नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

दाँव-खेल - वेद प्रकाश कांबोज | गुल्लीबाबा - जीपीएच बुक्स

संस्करण विवरण:

फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 95 | प्रकाशक: जीपीएच बुक्स | शृंखला: विजय

पुस्तक लिंक: अमेज़न

दाँव खेल - वेद प्रकाश कांबोज । समीक्षा । हिंदी । गुल्लीबाबा

कहानी 

चीनियों के अनुसार भारत और रूस के बीच एक वार्ता हुई थी और उस वार्ता के बाद कुछ जरूरी दस्तावेज रूस से भारत भेजे जाने वाले थे। यह जिम्मेदारी विजय को सौंपी गई थी।

पहले ही चीनी भारत के एक उपग्रह आर्यभट्ट को अंतरिक्ष में जाने से नहीं रोक पाए थे और इससे वो परेशान थे। वह चाहते थे कि इस बार भारत की योजना को असफल कर लें। इसके लिए जरूरी था कि किसी तरह विजय से यह दस्तावेज हथिया लिए जाएँ और इसके लिए चीनी जासूस हुचांग को बुलाया गया था। 

खेल शुरू हो चुका था और दोनों खिलाड़ियों द्वारा दाँव खेला जा रहा था। 

हुचांग और विजय के बीच शुरू हुए इस जासूसी खेल पर किसके दाँव भारी पड़े?

क्या चीनियों की जानकारी दुरुस्त थी?

क्या विजय हुचांग से दस्तावेज की सुरक्षा कर पाया?


किरदार 

विजय - भारतीय जासूस
हुचांग - चीनी जासूस
पापारोव - एक रूसी व्यक्ति
प्याओ - शुंग - हुचांग का मातहत
मुहम्मद गुंजी - हुचांग का ईरानी साथी
फिन से - हुचांग का साथी
फ़न्ने खाँ तातारी - भारतीय जासूस 
कुंदन कबाड़ी - भारतीय जासूस
ओस्लो - एक अफ्रीकी 
काबुल खां - हेरात में मौजूद बार का बारटेंडर
डोरोथी - एक यूरोपियन लड़की

मेरे विचार

दाँव खेल वेद प्रकाश कांबोज का लिखा उपन्यास है जिसे गुल्लीबाबा डॉट कॉम की जीपीएच बुक्स द्वारा सन 2018 में 'दाँव खेल - पासे पलट गए' के रूप में प्रकाशित किया गया था। यह कहानी दो भागों में विभाजित है और इस संस्करण में दोनों ही भाग मौजूद हैं। 

दाँव खेल इस कहानी का प्रथम भाग है। इस भाग के केंद्र में विजय और हुचांग हैं। हुचांग एक खतरनाक चीनी जासूस है जिसने कभी हार का मुँह नहीं देखा है। उसे चीन की जासूसी संस्था का चीफ एक मिशन सौंपता है। 

बॉस संक्षिप्त परिचय देकर चुप हो गया तो हुचांग ने पूछा - "क्या अब इन दो नामों के उपग्रह छोड़ने की तैयारी की जा रही है?"

"कह नहीं सकता।" बॉस ने अपने गिलास में से घूँट भरते हुए कहा - "मगर ये दो नाम सुनने में आए हैं।"

"मैं कुछ समझा नहीं।"

"एक भारतीय शिष्टमंडल मॉस्क गया हुआ है।" बॉस ने कहा-"ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि भारत और रूस के बीच कोई गुप्त समझौता होने जा रहा है। इसी सिलसिले में वहाँ इन दो नामों की भनक पड़ी। हो सकता है कि इन दोनों नामों से अथवा इनमें से किसी एक नाम से कोई योजना शुरू की जाए। अगर ऐसा है तो हमें यह मालूम होना चाहिए कि यह योजना क्या है।"

हुचांग ने खामोशी से साँप का एक टुकड़ा मुँह में रखा और चबाने लगा। 

वह सोच रहा था। 

बॉस हुचांग के चेहरे का नरीक्षण करता रहा फिर बोला - "ऐसा भी पता चला है कि उस कार्यक्रम की रूपरेखा मॉस्को में तैयार की जाएगी लेकिन उसे कार्यरूप भारत में दिया जाएगा। अपने सूत्रों से यह भी आभास मिल है कि योजना की रूप रेखा भारत तक सुरक्षित पहुँचाने का काम्, वहाँ के जासूस विजय को सौंपा गया है।" (पृष्ठ 8)

अब हुचांग का काम विजय से जरूरी कागजात पाने हैं। हुचांग विजय से वाकिफ है और वह विजय से कागजात पाने के लिए क्या क्या करता है यह उपन्यास का कथानक बनता है। 

