नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

साक्षात्कार: नवप्रकशित उपन्यास 'अँधेरों का संगतराश' के लेखक 'संजय अग्निहोत्री' से बातचीत

 

साक्षात्कार : संजय अग्निहोत्री | Interview: Sanjay Agnihotri | अँधेरों का संगतराश | Andheron Ka Sangtarash

मूलतः रायबरेली उत्तर प्रदेश के संजय अग्निहोत्री आजकल सिडनी ऑस्ट्रेलिया में रहते हैं। उपन्यास, कहानी, कविता, व्यंग्य वह लिखते आयें हैं। हाल ही में साहित्य विमर्श प्रकाशन से उनका नवीन उपन्यास 'अँधेरों का संगतराश' आया है। इस अवसर पर  एक बुक जर्नल ने उनके साथ बातचीत की है। यह बातचीत उनके नवप्रकाशित उपन्यास के अलावा उनके लेखन पर भी केंद्रित रही। उम्मीद है यह बातचीत आपको पसंद आएगी। 

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साक्षात्कार : संजय अग्निहोत्री | Interview: Sanjay Agnihotri | अँधेरों का संगतराश | Andheron Ka Sangtarash


प्रश्न: नमस्कार संजय जी। सर्वप्रथम तो आपको आपके नवीन उपन्यास के प्रकाशन  के लिए हार्दिक बधाई। पाठकों को उपन्यास के विषय में कुछ बताएँ।

उत्तर: आपका हार्दिक आभार विकास जी।

ये उपन्यास रहस्य-रोमांच से भरी एक अपराध कथा है। परन्तु इस कथा में घटने वाले अपराध काल्पनिक नहीं हैं। यानी न तो जेम्स बॉन्ड जैसी कहानियों मे दिखाये जाने वाले अपराध हैं। न ही वो अपराध हैं जिनमें एक ग्रह या मुल्क दूसरे ग्रह या मुल्क के खिलाफ़ षडयन्त्र वगैरह करता है। क्योंकि ऐसे अपराधों से हमारे भारतीय समाज के सामाजिक जीवन का कुछ लेना देना नहीं है। इस कथा में वो अपराध हैं जो हमारे सामाजिक जीवन में मजबूती से जड़ें जमाए हैं और समाज को आज तक ठगते आए हैं तथा अभी भी ठग रहे हैं। जैसे कि - सिनेमा, धर्म, ईमान, राजनीति, व्यापारिक गुंडागर्दी, नशा, जरायम, नकली माल वगैरह से जुड़े अपराध।

‘अँधेरों का संगतराश’ इन्हीं अँधेरों में उजाले की किरण लाने का प्रयास है परन्तु रौचकता से समझौता किए बिना। 


प्रश्न: लेखक जब भी कुछ लिखता है तो उसे लिखने के लिए कोई न कोई चीज प्रेरित करती है। कभी कोई चित्र, कोई बात, कोई खबर आपको रचना रचने के लिए प्रेरित कर सकती है। ‘अँधेरों का संगतराश’ के मामले में वह उत्प्रेरक क्या था जिसने इस रचना को लिखने के लिए आपको प्रेरित किया?

उत्तर:  जब मैं इंजीनियरिंग का विद्यार्थी था तब वहाँ मेरा एक सहपाठी मित्र था धनंजय द्विवेदी। मैं अभी भी उससे सम्पर्क में हूँ। वो जितना अच्छा विद्यार्थी था उतना ही अव्वल दर्जे का मूर्तिकार और चित्रकार भी था। एक दिन उसने एक कच्ची पगडंडी पर टहलते हुए एक बरसात के पानी वाले गड्ढे से गीली पिड़ोर(काली मिट्टी) उठा कर एक सींक की मदद से आदिवासी महिला का चेहरा बना दिया था। उसकी सबसे खास बात थी कि वो बड़ी छेनी हथौड़ी से पत्थर को इंसानी आकार देने के बाद उस पर जीवन उकेरने का सारा बारीक काम हमेशा रात में करता था। छात्रावास में सबके सो जाने के बाद अचानक उसके कमरे से बेहद महीन छेनी हथौड़ी की हल्की ठुक ठुक सुनाई देने लगती। उस समय उसके कमरे का दृश्य किसी को भी रोमांचित करने को काफ़ी होता था। टेबल लैम्प की रोशनी उस अधबने बुत पर केंद्रित की हुई लेकिन कमरे की ट्यूब लाइट बुझी हुई यानी बाकी कमरा लगभग अँधेरे  में डूबा हुआ। बुत से परावर्तित हो कर उसके चेहरे पर पड़ती हल्की रोशनी में उस अधबने आदम बुत को अजीब नज़रों से घूरती उसकी आँखें, नींद से कोसों दूर, सुनार से भी धीमे छेनी हथौड़ी चलाता वो संगतराश किसी दूसरी दुनिया का बाशिंदा लगता था।


प्रश्न: 'अँधेरों का संगतराश' में दो मुख्य किरदार तो कलाकार हैं और संगतराश यानी मूर्तिकार हैं। क्या आपका इस कला के प्रति कोई विशेष रुझान रहा है? क्या आपको संगतराश के जीवन को जानने के लिए कोई विशेष रिसर्च करनी पड़ी?

