नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

एक सीधी-सपाट औसत कॉमिक है ‘काँच के कातिल’ | तुलसी कॉमिक्स | तरुण कुमार वाही

 संस्करण विवरण

फॉर्मैट: ई-बुक | प्रकाशक: तुलसी कॉमिक्स | प्लेटफॉर्म: प्रतिलिपि | लेखक: तरुण कुमार वाही | चित्रांकन: राम वाईरकर | सम्पादन: प्रमिला जैन

पुस्तक लिंक: प्रतिलिपि



कहानी 

वैज्ञानिक अनुसंधान प्रयोगशाला से किसी ने ऐसी काँच की गेंदे उठा दी थी जिनमें जानलेव वायरस मौजूद था। यह वायरस इतना खतरनाक था कि किसी भी इंसान की जान लेने का सामर्थ्य रखता था। 

और इसी चीज का फायदा अब चोर उठा रहे थे। 

वह लोग खुद को काँच के कातिल कह रहे थे और इन चुराई ही काँच की गेंदों की मदद से अपराध कर रहे थे। 

आखिर किसने चुराई थी ये काँच की गेंदे? 

आखिर एक सुरक्षित प्रयोगशाला से चोर काँच की उन गेंदों को कैसे चुरा पाये?

क्या पुलिस इन काँच के कातिलों को पकड़ पाई?


मेरे विचार 

'काँच के कातिल' लेखक तरुण कुमार वाही का लिखा हुआ कॉमिक बुक है। यह कॉमिक बुक प्रतिलिपि पर वाचन के लिए नि: शुल्क उपलब्ध है। 

कॉमिक के कथानक की बात करूँ तो यह सीधा सरल कथानक है। कॉमिक की शुरुआत चोरी से होती है जहाँ हमें पता चलता है कि किसी ने वैज्ञानिक अनुसंधान प्रयोगशाला नाम के एक संस्थान से कुछ ऐसी गुप्त गेंदें निकाल ली हैं जो कि किसी के हाथ में आकर एक खतरनाक हथियार बन सकती थीं। अब उन गेंदों का मालिक किस तरह इन गेंदों का इस्तेमाल करता है और पुलिस उसे किस तरह रोकती है यही सब कथानक का हिस्सा बनता है। 

कॉमिक बुक का कथानक सीधा सादा है। चोरी के बाद लेखक पुलिस को तहकीकात द्वारा मुजरिमों तक पहुँचा सकते थे जो कि रोचक होता लेकिन लेखक ऐसा करते नहीं हैं। वो एक के बाद एक अपराध खलनायकों  से करवाते हैं और आखिरी अपराध में उनसे चूक दिखवाकर पुलिस को उनके पीछे लगवा देते हैं। इसके बाद ये केवल एक पकड़म-पकड़ाई का खेल बनकर रह जाता है। 

इस कॉमिक को पढ़ते हुए मैं यही सोच रहा था कि जब अपराधियों द्वारा एक बार गेंद के इस्तेमाल से उनकी धौंस का असर होने लगा था तो उन्होंने क्यों दुकान लूटने वाली हरकत की। वह तो आ बैल मुझे मार वाली बात है क्योंकि भीड़ को नियंत्रित करना मुश्किल होता है। जबकि वह धमकी का धंधा अपना आराम से चला सकते थे। अगर ऐसा होता तो कथानक पेचीदा हो जाता और इसे सुलझते देखकर पढ़ने में मज़ा भी आता लेकिन फिलहाल तो ऐसा कुछ होता नहीं है। 

लेखक ने आखिर में कहानी में ट्विस्ट जरूर डाला है जो कि कहानी को भावनात्मक रूप दे देता है लेकिन चूँकि कहानी तब तक अपने आखिर में रहती है तो वह इतना प्रभाव नहीं छोड़ पाती है। हाँ, खलनायकों की दोस्ती जरूर प्रभावित करती है। अक्सर लेखक लोग खलनायकों को एक आयामी ही दर्शाते हैं लेकिन एक खलनायक की अपने दोस्त के प्रति इतनी आसक्ति इन खलनायकों को दूसरे एक आयामी किरदारों से अलग करता है। 

चित्रांकन की बात की जाए तो कॉमिक बुक में चित्रांकन उतनी अच्छी क्वालिटी का नहीं है।  राम वाईरकर साहब ने उतना ही काम किया है जिससे काम चल भर जाए। हाँ, चेहरे मोहरे भले ही इतने साफ उन्होंने न बनाए हों लेकिन फिर भी किरदारों की भावनाओ को वह टेढ़े मेढ़े चेहरे बाखूबी दर्शा देते हैं। इस एक बात के लिए उनकी तारीफ की जा सकती है। 

अंत में यही कहूँगा कि लेखक ने कथानक को काफी सरल बना दिया जिससे कथानक में रोमांच या रहस्य की कमी महसूस होती है। अगर कथानक में तहकीकत करके खलनायक तक पुलिस वाले पहुँचते तो यह कमी नहीं होती और कथानक अच्छा बन सकता था। अभी यह एक औसत कथानक वाली कॉमिक बनकर ही रह जाती है। 

 

पुस्तक लिंक: प्रतिलिपि


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