नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

कुछ नहीं - मनमोहन भाटिया

किताब 11 नवम्बर 2019 को पढ़ी गयी

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक
पृष्ठ संख्या: 68
प्रकाशक : फ्लाई ड्रीम्स पब्लिकेशन
आईएसबीएन: 9788194113102



कुछ नहीं - मनमोहन भाटिया
कुछ नहीं - मनमोहन भाटिया

पहला वाक्य:
महेश शाम सात बजे एअरपोर्ट पहुँच गया।

कहानी:
हेश की फ्लाइट को जाने में अभी वक्त था तो उसने सोचा क्यों न फ़ूड कोर्ट में बैठ कर पेट पूजा ही कर ली जाए। इसी इरादे से वह फ़ूड कोर्ट में जाकर बैठकर कुछ खा ही रहा था कि एक स्त्री की आवाज़ ने उसे चौंका दिया। महिला उसके टेबल पर मौजूद खाली कुर्सी में बैठने चाहती थी। जब महेश ने शिष्टाचारवश सहमति दी तो उस वक्त महेश को इल्म भी न था कि यह महिला उसकी कॉलेज की दोस्त माया है।  वो माया जिसे महेश बेहद मोहब्बत करता था। वो माया जो अमीर घर की लड़की थी लेकिन महेश को उम्मीद थी कि वह और माया इस दूरी को अपने प्रेम के पुल से पाट देंगे।

लेकिन फिर ऐसा कुछ नहीं हुआ। माया और महेश अलग हो गये। महेश की ममता से शादी हुई और वो माया को भूल गया।

पर इतने सालों बाद महेश का माया से टकराना दोनों के लिए ही सुखद आश्चर्य था।  इस संयोग ने दोनों को ही तेईस वर्षों पुरानी यादों में धकेल दिया।

क्या दोनों का वह पुराना प्यार जागृत फिर होगा? 
माया, जो अब भी बला की खूबसूरत थी, क्या वह दोबरा महेश पर आसक्त होगी ? 
क्या महेश इस आसक्ति का जवाब देगा? 
इन दोनों के इतने वर्षों बाद मिलने से महेश और माया के परिवार पर क्या असर होगा?

ऐसे ही प्रश्नों का उत्तर यह लघु-उपन्यास आपको देगा।


मुख्य किरदार:
महेश - कहानी का मुख्य किरदार
माया - महेश की दोस्त जिसे वह 23 वर्षों पूर्व प्रेम करता था लेकिन कभी बता नहीं पाया था
ममता - महेश की पत्नी
सारांश और वैष्णवी - महेश के बच्चे
नरेंद्र - महेश का छोटा भाई

मेरे विचार:

कहते हैं पहला प्यार सबसे अलग ही होता है। उसकी एक ख़ास जगह मन के किसी कोने में सुरक्षित होती है। अंग्रेजी में the one who got away(वह जो आपका हो न सका) की धारणा भी है। यह अक्सर उस व्यक्ति के लिए बोला जाता है जिसके विषय में आप सोचते थे कि वह आपका जीवन साथी होगा। आप उनसे बेइंतिहा मोहब्बत करते थे लेकिन फिर हालातों के चलते आप दोनों साथ नहीं आ पाए। ऐसी प्यार की कसक पूरे जीवन व्यक्ति को सालती रहती है। कई कृतियाँ इस पर लिखी हैं। अक्सर आदमी इन्हें भुला तो देता है लेकिन इनसे उभर नहीं पाता है। अगर उन्हें ऐसे व्यक्ति का कभी जिक्र करना हो तो बिना टीस के यह होना मुश्किल होता है। यही कारण है कि जब ऐसे व्यक्ति की आपके जीवन में दुबारा परिवेश करने के आसार दिखाई देते हैं तो अक्सर लोग अपने मौजूदा परिवार की खुशियों को दरकिनार कर गलत कदम भी उठा देते हैं।

यह कहानी भी कुछ ऐसी ही है। पुराने प्यार से हुई मुलाक़ात से शुरू हुई यह कहानी दो कालखंडों में चलती है। वर्तमान और 23 वर्ष पूर्व के समय में विचरण करती हुई यह कहानी जैसे जैसे पाठक पढ़ते जाते हैं वह जान पाते हैं कि महेश और माया की वर्तमान स्थिति क्या है ? वह अपने पुराने प्रेम को आगे बढ़ाते हैं तो उन दोनों के पास पाने के लिए क्या है और खोने के लिए क्या है? और आप यह भी जान पाते हैं कि तेईस वर्ष पूर्व इनके जीवन में क्या हुआ था? यह निकट कैसे आये थे और फिर दूर कैसे चले गये?