उत्तर: जैसा कि मैंने बताया कि मेरा मित्र संगतराश है अतः इस विषय मे मुझे सभी आवश्यक जानकारी आसानी से मिल गई। बाकी सब मेरी कल्पना की उड़ान है।


प्रश्न: एक उपन्यास को लिखने के लिए आपको कई तरह की रिसर्च करनी पड़ती है। प्रस्तुत उपन्यास के लिए ऊपर की गई रिसर्च के अतिरिक्त आपको क्या रिसर्च करने की जरूरत पड़ी थी? किन किन बिंदुओं के लिए यह जरूरत पड़ी?

उत्तर: जीव विज्ञान जैसे कि म्यूटेशन आदि पर अध्ययन कर ये पता करना पड़ा कि जो कुछ मैं लिख रहा हूँ वो सैद्धांतिक रूप से सम्भव है या नहीं। इन्हीं कारणों से भौतिक विज्ञान जैसे कि वायु व अन्य माध्यम कैसे व्यवहार करते हैं। लाइट, विद्युत, हाई स्पीड हाई डिफिनीशन कैमरा इत्यादि पर भी काफ़ी रिसर्च करनी पड़ी थी।


प्रश्न: यह उपन्यास एक अपराध साहित्य है जिसमें पारलौकिक घटनाएँ भी घटित होती हैं। पारलौकिक घटनाओं पर क्या आप व्यक्तिगत जीवन में यकीन रहा है? क्या कुछ अनुभवों को पाठकों के साथ साझा करना चाहेंगे?

उत्तर: पारलौकिक घटनाओं पर यकीन करने के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता। ईश्वर स्वयं अनुभव करवा देता है। मानव फिर भी नकारता रहे तो उसका कोई इलाज नहीं।

अपने जीवन का एक अनुभव बताता हूँ। उन दिनों मैं उत्तर प्रदेश के जिला शाहजहाँपुर की तिलहर चीनी मिल में सहायक अभियन्ता के पद पर था। उस कार्यकाल में अक्सर मेरी गर्दन की कोई माँसपेशी खिंच जाती थी जिसके कारण गर्दन में कई दिनों तक बहुत दर्द होता था और गर्दन टेढ़ी करके चलना पड़ता था। इसे बोलचाल मे 'स्टिफ नेक' के नाम से जाना जाता है। इसमे दर्द निवारक दवाएँ भी बहुत कम असर करती हैं। एक बार ये दर्द इतना बढ़ा कि डॉक्टर ने मुझे दर्द कम करने के लिए इंजेक्शन दिया। उससे भी सिर्फ़ इतना फ़ायदा हुआ कि अगले दिन मैं किसी तरह उठकर चीनी मिल अपने कार्य पर जा सका। दर्द अभी भी बहुत हो रहा था। मैं दफ्तर मे किसी तरह कुर्सी पर बैठा था। तभी मेरे इंस्ट्रूमेंट मैकेनिक का सहायक मेरे पास आया और बोला, ‘साहब आप शायद भरोसा न करो लेकिन मिल के गेट पर जो बुज़ुर्गवार चाय की दुकान चलाते हैं वो इसे ठीक कर सकते हैं।’ 

मैंने सोचा दिखा लेने में हर्ज़ ही क्या है। दिखाने से दर्द बढ़ तो जाएगा नहीं। ये सोच के मैं इंस्ट्रूमेंट सहायक के साथ उन बुज़ुर्गवार को दिखाने चला गया। उसने इंस्ट्रूमेंट सहायक से नई फूल झाड़ू की सींके लाने को कहा। मिल के आस पास फूल झाड़ू की सींकों की तमाम झाड़ियाँ थीं। अतः वो तुरन्त ही सींके ले आया। उन बुज़ुर्गवार ने मुझे जमीन पर उकड़ूँ(जैसे टॉयलेट की खुड्डी पर बैठते हैं) बैठा दिया और सींकों के फूल वाले हिस्से से गर्दन के दर्द वाले स्थान पर सहलाते हुए कोई मंत्र पढ़ा। दर्द ग़ायब हो गया। उन्होंने ये प्रक्रिया तीन दिन तक रोजाना एक बार की और मैं पूर्णतया स्वस्थ हो गया। इस इलाज़ का कैसा भी विश्लेषण, आज तक कोई डॉक्टर, कोई फ़िज़ियोथेरापिस्ट या कोई काइरोपेक्टर मुझे नहीं दे पाया है। 

