नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

पासे पलट गए - वेद प्रकाश कांबोज | जी पी एच बुक्स

 संस्करण विवरण:

फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 122 | प्रकाशक: जीपीएच बुक्सशृंखला: विजय

पुस्तक लिंक: अमेज़न

दाँव खेल - वेद प्रकाश कांबोज । समीक्षा । हिंदी । गुल्लीबाबा

कहानी 

हुचांग को चीनी जासूसी संस्था के चीफ ने विजय के कब्जे से वह जरूरी कागजात लेने की जिम्मेदारी दी थी जिनके माध्यम से वह भारत की आने वाली योजनाओं की जानकारी पा सकते थे।

हुचांग ने अपना जाल इस तरह फैलाया था कि विजय तेहरान के अपने कमरे में मौजूद होटल में फँस कर रह गया था। वह वहाँ से कहीं जा नहीं पा रहा था। 

वहीं विजय के दो साथी फ़न्ने खाँ तातारी और कुंदन कबाड़ी तेहरान उसकी मदद को जरूर आए थे लेकिन अब  वह दो अलग अलग दिशाओं में बढ़ चुके थे। हुचांग ने कुंदन कबाड़ी को अफगानिस्तान में थामकर उसे अपना मोहरा बना लिया था और साथ ईरान के शहर तबरिज में मौजूद तातारी पर उसकी नजर किसी बाज के मानिंद टिकी हुई थी। 

आखिर क्यों विजय ने इन लोगों को दो अलग अलग दिशाओं में भेजा था?
आखिर विजय अपने कमरे में बंद रहकर क्या कर रहा था?
वह जरूरी दस्तावेज कहाँ थे और वह कैसे भारत ले जाये जाने थे? 

यह सभी वह प्रश्न थे जो हुचांग के दिमाग में भी चल रहे थे और वह इनके जवाब पाने के लिए मरे जा रहा था। 

आखिर हुचांग और विजय के बीच चल रहे इस खेल का क्या नतीजा होना था? 


मुख्य किरदार

विजय - भारतीय जासूस
हुचांग - चीनी जासूस
प्याओ - शुंग - हुचांग का मातहत
फ़न्ने खाँ तातारी - भारतीय जासूस 
कुंदन कबाड़ी - भारतीय जासूस
ओस्लो - एक अफ्रीकी 
काबुल खां - हेरात में मौजूद बार का बारटेंडर
डोरोथी - एक यूरोपियन लड़की
कुतुब फौजी - हुचांग का आदमी 
चेरोव - एक रूसी अफसर


मेरे विचार

'पासे पलट गए' वेद प्रकाश कांबोज के उपन्यास दाँव खेल का आगे का भाग है। यह उपन्यास गुल्ली बाबा द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'दाँव पेंच- पासे पलट गए' में संकलित है।

‘पासे पलट गए’ की कहानी वहीं से शुरू होती है जहाँ पर दाँव खेल  की कहानी खत्म हुई थी। दाँव खेल  के अंत में हम पाते हैं कि हुचांग ने विजय और उसके साथियों तातारी और कुंदन कबाड़ी पर अपना जाल मजबूती से डाला हुआ है। कुंदन को तो वो अपने कब्जे में ले लेता है और उससे जरूरी जानकारी हासिल कर देता है। इसके साथ ही वह कुंदन को अपने साथ मिलाकर एक योजना भी बनाता है और कुंदन उस योजना पर कार्य भी करता है।
 
प्रस्तुत उपन्यास में इसके आगे की कहानी हमें पता चलती है। उपन्यास में नवीन किरदार इक्का दुक्का ही आते हैं और उपन्यास का कथानक पुराने किरदारों को लेकर ही बुना गया है। जहाँ हमने दाँव पेंच में कुंदन को हुचांग के जाल में फँसते हुए देखते हैं वहीं इधर हम तातारी पर उसका फोकस देखते हैं। जैसे पिछले उपन्यास में कुंदन को विजय ने कुछ निर्देश दिए थे वैसे ही निर्देश तातारी को इस उपन्यास में मिलते हैं और हम उसे ईरान के एक कोने से दूसरे शहरों की तरफ जाते हुए देखते हैं। इसके साथ ही कैसे हुचांग उस पर नजर रखता है और कैसे उसे काबू में करने में सफल होता है यह भी देखते हैं।
 
पहले भाग में हुचांग और कुंदन के बीच एक समझौता होता है। इस समझौते का नतीजा क्या निकलता है यह भी हम इसमें देखते हैं। 

