नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

काजल - बिमल मित्र

 संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: हार्डकवर | पृष्ठ संख्या: 81 | अनुवाद: पुष्पा देवड़ा | मूल भाषा: बांग्ला

पुस्तक लिंक: amazon.in | amazon.com

समीक्षा: आज कल और परसों

 कहानी

सुहास रंजन मुखोंपाध्याय कभी पुलिस के बड़े अफसर हुआ करते थे। वह कलकत्ता में अपनी पत्नी काजल के साथ रहा करते थे। लेकिन अब वह बिल्कुल अकेले थे और बीमार थे। उनके मन में एक ही इच्छा थी और उस इच्छा की पूर्ति के लिए ही उन्होंने लेखक को एक चिट्ठी लिखी थी। 

कटनी से लेखक को जब सुहास रंजन मुखोंपाध्याय की चिट्ठी आई तो उसे समझ नहीं आया कि वह क्या करे। सुहास रंजन चाहते थे कि लेखक उनसे आकर मिले क्योंकि उन्हे लेखक से एक जरूरी मसले पर बात करनी थी। सुहास लेखक के लिए पूर्णतः अंजान थे और ऐसे में एक चिट्ठी के चलते किसी के घर जाना लेखक को ठीक नहीं लगा। 

लेकिन फिर जब सुहास ने अगली चिट्ठी के साथ लेखक को यात्रा खर्च भी भेज दिया तो लेखक को सुहास रंजन मुखोंपाध्याय के पास कटनी आना पड़ा। 

आखिर सुहास रंजन लेखक से क्या कहना चाहते थे? आखिर सुहास रंजन बिल्कुल अकेले क्यों हो गए? उनकी पत्नी काजल का क्या हुआ?

किरदार


सुहास रंजन मुखोपाध्याय - जिसने लेखक को चिट्ठी लिखी थी
काजल - सुहास की पत्नी
कन्हाई - सुहास का नौकर
मिस्टर सरोज सान्याल - मुखर्जी के बचपन के मित्र
सुधा सान्याल/सुधारानी दास - सान्याल की पत्नी और काजल की दोस्त
मिस्टर अचारिया - कलकत्ता के मैक्लॉड एंड कम्पनी का इंटरनेशनल कमीशन एजेंट
अब्दुल - सुहास का खानसामा 
गर्लिक साहब - सुहास का अफसर जो स्पेशल स्क्वाड का नेतृत्व करता था 

मेरे विचार

काजल बिमल मित्र के रचना संग्रह चतुरंग में मौजूद चौथी कृति है। काजल के अलावा आज, कल और परसों, वे दोनों और वह और गवाह नंबर तीन भी चतुरंग में मौजूद थे जिन्हे मैं पहले ही पढ़ चुका हूँ। (नाम पर क्लिक करके आप उनकी समीक्षा पढ़ सकते हैं।) ऐसे में यह इस पुस्तक की आखिरी कृति होगी। और पहले की कृतियों की तरह यह भी मुझे पसंद आई। 

काजल का अनुवाद पुष्पा देवड़ा द्वारा किया गया है और अनुवाद अच्छा है। पढ़ते हुए इसके अनुवाद होने का आभास कहीं भी नहीं होता है।

उपन्यास का शीर्षक काजल है और यह चीज ही इस बात को दर्शाती है कि उपन्यास की कहानी काजल के इर्द गिर्द घूमती होगी। यह बात काफी हद तक सत्य भी है। 

इस उपन्यास में जो कथा कही गयी है उसका कथावाचक एक लेखक है। एक लेखक जिसके पास उसके एक पाठक, सुहास रंजन मुखोंपाध्याय,  की चिट्ठी आती है जिसमें पाठक ने उसे अपने घर आने के लिए न्यौता दिया होता है। यह पाठक लेखक से कुछ जरूरी बात करना चाहते हैं और चूँकि खुद ऐसी हालत में नहीं है कि लेखक तक जा सके तो उन्हे अपने पास बुला लेते हैं। 

लेखक इसी पाठक की कहानी सुनाता है जो कि काजल का पति था और एक वक्त में कलकत्ता में बड़ा अफसर हुआ करता था। अब वह पाठक कटनी में एक गुमनाम जिंदगी बिता रहा है। ऐसा क्यों हुआ और काजल का क्या हुआ? यही सब बातें कथानक जैसे जैसे आगे बढ़ता है वैसे वैसे पाठक को पता लगती हैं। 

