नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

संध्या टॉकीज - रवि बुले | बॉलीवुड स्टोरी बॉक्स

संस्करण विवरण:

फॉर्मैट: ई-बुक | पृष्ठ संख्या: 10 | प्रकाशक: जगरनॉट | शृंखला: बॉलीवुड स्टोरी बॉक्स  



कहानी 

भास्कर घोष एक क्राइम रिपोर्टर था जिसे जब खबर मिली कि सूर्यदर्शन इमारत की लिफ्ट में एक लाश मिली है तो वह उस खबर की टोह लेने चला गया। वहाँ जाकर उसे ध्यान आया कि यह सूर्यदर्शन बिल्डिंग की लिफ्ट में मिलने वाली यह तीसरी लाश थी।  गुनाहगार का तो पुलिस कुछ पता नहीं लगा पायी लेकिन भास्कर को एक नई कहानी का आइडिया जरूर मिल गया। 

सूर्यदर्शन इमारत वहीं पर स्थित थी जहाँ पर कभी संध्या टॉकीज हुआ करती थी। दो ढाई साल चलने के बाद यह टॉकीज बंद हो गया था और फिर खंडहर में तब्दील हो गया था। 

सूर्यदर्शन इमारत को अभी उधर बने केवल तीन ही साल हुए थे। भास्कर घोष अब इस संध्या टॉकीज की कहानी जानना चाहता था। 

आखिर संध्या टॉकीज क्यों खंडहर हो गई थी? 

क्या इसका सूर्यदर्शन बिल्डिंग में होने वाले कत्लों से कोई नाता था?


मेरे विचार

संध्या टॉकीज लेखक रवि बुले की बॉलीवुड स्टोरी बॉक्स शृंखला की कहानी है। इससे पहले मैं इस शृंखला की दो रचनाएँ (पार्टी नोट्स: एक सुपरस्टार की बीवी  और बाघ, एक रात)पढ़ चुका हूँ और यह भी उन कहानियों की तरह फिल्मी दुनिया से जुड़ी हुई कहानी है। 

एक कत्ल की खबर से शुरू हुई यह कहानी संध्या टॉकीज के इतिहास की जाँच पड़ताल और इस पड़ताल के नतीजों पर आकर खत्म होती है। कहानी सीधी-सादी है और बिना किसी घुमाव के आगे बढ़ती है। 

कहानी में एक इमारत में होते हुए कत्ल हैं, उस इमारत का इतिहास है और एक क्राइम रिपोर्टर है जो कि इसके विषय में जानकारी चाहता है। यानी इसमें वो सभी तत्व हैं जिनको लेकर इसे एक उपन्यास नहीं तो कम से कम एक लघु-उपन्यास बनाया जा सकता था लेकिन लेखक ने इसे दस पेज में समेट कर मेरी नज़रों में इस कहानी के साथ अन्याय किया है।  

फिर चूँकि कहानी बॉलीवुड स्टोरी बॉक्स शृंखला की है तो लाजमी है इसे फिल्म या फिल्मवालों की दुनिया से जुड़ा हुआ होना था। यह जुड़ाव इधर है भी। एक तो शीर्षक ही संध्या टॉकीज है जो कि एक सिनेमा हॉल का नाम है वहीं संध्या जिसके नाम पर संध्या टॉकीज का नाम पड़ा था उसका भी फिल्मों से तालुक रहता है। लेकिन चूँकि कहानी छोटी है तो उतना उभर कर नहीं आ पाता है। अगर संध्या टॉकीज के इतिहास वाला हिस्सा विशेषकर संध्या और राणा यशवर्द्धन के जीवन में आए मुंबई वाले हिस्से को लेखक ने विस्तृत तौर पर दर्शाया होता तो यह हिस्सा और खिलकर आता।

कहानी का अंत भी जिस तरह से होता है वह भी मन में काफी सवाल छोड़ जाता है। क्या बूढ़े की कहानी असल बात थी या कोई कपोल कल्पना? अगर इसमें असलियत थी तो भास्कर ने इसके लिए क्या किया? क्या हत्यारी लिफ्ट में होने वाली हत्याएँ रुकीं? यह कुछ ऐसे प्रश्न हैं जो कहानी खत्म होने के बाद भी आपके मन में रह जाते हैं और एक असंतुष्टि का सा अहसास मन में जगाते हैं। 

कहानी में संध्या टॉकीज के इतिहास से जुड़ी जानकारी मुझे विशेष तौर पर अच्छी लगी। उम्मीद है लेखक कभी इसे विस्तृत तौर पर लिखेंगे। वह एक उपन्यास लिखेंगे और इसमें अपने पाठकों की राणा यशवर्द्धन, नरदेव प्रताप सिंह और संध्या से एक विस्तृत मुलाकात करवाएँगे। मैं उनकी दुनियाँ में खोना चाहूँगा।

अभी के लिए तो यही कहूँगा कि यह कहानी अभी मौजूदा रूप में जैसी है उससे कई बेहतर हो सकती थी। एक रोचक उपन्यास बनने के सारे गुण इसमें थे जो कि अभी जाया ही हुए हैं। 

 

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4 Comments
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  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (23-11-2022) को   "सभ्यता मेरे वतन की, आज चकनाचूर है"    (चर्चा अंक-4619) पर भी होगी।--
    कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

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    1. मेरी पोस्ट को चर्चा अंक में शामिल करने हेतु हार्दिक आभार, सर।

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  2. पुस्तक के बारे में रोचक जानकारी।
    पुस्तक की सफलता के लिए हृदय से शुभकामनाएं 🌹

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    1. लेख आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा। आभार।

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