैसा कुछ हो तो इसका आभास 3rd person को भी तो होता ही है। यही वजह रही होगी तभी सुई का कॉन्सेट आया हो।

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  4. बहुत ही शानदार समीक्षा विकास सर।
    आपकी बात कुछ हद तक ठीक है कि घड़ी में कंपन भी हो सकता था।
    सही भी है कुछ गलत भी
    भारतीय पॉकेट बुक्स में सुई चुभने वाली घड़ी का प्रयोग कई उपन्यासों में हुआ है जो कि सीक्रेट सिग्नल देती है।
    कम्पन या बीप बीप की ध्वनि से पास खड़े किसी दूसरे को भी अहसास हो जाता है कि कुछ सिग्नल आ रहा है, भले वो न समझे।
    फोन के कंपन को तो दूर तक महसूस किया जा सकता है,
    यही वजह रही कि घड़ी में सुई चुभने की बात हुई।
    मुझे ऐसा ही लगता है सर।

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    1. जी,फोन का कम्पन अलग होता है। वो ज्यादा तेज होता है। उसके बनिस्पत घड़ी में उससे कई गुना कम कम्पन की जरूरत पड़ेगी क्योंकि वो कलाई पर रहेगा। इससे आवाज़ नहीं होगी और न किसी को पता चलेगा। जबकि आप देखिये अगर अचानक से आपको कुछ चीज चुबाई जाए तो आप थोड़ा हिल जायेंगे।
      खैर, लेखक ने कुछ तो करना था तो ये कर दिया।

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