कई महीने गुजर जाने के बाद एक दिन फिर दर्द उठा। मैं फिर उनके पास गया। उन्होंने वही प्रक्रिया फिर तीन दिन तक की और मैं पुनः स्वस्थ हो गया। ऐसा कई बार हुआ। मुझे याद नहीं कितनी बार। परन्तु अंतिम बार का किस्सा सोच मुझे आज भी झुरझुरी आ जाती है। हुआ यूँ कि हर बार की तरह मेरी गर्दन मे दर्द उठा था। अतः मैं उनकी दुकान पर गया तो वो वहाँ नहीं थे सिर्फ़ उनका लड़का बैठा था। उसने बताया, ‘साहब, पिताजी को कई दिन से बुखार आ रहा था। कल ही उतरा था। अतः कमजोरी के कारण घर पर ही आराम कर रहे हैं। आप घर ही चले जाओ।’

मैं उनके घर गया। वो बुज़ुर्गवार बाहर निकल कर आए। उन्होंने आज फिर वही प्रक्रिया की और मुझे आराम भी आ गया। परन्तु जैसा कि मैंने बताया कि ये प्रक्रिया तीन दिन तक करानी पड़ती थी। अतः अगले दिन ये सोच कर कि आज शायद बुज़ुर्गवार दुकान आए होंगे मैं दुकान पर गया तो उनके लड़के ने बताया, ‘साहब, गयी रात उनका देहावसान हो गया।’

उसकी बात सुन मैं सन्नाटे में आ गया। मुझे आज तक ये सवाल सालता है कि क्या मेरी गर्दन के दर्द ने उन बुज़ुर्गवार की जान ले ली? क्योंकि तब से फिर वैसा दर्द कभी नहीं हुआ। ऐसी घटनाओं को लोग नज़रन्दाज़ कर देते हैं या इत्तिफ़ाक़ कहकर दिल को समझा लेते हैं।                 

वैसे जहाँ तक इस उपन्यास में घटी घटनाओं का ताल्लुक़ है उन्हें पारलौकिक फ़िक्शन के बजाय पारलौकिक या अलौकिक का तड़का लगा हुआ विज्ञान फ़िक्शन कहना अधिक न्यायसंगत होगा। 


प्रश्न: उपन्यास में वह कौन सा एक किरदार था  जिसे लिखते वक्त आपको सबसे ज्यादा मज़ा आया और ऐसा कौन सा किरदार जिसे ग़ढ़ने के लिए या जिसके मन को समझने के लिए आपको अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ी?

उत्तर: सबसे ज्यादा आनन्दित और रोमांचित किया जतिन जागीरदार के किरदार ने। 

शैफाली का मन जहाँ एक ओर एक राष्ट्रीय स्तर की शास्त्रीय नृत्यांगना व फिल्म अभिनेत्री की तड़क भड़क वाली नारी का है तो दूसरी ओर संवेदनशील नारी का ऐसी द्विपार्श्वीय मन वाली नारी के किरदार को ग़ढ़ने, उसके मन को पाठकों के लिए विश्वसनीय बनाने की हद तक समझने के लिए काफ़ी चिंतन करना पड़ा। 


प्रश्न: कहते हैं लेखक की हर रचना में उसका कुछ न कुछ भाग रहता ही है। क्या इस उपन्यास में भी कोई ऐसा किरदार है जिसमें आपका अक्स देखा जा सकता है?

उत्तर: इस बात का स्पष्ट उत्तर देना शायद सम्भव नहीं। क्योंकि हर अच्छे बुरे किरदार में कुछ न कुछ लेखक का अक्स या अक्स का ही दूसरा पहलू यानी उसकी चिढ़ होती ही है। इतना जरूर कह सकता हूँ कि बस यूँ समझ लें कि मेरे लिए ग़लती की मुआफ़ी देना तो लाज़मी है लेकिन बदमाशी या गुनाह की मुआफ़ी देना ग़ैर मुमकिन है। बाकी पाठक खुद अंदाज़ा लगायेंगे।


प्रश्न: आपके लिए रचना के शीर्षक का कितना महत्व है? क्या 'अँधेरों का संगतराश' इस रचना का मूल शीर्षक था या ये बदलाव होकर आया है?

