नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

खोये शहर की खोज - वेद प्रकाश कांबोज | नीलम जासूस कार्यालय

संस्करण विवरण:

फॉर्मैट: पैपरबैक | पृष्ठ संख्या: 148 | प्रकाशन: नीलम जासूस कार्यालय 

पुस्तक लिंक: अमेज़न

खोये शहर की खोज - वेद प्रकाश कांबोज | नीलम जासूस कार्यालय

कहानी 

राजनगर के होटल डी गारिका में दीपक मेहरा का कत्ल कर दिया गया था। 

उसके पिता प्रोफेसर जगदीश मेहरा का कहना था कि वह राजानगर एक विशेष चित्र के लिए आया था जिससे उन्हें एक खोया हुआ शहर खोजने में मदद मिलने वाली थी। 

होटल वालों का कहना था कि दीपक से मिलने आखिरी बार उसकी प्रेमिका मीना आई थी। 

आखिर किसने किया था दीपक का कत्ल?

जब पुलिस वालों की तहकीकात पर दीपक के पिता जगदीश मेहरा को विश्वास न हुआ तो उन्होंने विजय को यह मामला सौंपा। 

क्या विजय मामले की असलियत का पता लगा पाया? 


मुख्य किरदार 


भगवतीलाल - रागमहल के निकट मौजूद बाजार का एक एंटीक डीलर
वेनीमल -एक जाल साज कलाकार
सतपाल - भगवती का भांजा
बसंत - भगवती का दूसरा भांजा
दीपक मेहरा  - एक युवा पुरातत्वेत्ता 
प्रोफेसर जगदीश मेहरा - दीपक के पिता और एक वरिष्ठ पुरातत्वेत्ता 
डॉक्टर माथुर - जगदीश मेहरा के साथी
मीना - दीपक की प्रेमिका
गोपाल मेहता - मीना का भाई
बलवंत मेहरा - दीपक का चाचा
रघुनाथ - पुलिस सुप्रीटेंडेंट
फन्ने खां तातारी, गोकुल मदारी, कुंदन कबाड़ी - इंस्पेक्टर
विजय - सीक्रेट सर्विस का जासूस और नायक
पूरण सिंह - विजय का नौकर
रैना - रघुनाथ की पत्नी
अशरफ - विजय का साथी
राजनाथ - एक अपराधी जो तस्करी के धंधे में था
जमशेद - एक अपराधी जो कि राज नाथ का साथी रहा था और अब एक रेस्टोरेंट चलाता था
प्रताप - राजनाथ का आदमी


मेरे विचार 

'खोए शहर की खोज' (Khoye Shahar Ki Khoj) वेद प्रकाश कांबोज (Ved Prakash Kamboj) द्वारा लिखित उपन्यास है जो कि नीलम जासूस कार्यालय (Neelam Jasoos Karyalay) द्वारा प्रकाशित किया गया है। 

'खोए शहर की खोज' (Khoye Shahar Ki Khoj) मूलतः एक रहायकथा है जिसमें जो घटनाएँ होती हैं वह एक ऐसे शहर की तलाश की इच्छा के कारण होती है जो कि किरदारों के अनुसार समय की रेत में कहीं खो गया है। अक्सर पुरातत्ववेत्ता ऐसे शहरों की खोज करते रहते हैं जहाँ पुरानी सभ्यता रहा करती थी। यह शहर भी ऐसी ही किसी सभ्यता द्वारा कभी बसाया गया समझा जाता है। इसी शहर की तलाश मकतूल दीपक को राजनगर लाती जहाँ उसे अपनी वांछित वस्तु तो मिल जाती हैं लेकिन वह अपनी जान से हाथ धो देता है। हत्या क्यों हुई यह तो साफ रहता है लेकिन हत्या किसने की यह एक ऐसा रहस्य रहता है जिसको सुलझाने के लिए विजय कहानी में आता है। 