प्रस्तुत उपन्यास का ज़्यादतर घटनाक्रम ईरान और अफगानिस्तान में घटित होता है। आज के समय में ईरान और अफगानिस्तान का जो रूप है उससे अलग रूप उधर देखने को मिलता है। हुचांग विजय से दस्तावेज पाने के लिए क्या क्या हथकंडे अपनाता है और विजय किस तरह से उसके इन हथकंडों को विफल करता है यह देखना रोचक रहता है। यह उपन्यास 95 पृष्ठ में फैला हुआ है। कथानक तेज रफ्तार है। चूँकि पृष्ठ सीमित हैं तो कथानक के भटकने की कोई गुंजाइश नहीं है।

कथानक में विजय और हुचांग के अतिरिक्त मुख्य किरदार फ़न्ने खाँ तातारी और कुंदन कबाड़ी मौजूद हैं। यह दोनों मस्त मौला इंसान हैं। मैंने आज तक केवल यह सुना था कि विजय झकझकी उस्ताद है लेकिन मौजूदा उपन्यासों में झकझकी हमें विजय से नहीं बल्कि इन दोनों से सुनने को मिलती हैं। यह दोनों उपन्यास में हास्य पैदा करते हैं और यह भी समय-समय पर साबित करते हैं कि भले ही बेवकूफ दिखे लेकिन ये बड़े तेज तर्रार हैं। हाँ, संयम में विजय से कम ही यह ठहरते हैं।  

हुचांग उपन्यास का खलनायक है और एक खतरनाक जासूस है। यह कई बार विजय और उसके साथियों पर भारी पड़ता दिखता है जो कि कथानक को रोचक बनाता है। इस उपन्यास में उसकी और विजय का आमना सामना एक आध बार ही होता है। उम्मीद है इनकी ढंग से मुलाकात अगले भाग में होगी। 

अभी उपन्यास जिस जगह अंत होता है वह अगले भाग के प्रति उत्सुकता जगाता है। विजय ने हुचांग की नाक के नीचे से दस्तावेज ले जाने के लिए जो चाल चली है उससे न केवल हुचांग बल्कि पाठक भी चक्कर में आ जाता है। 

कागजात भारत कैसे पहुँचाएँ जाएँगे यह देखने के लिए मैं उत्सुक हूँ और ये लेख लिखने के बाद दूसरे भाग को शुरू करने वाला हूँ।

उपन्यास के भाषा शैली की बात करूँ तो यह एक सरल भाषा में लिखा गया उपन्यास है। अगर आप उपन्यास पढ़ते हुए ऐसे वाक्य की तलाश में रहते हैं जो कि सूक्ति की तरह हों या जो आपको ठहरने पर मजबूर करें तो ऐसे वाक्य आपको इधर नहीं मिलेगी। यहाँ फोकस केवल कथानक पर रखा गया है।

उपन्यास में वैसे तो कोई खास कमी नहीं है लेकिन चूँकि इसका कलेवर छोटा है तो उपन्यास में दाँव पेंच थोड़ा कम महसूस होते हैं। उम्मीद है अगले भाग को पढ़ते हुए यह कमी पूरी हो जाएगी।   

अगर ऐसे गुप्तचरी के उपन्यास आपको पसंद आते हैं जिसमें दो देशों के गुप्तचर एक दूसरे से जानकारी निकालने के लिए लड़ते भिड़ते हुए नजर आते हैं तो यह उपन्यास भी आपको पसंद आएगा। उपन्यास तेज रफ्तार है पठनीय है और एक बार पढ़ा जा सकता है। चूंकि यह उपन्यास आज से 30-40 साल पहले लिखा गया था तो इस चीज को ध्यान में रखकर इसे पढ़ेंगे तो इसका ज्यादा आनंद ले पाएंगे।

पुस्तक की अच्छी बात यह भी है कि कहानी का दूसरा भाग भी इसी जिल्द में मौजूद है तो आपको दूसरे भाग के लिए इधर उधर भागने की आवश्यकता नहीं है। एक भाग खत्म कर आप सीधे दूसरे भाग को पढ़ सकते हैं।

पुस्तक लिंक: अमेज़न


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2 Comments
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  1. वेदप्रकाश काम्बोज जी का उपन्यास काफी समय पहले पढा था।
    उपन्यास पर आपकी समीक्षा पठनीय है।
    धन्यवाद

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    Replies
    1. जी आभार। आपकी समीक्षा पढ़ी थी उस वक्त। लेख आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा।

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