उत्तर:  जी हाँ यही इस रचना का मूल शीर्षक था। दरअसल ये शीर्षक इस कथा के दोनों पहलुओं यानी अपराध जगत के अँधेरों और हमारे संगतराश दोनों पर सटीक बैठता है। मुझे खुशी है कि प्रकाशन को भी ये बेहद पसंद आया।


प्रश्न: संजय जी आप ऑस्ट्रेलिया में रहते हैं। वहाँ का अपराध साहित्य समृद्ध है। क्या आप वो भी पढ़ते हैं? भारत (विशेषकर हिंदी) और ऑस्ट्रेलिया अपराध साहित्य के बीच आप क्या फर्क पाते हैं? वहीं वहाँ के समाज और यहाँ के समाज के बीच इस तरह के साहित्य को लेकर जो सोच है उसमें आपको क्या फर्क और समानता दिखती है?

उत्तर:  पहली बात तो ये कि एक जमाने से मैंने भारत सहित कहीं का भी साहित्य पढ़ना बन्द किया हुआ है। क्योंकि मुझे अनुभव होने लगा था कि उससे मेरी शैली और सृजन क्षमता प्रभावित होकर अपनी मौलिकता खोने लगती है।

दूसरी बात ये कि ऑस्ट्रेलिया के अपराध जगत से आम जनता का जीवन अधिक प्रभावित न होने के कारण यहाँ जिस तरह का अपराध साहित्य है अथवा सम्भव है उससे मेरा कुछ लेना देना नहीं है।

सामाजिक दृष्टिकोण में जो सबसे बड़ा फ़र्क है वो ये कि यहाँ किसी भी व्यावहारिक पराकाष्ठा के चरित्र यानि इन्तिहाई किरदार मिलना लगभग असंभव है। यहाँ न तो देश पर मर मिटने वाले मिलते हैं न ही देश को बेच लेने वाले। चारो ओर दरमियाना अख़्लाक़ या बीच का चरित्र ही दिखता है। यानी अगर कहीं आग लगी हो तो लोग तुरन्त फ़ायर ब्रिगेड को खबर करते हैं। न तो अनदेखा करते हैं और न ही जोश में आ कर आग में कूद पड़ते हैं।


प्रश्न: आपके अभी तक लिखे सारे उपन्यासों की पृष्ठभूमि भारत ही रही है। क्या कभी ऑस्ट्रेलिया को केंद्र में रखकर भी कुछ लिखने का विचार है?

उत्तर: अभी भारत में ही इतना कुछ लिखने को बाकी है कि यदि वही पूरा कर पाऊँ तो अपने को खुशकिस्मत समझूँगा।


प्रश्न: अपराध साहित्यकार कई बार एक सीरीज किरदार को खड़ा करते हैं जो कई बार लेखक से ज्यादा मकबूल भी हो जाता है। आपका इसे लेकर क्या सोचना है? क्या आपने कभी ऐसे किरदार को रचने के विषय में सोचा है?

उत्तर: आपकी बात से मैं पूरा इत्तिफ़ाक़ रखता हूँ और ये पाठकों पर छोड़ता हूँ कि यदि पाठकों को कोई किरदार पसंद आता है तो उसे जरूर आगे बढ़ाऊँगा।


प्रश्न: आपने अपराध कथाओं से इतर सामाजिक ( जिसे गंभीर लेखन भी लोग कहते हैं) साहित्य (कहानी संग्रह: भेद भरी) भी लिखा है। दोनों लेखन में आप क्या फर्क महसूस करते हैं? क्या आगे जाकर ऐसा कोई सामाजिक उपन्यास लिखने का भी इरादा है? 

उत्तर: मेरे अनुभव के अनुसार जनमानस के मनोमस्तिष्क पर किसी भी सामाजिक संदेश की अमिट छाप छोड़ने में जितना अपराध साहित्य प्रभावी होता है उतना सामाजिक साहित्य या गंभीर लेखन नहीं कर पाता क्योंकि वो उपदेशात्मक प्रवचन का भाव जगाता है। बाकी बची प्रेम कथाएँ तो मेरे अनुसार- किताबों में छपते हैं चाहत के किस्से, हक़ीक़त की दुनिया में चाहत नहीं है।


प्रश्न: संजय जी क्या आप और भी किसी प्रोजेक्ट पर कार्य कर रहे हैं? क्या वह भी अपराध साहित्य हैं या इस विधा से इतर हैं? अगर पाठकों को आप बताना चाहें तो बता सकते हैं।