उपन्यास कथानक ज्यादा घुमावदार नहीं है। एक कत्ल होता है और उसके आधार पर जो सबूत मिलते हैं उसी का हमारा नायक विजय पीछा करता है। तहकीकात का तरीका यथार्थ के निकट लगता है। नायक लगभग अंत तक कातिल से अंजान रहता है लेकिन वह अपना तरीका नहीं छोड़ता है। तहकीकात सबूत मिलने पर आगे भी बढ़ती है तो उसकी कमी के चलते अटकती भी है। कैसे तहकीकात में सबूत, तहीकीकात करने वाले की दूरदर्शिता, अपराधी की नासमझी और कई बार अँधेरे में छोड़े गए तीरों का सटीक बैठना शामिल होता है यह भी इधर दिखता है।  

चूँकि उपन्यास में पुरातत्ववेत्ता हैं तो लेखक ने इनके बहाने पुरातत्व और मनुष्य के इतिहास से संबंधी कई बातें की हैं जो कि पाठक की जानकारी में वृद्धि करने का काम करती है। 

कथानक की कमी की बात करूँ तो मुख्य खलनायक और नायक की भिड़ंत जितनी रोचक हो सकती थी उतनी रोचक नहीं बन पड़ी है। उसके बनिस्पत मुख्य खलनायक के एक महत्वपूर्ण गुर्गे से हुई नायक की भिड़ंत अधिक मनोरंजक थी। अगर आखिरी लड़ाई थोड़ा अधिक मनोरंजक होती तो उपन्यास और अधिक रोमांचक हो सकता था। 

उपन्यास का नायक विजय है और वह अपने मजाकिया व्यवहार के लिए जाना जाता है। कई बार उसका यह व्यवहार अहमकाना भी हो सकता है। उपन्यास में उसका यही किरदार देखने को मिलता है लेकिन वह अपने फलसफे भी इधर जाहिर करता है फिर वह जासूसी के विषय में हो या ज़िंदगी जीने के विषय में हो। 

"दरअसल जो तारीफ मैंने आपकी सुनी उसके अनुसार मैं आपको एक गंभीर व्यक्ति समझ रहा था।" प्रोफेसर मेहरा ने कहा - "लेकिन फोन पर आपके उन्मुक्त व्यवहार का आभास पाकर मुझे कुछ अजीब सा लगा।"

"अजीब सा कुछ भी नहीं है, प्रोफेसर साहब।" विजय लापरवाह स्वर में बोला-"अनेक ऋषि-मुनि, विचारक और चिंतक इसी खोज में मर गए, जीवन किस ढंग से जीना चाहिए, हम भी किसी दिन इस दुनियाए फ़ानी से कूच कर जाएँगे। इसलिए सोचते हैं कि अगर हँसी-खुशी ज़िंदगी बीत जाए तो अच्छा है। यह ज़िंदगी जीने का अपना-अपना तरीका है, किसी को पसंद आ सकता है किसी को नापसंद। बेहतर यही है कि  जिस ढंग से आदमी को संतोष प्राप्त होता हो उस ढंग से ज़िंदगी जी ले, क्या ख्याल है" (पृष्ठ 53)

उपन्यास में रघुनाथ मौजूद है और उसके और विजय के बीच का समीकरण मनोरंजक रहता है। वह कई जगह हास्य भी पैदा करता है। इसके अतिरिक्त उपन्यास में तीन इन्स्पेक्टर फन्ने खां तातारी, गोकुल मदारी, कुंदन कबाड़ी भी हैं। इनकी हरकतें भी हास्य भी पैदा करते हैं। 