कथानक के शुरुआत में ही सुहास रंजन के नौकर कन्हाई के माध्यम से लेखक को पता चल जाता है कि सुहास के घर में गोलियाँ चली थी जिससे सब सकते में आ गए थे और तभी से सुहास की हालत बिगड़ने लगी थी। यह गोलियाँ किसने चलाई थी और क्यों चलाई थी? इससे सुहास की हालत क्यों बिगड़ी? और इन सबमें काजल की क्या भूमिका थी यह सब जानने के लिए आप पृष्ठ पलटते चले जाते हैं। जैसे जैसे पृष्ठ पृष्ठ पलटते हैं वैसे वैसे काजल की गुजरी जिंदगी और उसके करीबियों से आप वाकिफ होते रहते है और धीरे धीरे करके सारी कहानी साफ होती रहती है। वहीं सुहास की इच्छा क्या थी और लेखक द्वारा वह पूरी हुई या नहीं इसका पता भी उपन्यास के अंत में पाठक को चल जाता है। 

कहते हैं दो व्यक्तियों के बीच का रिश्ता विश्वास रूपी डोर से बंधा हुआ होता है। एक बार यह डोर टूट जाए तो दोबारा शायद ही जुड़ पाती है। इसलिए लोगों को यह कोशिश करनी चाहिए कि यह डोर कभी न टूटे। कई बार हमें अपने नजदीकी को खो देने का इतना डर होता है कि हम उनसे कुछ मामलों को लेकर झूठ बोलने लगते हैं। और यही झूठ आगे चलकर गलत फहमियाँ पैदा करते हैं जिससे रिश्तों को बांधने वाली यह डोर टूट जाती है और उस डोर से बंधे हुए लोगों के जीवन में तकलीफें आ जाती हैं। 

काजल मूलतः ऐसे ही लोगों  की कहानी है। यहाँ सुधा है जिसने अपने अतीत के बारे में अपने पति से छुपाया रहता है और जब उसका अतीत उसके सामने खड़ा हो जाता है तो वह झूठ का सहारा लेने लग जाती है। यहाँ काजल है जो कि झूठ का सहारा लेकर अपने पति से कुछ चीजें छुपाती है जिसके कारण उनकी हँसती खेलती जिंदगी उजड़ जाती है। 

पढ़ते हुए मैं यही सोच रहा था क्या इनको अपने पतियों पर इतना भी विश्वास नहीं था? या ये खुद का डर था जिसके कारण इन्होंने झूठ बोला। उस वक्त का समाज जैसा था उसे देखते हुए एक बार को सुधा का झूठ बोलना एक बार को समझ भी आता है लेकिन काजल का झूठ बोलना थोड़ा अखरता है। 

जहाँ एक तरफ यह उपन्यास काजल, सुहास, सुधा के रिश्ते की कहानी है। वहीं इनके माध्यम से उस वक्त के जिस समाज में यह रहते थे उस समाज का चित्रण भी यह करती है। 

सुहास ब्रिटिश पुलिस में अफसर है। यह वह वक्त है जब स्वतंत्रता के लिए लोग लड़ रहे हैं लेकिन सुहास अपने आदर्शों का गला घोंट पुलिस में नौकरी कर रहा है। ऐसे में किसी भी भारतीय के लिए वह एक खलनायक होगा लेकिन लेखक ने दर्शाया है कि वह कैसे आम व्यक्ति है। न खलनायक और न नायक। कई बार उसके आदर्श उसे पुकारते जरूर हैं लेकिन जरूरतों का आदि होने के चलते वह उस पुकार की आवाज को ऐसे ही दबा देता है जैसे कि आजकल सरकारी लोग शायद घूस लेते हुए दबा देते हैं। वह अपनी जिंदगी जी रहा है। उसकी अपनी परेशानियाँ है जिनसे वह जूझ रहा है और इस तरह लेखक उसका माण्वीयकरण करने में सफल होते हैं। वह पाठक के मन में उसके लिए सहानुभूति भी जागृत कर पाते हैं। 

वह जिस समाज में रह रहा है वह किस तरह से असल समाज से कटा है उसका चित्रण लेखक कुछ यूँ करते हैं:

मिस्टर मुखर्जी के लान पर जमी मण्डली का सबजेट भी विचित्र ही होता। लंदन के फाग से लेकर चर्चिल के चुरूट तक दुनिया के अहम विषय वहाँ कॉफी के धुएँ के संग हवा में उड़ा करते। एक बार और अभी बड़ी विचित्र थी कि उस सभा में इंडिया की पावर्टी के बारे में भी बहुत ही गंभीरता पूर्वक आलोचना हुआ करती। इंडिया की पावर्टी के लिए कौन जिम्मेदार है टथा इसे दूर करने के क्या-क्या उपाय हैं इस पर  भी राय देनी आवश्यक थी। उसी बहस मुबाहसे के बीच किसी भूख से मरने वाले की खबर पाकर कोई कोई संवेदना प्रकट करता हुआ कहता- “पुअर सोल!”

