नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

प्रेम प्यासी | अहमद यार खाँ | अनुवाद: इश्तियाक खाँ | तहकीकात 4

संस्करण विवरण:

फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 31 | प्रकाशक: नीलम जासूस कार्यालय | अनुवाद: इश्तियाक खाँ | मूल भाषा: उर्दू

पुस्तक लिंक: अमेज़न


प्रेम प्यासी | हमद यार खाँ | अनुवाद: इश्तियाक खाँ | तहकीकात 4

कहानी 

जैनब की लाश बस्ती के बाहर मौजूद एक वीरान इलाके में मिली थी। 

जैनब एक अट्ठारह उन्नीस वर्षीय युवती थी जिसके बारे में पुलिस ने तहकीकात तो पाया कि कि वह बस्ती में अपने चरित्र के चलते बदनाम थी। उसके कई लड़कों के साथ संबंध थे।

आखिर किसने किया था जैनब का कत्ल?

क्या पुलिस कातिल का पता लगा पाई?


मुख्य किरदार

जैनब - एक अट्ठारह वर्षीय युवती जिसका कत्ल हुआ था 
अतहर अली - वह युवक जिसके साथ जैनब का रिश्ता बताते थे
अकमल - जैनब का दूसरा प्रेमी 


मेरे विचार

'प्रेम प्यासी' तहकीकात पत्रिका के  चौथे अंक में प्रकाशित अहमद यार खाँ की  एक उपन्यासिका है। यह एक सत्यकथा है जिसका हिंदी में अनुवाद  इश्तियाक खाँ द्वारा किया गया है। अनुवाद अच्छा हुआ है। 

अहमद यार खाँ पाकिस्तानी पुलिस अफसर थे जो कि आजादी से पहले ब्रिटिश भारत में भी पुलिस की नौकरी करते थे। उस दौरान वो जिन मामलों से दो चार हुए उन्हें उन्होंने लिखना शुरू किया और ऐसे ही मामला 'प्रेम प्यासी' के रूप में दर्शाया गया है। मूलतः यह रचना दो प्रेम प्यासियों की है। एक ऐसी जो प्रेम पाने के चक्कर में रास्ता भटक गई और प्रेम पाते ही वह सही रास्ते में आने लगी थी और एक ऐसी प्रेम प्यासी की जिसने प्रेम पाने के अपने स्वार्थ के चलते हत्या जैसा जघन्य अपराध किया। 

कहानी की शुरुआत एक अट्ठारह वर्षीय युवती के कत्ल से होती है। यह कत्ल उसी बस्ती में हुआ है जिस बस्ती  से कथावाचक का एक मामला और भी जुड़ा था। साजिश में उस बस्ती का जिक्र है। यह एक ऐसा इलाका जहाँ कातिल का पता लगाना मुश्किल है। लेखक इलाके के बार में लिखते हैं 

इन झुग्गियों और कच्चे मकानों में मजदूरी करने वाले और छोटे-छोटे जुर्म करने वाले लोग रहते थे। ... उनमें कोई धार्मिक उन्माद नहीं था। एक दूसरे के अपराध पर् पर्दा डाले रखते थे। चोरी का माल वहाँ गायब हो जाता था। एक घर में जुआ चल रहा हो तो पड़ोसी चौकीदारी करते थे। वहाँ के किसी घर पर पुलिस छापा मार दे तो कभी सफल नहीं होता था। .... वहाँ कोई वारदात हो जाती तो पुलिस परेशान हो जाती थी। यह लोग पुलिस की मारपीट और अपमान की कोई परवाह नहीं करते थे। (पृष्ठ 12)

प्रथम पुरुष में कथानक आगे बढ़ता है और कथानक को हम इंवेस्टिगेटिंग अफसर के नजरिए से देखते हैं। लाश मिलने के बाद तहकीकात कैसे आगे बढ़ती है। पूछताछ, सबूतों  और अपनी सूझ बूझ के बल पर् किस तरह कथावाचक मामले को सुलझाता है ये कथानक में दिखता है। इस दौरान कथावाचक पुलिस के रवैये, पुलिस  के तौर तरीके, उनकी आदतों को भी बीच बीच में बताता रहता है जिससे पुलिस के काम करने के तरीके से भी पाठक वाकिफ होते हैं। उदाहरण देखिए:

मेरी जो शामत आई तो इसी बस्ती में नौजवान लड़की की हत्या हो गई। यदि यह घटना पाकिस्तान की किसी बस्ती में होती तो वह कागजों में गुम कर दी जाती परंतु यह दौर अंग्रेजों का था और उसके साथ मेरा ईमान भी पक्का था। मेरे लिए बँगले की मेम और गरीब की बच्ची समान थी। (पृष्ठ 12)