लेखक वेद प्रकाश कांबोज के परिवार की एक एंटीक शॉप हुआ करती है और वह अक्सर वहाँ बैठते थे। लेखक ने वहाँ हुए अपने अनुभवों के आधार पर राजनगर के रागमहल का खाका खींचा है जो कि यथार्थ के निकट लगता है। लाला और उसके भाँजो का ग्राहकों के प्रति व्यवहार, उनकी ग्राहक को पहचाने का तरीका या ग्राहक की पहचान कर उनके भावों में आते बदलाव सभी बड़ी कुशलता से दर्शाये गए हैं। यह चित्रण हास्य भी पैदा करता है विशेषकर तब जब वह सरकारी मुलाजिमों के अनुभवो का विवरण अपनी शेखी बघारने के लिए करते हैं।

उपन्यास के बाकी किरदार भी कथानक के अनुरूप हैं।

उपन्यास की भाषा सहज और सरल रखी गई है। अगर आप भाषा की खूबसूरती के लिए उपन्यास पढ़ते हैं तो यह इधर इतना देखने को नहीं मिलती है। कई जगह लेखक ने मुंबइया या सिन्धी मिश्रित बोली का प्रयोग करने की कोशिश की है लेकिन लेखक वो फ्लेवर लाने में सफल नहीं हुई है। मुझे लगता है कि अगर वहाँ सीधी सरल हिंदी भाषा ही रखते तो बेहतर होता या फिर इस नवीन संस्करण में बोली को थोड़ा और समृद्ध बना सकते तो बेहतर होता।  
 
उपन्यास का शीर्षक 'खोए शहर की खोज' (Khoye Shehar Ki Khoj) है और उपन्यास में जो कुछ होता है वह एक खोये शहर की तलाश के कारण ही होता है परंतु यह शीर्षक पाठक के अंदर यह भ्रम भी पैदा कर सकता है कि कहीं यह खोए शहर की खोज में निकले किरदारों की कोई इंडियाना जोन्स, लारा क्रॉफ्ट टाइप साहसिक कारनामे को दर्शाता कोई एडवेंचर न हो। यह संशय तब अधिक होगा जबकि पाठक पुस्तक का शीर्षक ही देखकर पुस्तक ले। प्रस्तुत संस्करण में पुस्तक का ब्लर्ब उसके बैककवर पर मौजूद नहीं है लेकिन अमेज़न में मौजूद है। अगर लोग ऑनलाइन पुस्तक न लेकर ऑफलाइन लें तो यह समस्या आ सकती है कि वह किसी और अपेक्षा से उपन्यास खरीदें और पाने पर निराश हों। ऐसे में पुस्तक के बैककवर पर ब्लर्ब होता तो बेहतर होता। 

उपन्यास के इस संस्करण की बात करूँ तो वैसे तो उपन्यास छपाई उच्च गुणवत्ता वाले कागज पर हुई है लेकिन इसमें प्रूफ की काफी गलतियाँ मौजूद हैं।  कई जगह में को मैं लिखा है, किरदारों के नाम कई बार बदल जाते हैं जो कि कभी कभी पढ़ते हुए संशय भी पैदा करते हैं। यह गलतियाँ पढ़ने की लय को बिगाड़ती हैं और उसका मज़ा किरकिरा करती हैं। 

अंत में यही कहूँगा कि 'खोए शहर की खोज' मुझे रोचक उपन्यास लगा। हाँ, नायक और मुख्य खलनायक की भिड़ंत थोड़ा और रोमांचक हो सकती थी। अभी यह जल्दबाजी में निपटाई हुई लगती है। फिर भी उपन्यास में लेखक ने कोशिश की है कि अंत तक रुचि बनी रहे और वो इसमें काफी हद तक कामयाब भी रहे हैं। उपन्यास पढ़कर देख सकते हैं।


पुस्तक लिंक: अमेज़न


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2 Comments
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  1. इस उपन्यास को पढने की इच्छा रही है। कारण, मैं यह जानना चाहता था कि एक शहर कैसे खो गया और फिर उसे कैसे ढूंढा।
    आपकी समीक्षा ने कुछ बातों को स्पष्ट किया है।
    धन्यवाद

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी लेख आपके काम आया यह जानकर अच्छा लगा। आभार।

      Delete

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