पहले भाग की तरह ही इस उपन्यास में विजय अपने कमरे से ही सारा खेल संचालित करते हुए दिखता है।
 
कथानक तेज रफ्तार है। चीजें एक के बाद एक होती है।  विजय के साथी यहाँ से वहाँ भागते दिखते हैं और हुचांग और पाठक के रूप आप भी यह सोचते रहते हैं कि आखिर में ये चल क्या रहा है। आपको बस समझ आता है तो यह कि इधर एक खेल चल रहा है और उसे चलते हुए आप देख रहे हैं। हुचांग और विजय के बीच चल रहे इस खेल में कौन जीतेगा और कैसे जीतेगा ये जानने के लिए आप उपन्यास पढ़ते चले जाते हैं।
 
अगर आप ऐसे जासूसी उपन्यास पढ़ने के शौकीन हैं जिसमें आपको गुप्तचर बहुत सारा एक्शन करते दिख रहे हों तो आपको एक पल को यह उपन्यास अजीब लग सकता है। पर अगर आप गुप्तचरी के विषय में जानकारी रखते हैं तो यह भी जानते होंगे कि असल में गुप्तचरी में एक्शन से ज्यादा दिमागी उठा-पठक चलती है। गुप्तचरों को क्योंकि अपना कार्य खामोशी से करना होता है तो उनकी कोशिश रहती है कि उनके अधिकतर काम बिना किसी अतिरिक्त शोर शराबे के हों ताकि किसी की नज़रों के सामने आए बिना वह अपना कार्य कर सकें। ऐसे में एक्शन की गुंजाइश बहुत अधिक नहीं रह जाती है। जरूरत पड़ने पर ही वह कुछ करते हैं। प्रस्तुत उपन्यास भी इसी श्रेणी का उपन्यास है। यहाँ खलनायक को नायक हैरतंगेज कारमानें करके नहीं बल्कि दिमाग से चाले चलकर चक्करघिरनी बनाते हुए परास्त करता है। उपन्यास जब खत्म होता है तो आप नायक की तारीफ किए बिना नहीं रह पाते हैं। 

उपन्यास की भाषा शैली सीधी सरल है। बीच बीच में मौजूद झकझकियाँ आपका मनोरंजन करती है। इसके पहले भाग में विजय के बजाए कुंदन और तातारी झकझकी करते दिखे थे। इस भाग में भी वह दोनों ही मुख्य रूप से झकझकी गाते दिखते हैं। विजय की झकझकी आती है लेकिन वह आखिर में है और थोड़ा कम।

 विजय अपने मज़ाकिया लहजे के लिये जाना जाता है लेकिन इस उपन्यास में  विजय का वह खिलंदड़ स्वभाव कम देखने को मिलता है लेकिन तातारी और कुंदन के किरदार हास्य की इस कमी को पूरा कर देते हैं। 

खलनायक के रूप में हुचांग खतरनाक है। यहाँ हम उसकी शारीरिक शक्ति भी देखते हैं। मुझे व्यक्तिगत तौर पर फुल ऑन एक्शन वाले उपन्यास पसंद आते हैं इसलिए मुझे उम्मीद थी विजय और हुचांग के बीच भी एक्शन दिखेगा लेकिन ऐसा नहीं होता है। इधर मुझे निराशा तो हुई थी लेकिन तब तक मैं समझ गया था कि यह उस तरह का उपन्यास नहीं है तो इस निराशा से जल्दी उभर भी गया। 

उपन्यास की कमी की बात करूँ तो ऐसी कोई कमी मुझे इसमें नहीं दिखी। इक्का दुक्का वर्तनी की गलतियाँ इसमें थी जो इतनी नहीं थीं कि पढ़ने की लय को बाधित करें।  हाँ, पहले पहल  इसका क्लाइमैक्स पढ़ते हुए मुझे लगा था कि नायक खलनायक के बीच का द्वंद और नाटकीय हो सकता था लेकिन फिर सोचा कि उपन्यास के केंद्र में बात ही यही थी कि नायक खलनायक को उतना खतरनाक नहीं समझता है और उसका  इतनी आसानी से अंत करके वह अपनी बात साबित करता सा ही प्रतीत होता है।


 अंत में यही कहूँगा कि उपन्यास मुझे तो पसंद आया। इस उपन्यास को पढ़ने के बाद आप विजय के प्रशंसक बन जाएँगे।  हाँ, अगर आपको ऐसे हीरो पसंद आते हैं जो दिमाग कम और हाथ ज्यादा चलाते हों तो शायद यह उपन्यास इतना पसंद न आए।



पुस्तक लिंक: अमेज़न

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