मिस्टर हाचिंस ने कहा - “इंडियंस बहुत ही लेज़ी फ़ेलो होते हैं।”

मिस्टर मुखर्जी ने कहा था - “मैं आपसे सहमत हूँ मिस्टर हाचिंस। बहुत ही लेज़ी होते हैं।”

“और इस लेज़ीनेस के कारण ही वे आज ब्रिटिश स्लेवरी भोग रहे हैं।”

मिस्टर चौधरी कॉफी का सिप लेकर सिगरेट का कश लगाते हुए कहते- “यू आर परफेक्टली राइट, मिस्टर हाचिंस।”

“इसके लिए प्रापर ऐजूकेशन की जरूरत है। एजूकेशन मिलने पर सब ठीक हो जाएगा।”

इसी बीच मिसेज मुखर्जी का कोमल स्वर मुखर होता -”मोर कॉफी, मिस्टर हाचिंस?”

और मिस्टर हाचिंस तुरन्त जवाबद देते - “नो थैंक्स मिसेज मुखर्जी।”


उपन्यास में मिस्टर आचारिया का भी महत्वपूर्ण किरदार है। उस जैसे व्यक्ति आज भी मौजूद हैं जो कि बातें करने में इतने माहिर होते हैं कि लोगों को उनका असल रूप दिखता ही नहीं है। उनके व्यक्तित्व की चमकदमक से चुँधियाते आँखें जब कुछ देखने की अभ्यस्त होती हैं तब तक काफी देर हो चुकी होती है। आज भी कई लोग विशेषकर लड़कियाँ ऐसे लोगों की शिकार होती हैं और फिर पछताने के सिवा उनके पास कोई चारा नहीं रह जाता है। 

उपन्यास में सुहास और काजल के नौकर कन्हाई का किरदार भी महत्वपूर्ण है। कई बार घर के मालिक भी जिन चीजों से अंजान रहते हैं उससे घर के नौकर वाकिफ होते हैं। कन्हाई ऐसा ही एक नौकर है जो कि ज्यादा समझदार तो नहीं है लेकिन फिर भी काफी ऐसी चीजें जानता है जिससे उसका मालिक भी वाकिफ नहीं था। हैरत नहीं है कि काजल के विषय में ज्यादा जानकारी लेखक को कन्हाई से ही पता लगती है। 

उपन्यास की कमी की बात करूँ तो इसकी सबसे बड़ी कमी वही है जो कि संग्रह में मौजूद दूसरी रचनाओं की रही है। इस उपन्यास में भी लेखक को कहानी किसी तीसरे व्यक्ति से पता चलती है। कहानी का काफी हिस्सा लेखक को सुहास रंजन के नौकर कन्हाई से पता लगता है और कुछ हिस्सा सुहास से पता लगता है। ऐसे में काफी चीजें ऐसे भी रहती हैं जो पता नहीं लगती हैं। यह चीजें कहानी में एक अधूरेपन का अहसास कराती हैं।  

काजल ने जो कदम उठाया वह उठाने से पहले अपने पति को क्यों नहीं बताया। वह जानती थी कि उसका पति उससे प्यार करता है। वहीं जिस औहदे में उसका पति था वह आसानी से मामले को देख सकता था। ऐसे में उसका कुछ न कहना तर्कसंगत नहीं लगता है। अगर सुहास की किसी बात से ऐसा कुछ दर्शाया जाता जिसके कारण काजल उसे चीजों से अवगत न करा पाई तो बेहतर रहता। 

वहीं काजल का आखिर में क्या हुआ? इस बात पर भी रोशनी नहीं डाली गयी है। सुहास जो बात बताते है वह इतनी साफ नहीं है कि उससे कुछ पता चले। 

कहानी का स्ट्रक्चर भी थोड़ा अलग है। कहानी में बातें लिनीअर तरीके से नहीं खोली गयी हैं। लेखक ने कुछ बातें पहले बताई हैं ताकि पाठक आगे पढ़ते चले जाने के लिए विवश हो। यह चीज मेरे लिए काम भी करती है लेकिन अगर आप ऐसे बिखरे कथानक को पढ़ने के आदि नहीं है तो शायद आपको थोड़ा यह स्ट्रक्चर खटके क्योंकि बाद में घटित हुई चीजें आपको पहले पता चलती हैं और कुछ पहले घटित हुई चीजें बाद में पता लगती है। 

अंत में यही कहूँगा कि बिमल मित्र का यह उपन्यास काजल पठनीय है। रिश्तों में विश्वास, आपसी बातचीत और सच्चाई कितनी जरूरी होती है और इनके न होने से क्या कुछ हो जाता है वह इस उपन्यास के कथानक को पढ़कर जाना जा सकता है। 