उत्तर: अब तक के अनुभव के अनुसार, बताने से मेरा काम खटाई में पड़ता आया है। इसलिए इस मामले में मैं थोड़ा अंधविश्वासी हो गया हूँ और कभी किसी को नहीं बताता कि मैं क्या लिख पढ़ रहा हूँ। मेरे परिवार के सदस्य भी सब इस बात को समझते हैं इसीलिए वो भी न तो जानते हैं न पूछते हैं कि मैं दिनभर क्या करता रहता हूँ।  


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तो यह थी साहित्य विमर्श प्रकाशन से प्रकाशित उपन्यास अँधेरों का संगतराश के लेखक संजय अग्निहोत्री से एक बुक जर्नल की बातचीत। उम्मीद है यह बातचीत आपको पसंद आई होगी। 

बातचीत के विषय में अपनी राय आप टिप्पणी के माध्यम से हमारे साथ साझा कर सकते हैं। अगर आप लेखक हैं और एक बुक जर्नल से अपनी पुस्तक पर बातचीत करना चाहते हैं तो हमसे contactekbookjournal@gmail.com  पर संपर्क कर सकते हैं।  


किताब के बारे में

पुराने जागीरदार का वारिस, अमेरिका में पला बढ़ा, शिक्षा, शौक व जुनून से बेजोड़ संगतराश, सुन्दरता प्रसिद्धि व दक्षता में उसी के समान उसकी संगतराश पत्नी और सामाजिक व राजनीतिक रूप से अत्यन्त शक्तिशाली उनका राजनेता मित्र अपने इर्दगिर्द हो रहे हादसों के कारण पुलिस के शक़ के घेरे मे हैं। 

एक ओर अपने सामाजिक जीवन से सामंजस्य बैठाने की प्रक्रिया में अपनी असाधारण शक्तियों जूझते ये तीनों हैं तो दूसरी ओर है इनकी प्रसिद्धि, सामाजिक व राजनीतिक शक्तियों से खौफ़ खाती, सही और ग़लत के बीच के फ़र्क को धुँधलाने वाले अजीब हादसों से भ्रमित पुलिस।

कौन है अँधेरों का संगतराश? क्या है उसकी बनाई मूर्तियों की खासियत? 


पुस्तक साहित्य विमर्श और अमेज़न पर उपलब्ध है। 

पुस्तक लिंक: साहित्य विमर्श 


उपन्यास का अंश निम्न लिंक पर जाकर पढ़ा जा सकता है:

उपन्यास अंश: अँधेरों का संगतराश


लेखक परिचय

संजय अग्निहोत्री, स्रोत: लेखक के फेसबुक अकाउंट से साभार

वर्तमान मे सिडनी निवासी संजय अग्निहोत्री, मूलतः उत्तर प्रदेश के रायबरेली शहर से हैं। पब्लिक रेलेशन्स सोसाइटी भोपाल द्वारा साहित्य सम्मान से सम्मानित व उच्च शिक्षा (एम. एससी. यूनिवर्सिटी ऑफ न्यू साउथ वेल्स केन्सिंग्टन) प्राप्त श्री संजय अग्निहोत्री रहस्य रोमांच और अपराध जगत पर उपन्यास लिखने में सिद्धहस्त हैं। 

ये छोटी सामाजिक समस्याओं पर कहानियाँ, व्यंग्य और कवितायें तथा दुरूह व पुरानी गम्भीर समस्याओं पर उपन्यास लिखते हैं। 

चार उपन्यास, एक कथा संग्रह, कई साझा संकलनों के अतिरिक्त, आपने इक्कीसवी सदी के तदयुगीन इक्कीस महत्वपूर्ण कवियों के संकलन में प्रतिष्ठा पाई है तथा एक अंतरराष्ट्रीय कविता संग्रह का सम्पादन भी किया है। इसके अतिरिक्त “दैनिक भास्कर”, “नूतन कहानियाँ” व अन्य स्थानीय पत्रिकाओं में इनकी कवितायें, कहानियाँ तथा व्यंग्य प्रकाशित होते रहते हैं। 

(स्रोत: साहित्य विमर्श वेबसाईट )

संपर्क: 

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2 Comments
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  1. बढ़िया साक्षात्कार विकास जी........ 👍👍👍👍👍👍👍..... चाय वाले बुजुर्ग के गर्दन ठीक करने के नुक्शे.......... ये बताते हैं कि विज्ञान को अभी काफ़ी कुछ जानना बाकी है........ 😊😊😊😊😊😊😊

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