यह लघु-उपन्यास पठनीय है और अंत तक पाठकों को अपने में बाँध कर रखती है। पात्रों के साथ पाठक भी भावनाओं की उफनती लहरों की सवारी करता चला जाता है। चूँकि किताब 68 पृष्ठों की है तो कहानी चुस्त है और कहीं भी ऐसा कुछ नहीं है जो कि न होना चाहिए था।

कहानी में ममता और महेश के बीच के कई वार्तालाप काफी प्यारे हैं और उन्हें पढ़ते हुए उनके बीच के प्रेम को आप महसूस कर सकते हैं। उनकी आपस की चुहलबाजी गुदगुदाती हैं और आप उन्हें पढ़कर आनन्दित होते हैं।

कहानी की कमियों की बात करूँ तो कुछ बातें थी जो कि मुझे कथ्य में खली और कुछ बातें मुझे कहानी में ठीक नहीं लगी। कहानी में एक प्रसंग है जब महेश अपने बच्चों से उनकी पढ़ाई के विषय में कहता है-

... इसलिए मेरी विनम्र विनती है कि अपने कॉलेज जीवन में पढ़ाई अधिक और मौज मस्ती कम।(पृष्ठ 15)

एक पिता का अपने बच्चों से इतना फॉर्मल होना व्यक्तिगत तौर पर मुझे पढ़ते हुए थोड़ा अटपटा लगा।

इसके बाद महेश और माया के अलग होने में एक गलत फहमी का बड़ा हाथ था। जब वो इतने साल बाद मिलते हैं मुझे यह चीज अटपटी लगती है कि वह उस विषय में बात नहीं करते है। महेश एक संजीदा इंसान है, कम से कम उसे तो इस विषय पर बात करनी थी ताकि सब कुछ ठीक हो जाये।

और इसी से जुड़ी एक और चीज है जो मुझे अजीब लगी। महेश का पूरे लघु उपन्यास में जो किरदार है वो एक सौम्य और संवेदनशील इनसान का रहा है। इसलिए उपन्यास का अंत जिस तरह से किया गया वो मुझे थोड़ा अटपटा लगा। वह महेश के किरदार के अनुरूप नहीं था। इसमें कोई दोराय नहीं हैं कि वह प्रतिक्रिया नाटकीय थी लेकिन वह महेश के किरदार पर फिट नहीं बैठती। अगर महेश ऐसा करता है तो आप सोचने लगते हो कि उसकी सौम्यता और उसकी संवेदशीलता क्या एक ढकोसला है। उस अंत को किरदार के अनुरूप बिना नाटकीयता के लिखा जाता तो मेरे हिसाब से बेहतर होता।

यह एक दो छोटी छोटी बातें थी जो मुझे थोड़ी सी कहानी में खटकी। इनके अलवा यह लघु-उपन्यास मुझे पसंद आया। उम्मीद है मनमोहन भाटिया जी की कलम से ऐसे और भी वृहद कथानक निकलेंगे और हम पाठक उनका चाव लेकर रसवादन कर पाएंगे।

रेटिंग: 3/5

अगर आपने यह पुस्तक पढ़ी है तो आपको यह कैसी लगी? अपने विचारों से मुझे टिप्पणियों के माध्यम से आप अवगत करवा सकते हैं। अगर आप इस पुस्तक को पढ़ना चाहते हैं तो इसे निम्न लिंक पर जाकर मँगवा सकते हैं:
पेपरबैक 
मनमोहन भाटिया जी की अन्य पुस्तकों के विषय में मेरी राय आप निम्न लिंक पर क्लिक करके पढ़ सके हैं:
मनमोहन भटिया

हिंदी साहित्य की दूसरी कृतियों के विषय में मेरी राय आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
हिन्दी साहित्य
मैं अक्सर लघु उपन्यास पढता रहता हूँ। अन्य लघु उपन्यासों के विषय में मेरी राय आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
लघु-उपन्यास

© विकास नैनवाल 'अंजान'
FTC Disclosure: इस पोस्ट में एफिलिएट लिंक्स मौजूद हैं। अगर आप इन लिंक्स के माध्यम से खरीददारी करते हैं तो एक बुक जर्नल को उसके एवज में छोटा सा कमीशन मिलता है। आपको इसके लिए कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं देना पड़ेगा। ये पैसा साइट के रखरखाव में काम आता है। This post may contain affiliate links. If you buy from these links Ek Book Journal receives a small percentage of your purchase as a commission. You are not charged extra for your purchase. This money is used in maintainence of the website.

Post a Comment

0 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.

Top Post Ad

Below Post Ad

चाल पे चाल