कई बार हमें लगता है कि अगर हमने सच्चाई बताई तो रिश्ता टूट जाएगा लेकिन यकीन मानिए सच्चाई हमेशा से बेहतर विकल्प होता है। अगर रिश्ता टूट भी गया तो भी वह दोनों व्यक्तियों के लिए बेहतर ही होता है और अगर नहीं टूटा तो आगे जाकर उस बात के चलते जिंदगी में कोई परेशानी नहीं आती है। 

पुस्तक की कुछ पंक्तियाँ जो मुझे पसंद आई

लेकिन कहानी जरा जटिल हुए बिना पाठकों को अच्छी भी नहीं लगती। जो कहानी जितनी अधिक उलझी हुई होगी उसको लिखना लेखक के लिए उतनी ही बड़ी विपदा है। जैसे विषधर जितना अधिक विषैला हो, उसे पकड़ने में सपेरे को उतनी ही अधिक सतर्कता बरतनी पड़ती है! फिर चाहे साँप हो या कहानी, दरअसल विपदा बिना आनंद का भी एहसास नहीं होता। कहानी की उलझन को सुलझा-सुलझाकर, आनंद की चरम परिणति में पहुँचाकर, लेखक जब उसका समाधान कर देता है तब रहस्य रहस्य नहीं रह जाता, और पाठक को चरम तृप्ति हासिल हो जाती है। 

कितने ही व्यक्तियों को कैसी-कैसी गुप्त वेदना होती है। बाहरी समाज की आँखों से तो वह उसे छुपाकर रखना चाहता है, पर किसी एक खास व्यक्ति से बताए बिना शायद उसके दिल को शांति नहीं मिलती। 

हम लोग, यानी हमारे समाज के लोग, मध्य-वित्त मोहल्ले में रहते हैं। अतः मैं मध्यवित्त समाज के मन को समझता हूँ। ट्राम -बस में चढ़ता हूँ। क्लर्की करता हूँ और जब समय मिलता है तब ताश खेल लेता हूँ। अगर इससे भी अधिक कभी समाज-सेवा का मूड बनता है तो सुबह-शाम अखबार में छपी राजनीतिक खबरों पर बहस कर लेता हूँ। बंगला देश में इससे अधिक महत्वपूर्ण भूमिका हम लोगों के लिए है ही नहीं। 

कलकत्ता शहर की अगणित असंख्य भीड़ में न जाने कितनी काजल और कितनी सुधाएँ बिखरी पड़ी हैं। कितने लड़के-लड़कियाँ ज़िंदा रहने की प्रतियोगिता में घिस-पिटकर धूल में मिल जाते हैं - कारपोरेशन के रिकार्ड में भी इसका हिसाब नहीं मिलेगा। कितने मकान बनते हैं और कितने टूटते हैं तथा कितने ही विध्वंस हो धूल में मिल जाते हैं और फिर से कितने बनने लग जाते हैं। सुधा और काजल जैसी कितनी ही लड़कियाँ, स्नेहातुर बाप की लड़कियाँ, यहाँ पहुँचकर इज्जत बचाकर जीने की कोशिश करती हैं- इसका भी किसी को पता नहीं। कोई जानना भी नहीं चाहता यह सब। झुंड के झुंड लोग आते हैं और जैसे समुद्र में लीन हो जाते हैं। उसी तरह एकाकार हो जाते हैं। गाँव के लोग, बस्ती के लोग, विदेश के लोग, सभी तरह के लोग यहाँ इस तरह घुल-मिल जाते हैं कि मनुष्य-मनुष्य  में कोई फर्क नहीं रहता और सारे लोगों को मिलाकर उसका रूपांतर जनता में हो जाता है।

जीवन का सब कुछ पहले से जानना कहाँ तक सम्भव है! जन्म से मृत्यु तक यह विचित्र नक्शा फैला रहता हुआ , इसका राजपथ, अली-गली सब अगर पहले से ही पता रहते तो मानव जीवन इतना जटिल न होता। मानव जीवन में कब कौन सा रंग आ जाता है और कब बदल जाता है, यह सब कोई पहले से जान पाता है? 

किसका रंग बदलता है, यह तो बता नहीं सकता , जीवन का, या मन का, या यौवन का, या फिर शहरी दुनिया का। शायद सभी का रंग बदलता है। प्रत्यक्ष रूप से हम देख नहीं पाते, इसलिए सिर्फ विचार करके ही रह जाते हैं। 

 मनुष्य मात्र के जीवन में ऐसी कोई न कोई घटना घट ही जाती है जिससे बंधी हुई रूटीन में भी अचानक व्यवधान आ जाता है। सब कुछ उलट पुलट हो जाता है। एक साधारण-सी किताब भी किसी के जीवन में नया परिच्छेद ला देती है।

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