किसी संदिग्ध की आत्महत्या पुलिस के लिए शुभ समाचार हुआ करती है। पुलिस कुछ गवाहियाँ तैयार करके इस रिपोर्ट पर हत्या की तफतीश गोल कर देती है कि हत्यारे ने हत्या कर आत्महत्या कर ली है। ए एस आई और हेड कांस्टेबल ने मुझे सलाह दी के चलो छुट्टी हुई साहब, गवाही हम ले आते हैं। (पृष्ठ 18)

पुलिस तमाम संदिग्ध व्यक्तियों के साथ एक जैसा व्यवहार नहीं करती। कम से कम मेरा तरीका यही था कि आरोपी की भावनात्मक कमजोरियों को समझ कर उनके अनुसार पूछताछ किया करता था। यह औरत जिस प्रकार की ठि उस प्रकार को मैं अच्छी तरह समझता था। (पृष्ठ 34)

तफतीश में यही खराबी होती है कि कभी कभी केवल एक शब्द या जरा सा एक प्रश्न पत्थर जैसे अपराधी के मुँह से निकल कर उसे रेत का ढेर बना देता है और कभी तफ्तीश करने वाले अफसर के मुँह से गलत शब्द निकल जाता है और अपराधी अपना बचाव इतना मजबूत कर लेता है कि उस पर् अपराध सिद्ध नहीं हो सकता। (पृष्ठ 35)
इसके अतिरिक्त किरदारों के रूप में बस्ती के लोगों और बंजारों का भी उधर जिक्र है। जिस प्रकार के बंजारों का उधर जिक्र है और उनकी जो संस्कृति लेखक ने दर्शाई है वह मुझे व्यक्तिगत तौर पर् रोचक लगी। मेरा मन इनके विषय में अधिक जानकारी लेने का हो गया। कोशिश करूँगा कि कुछ और जानकारी जुटा पाऊँ। 

तहकीकात के दौरान कैसे कई बार इंवेस्टिगेटिंग अफसर भी गलत हो सकता है यह भी इधर दिखता है लेकिन अगर सबूत का दामन थामकर व्यक्ति आगे बढ़ता जाए तो मामला खुल ही जाता है। हाँ, इसमें अपराधी की थोड़ी नासमझी का भी हाथ होता है जैसे इसमें एक सबूत के रूप में कुर्ते का बटन होता है और अपराधी वही कुर्ता पहनकर पुलिस स्टेशन आ जाता है। ये भी हो सकता है क्योंकि अपराधी गरीब तबके का था तो शायद उसके पास और कोई चारा भी न रहा हो। 

एक तरफ तो लेखक तहकीकात करते हैं लेकिन इस तहकीकात और किरदारों के बहाने समाज पर भी टिप्पणी होती है। घर परिवार से प्रेम न मिले तो कैसे बच्चों के कदम भटक जाते हैं और बाहर प्रेम तलाशते हैं। वहीं कैसे प्रेम की चाहत किसी का मानसिक संतुलन भी बिगाड़ देती है यह भी इधर दिखता है। गरीब तबके की दिक्कतें, उनकी परेशानियाँ भी इधर दिखती है।  

कथानक रोचक है और इसमें मोड़ भी आते हैं। अंत तक आते आते कातिल का पता भी आप लगा लेते हैं लेकिन चूँकि यह असल मामला है तो अधिक ट्विस्ट की उम्मीद करना बेमानी है। हाँ, कथा के आखिर में ऐसा प्रसंग जरूर है जो कि न्याय व्यवस्था की एक कमी को जरूर उजागर करता  है। 

भाषा सहज सरल है। चूँकि यह एक सत्य कथा है तो लेखक ने ज्यादा बढ़ा चढ़ा कर लिखने की जरूरत महसूस नहीं की है। न ही परिवेश के ऐसे विवरण हैं जो कि उस जगह को उतना सजीव बनाएँ। यही कारण है कि यह पढ़ते हुए कई बार एक रिपोर्ट पढ़ने का का अहसास होता है। लेखक अनावश्यक विवरणों से बचे हैं। कई जगह यह जरूर लिखा है कि उन्होंने बयानों को संक्षिप्त कर दिया। ऐसे में मैं सोच रहा था कि अगर एक उपन्यासकार लेखक के साथ मिलकर इसे लिखता तो शायद अभी जितना यह रोचक है उससे कहीं अधिक रोचक यह रचना बन सकती थी। 

अंत में यही कहूँगा कि यह एक रोचक सत्यकथा है। अगर पुलिस की कार्यशैली में आपकी रुचि तो आपको इसे पढ़ना पसंद आएगा।



पुस्तक लिंक: अमेज़न


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