नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

एक तूफ़ानी रात, तीन अजनबियों और कुछ संयोगों की रोमांचक दास्तान है देजा वू

संस्करण विवरण: 

फॉर्मैट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 251 | प्रकाशक: रवि पॉकेट बुक्स 


कहानी

वह दिल्ली की एक सर्द तूफानी रात थी जब किस्मत ने उन तीनों को मिलाया था।

वह तीन जो उस दिन तक एक दूसरे से नितांत अजनबी थे। वह तीन जो अपनी अपनी ज़िंदगी में अपनी दुश्वारियों से आजिज आ चुके थे।

पर वह सब कहाँ जानते थे कि उस रात उनकी ज़िंदगी बदलने वाली थी। या उनकी ज़िंदगी मौत में तब्दील होने वाली थी।

किरदार

नीरज कुमार - पुलिस कमीश्नर दिल्ली पुलिस 
आर के सिंधु - हरियाणा पुलिस के डी जी पी
बृजलाल यादव - डीजीपी उत्तर प्रदेश
दारेन सजवाण - दिल्ली में रहने वाला एक 28 वर्षीय व्यक्ति
रमेश सजवाण - दारेन के पिता
के एस नगन्याल - सूरत का बड़ा हीरा व्यापारी जिसकी बेटी साया से दारेन की शादी हुई थी
नीरज कुमार - दिल्ली पुलिस का कमिश्नर
धीरज धामा - एक पुलिस इंस्पेक्टर जो कि सस्पेंड चल रहा था
बलविंदर सिंह - एक टैक्सी ड्राइवर जिसकी मदद कभी धीरज ने की थी और अब वह उसके लिए कार्य करता था
नीति - दारेन की कीप
साया - दारेन की पत्नी
जस्सी - दिल्ली पुलिस का टेक्निकल एक्सपर्ट
खुर्रम पीरजादा - दिल्ली के ड्रग लार्ड जगत गोसाईं का आदमी
दारा मुराद - खुर्रम पीरजादा के आदमी
गेझा - जगत गोसाई का खास आदमी

मेरे विचार

देजा वू लेखक कँवल शर्मा का चौथा उपन्यास है जो कि रवि पॉकेट बुक्स से प्रकाशित हुआ है।  वैसे तो यह उपन्यास मैंने प्रकाशित होते ही मँगवा लिया था लेकिन इसे पढ़ने का मौका अब ही लग पाया है। 

कँवल शर्मा के उपन्यासों की बात करूँ तो इनके उपन्यासों के शीर्षक रुचिकर होते हैं और वह पाठक की उपन्यास में रुचि जागृत करने में सक्षम होते हैं। फिर वह उनके भूतपूर्व उपन्यास वन शॉट, सेकंड चांस और टेक थ्री हों या प्रस्तुत उपन्यास देजा वू। 

देजा वू शब्द से अगर आप वाकिफ नहीं हो तो बता दूँ कि देजा वू फ्रेंच भाषा से अंग्रेजी में उधार लिया गया शब्द है जिसका अर्थ वह अहसास होता है जिसके चलते व्यक्ति को लगता है कि उसके साथ वर्तमान में हो रही घटना एक बार पहले भी घटित हो चुकी है। अब अगर इस अर्थ को ध्यान में रखकर शीर्षक को देखें तो यह कहना गलत नहीं होगा कि यह शीर्षक कुछ प्रश्न पाठक के मन में जागृत कर सकता है। कम से कम जब मैंने शीर्षक पढ़ा तो दो प्रश्न मेरे मन में आए - एक तो यह कि क्या इस उपन्यास में कोई किरदार है जो देजा वू का अनुभव करता है और दूसरा ये कि क्या इस उपन्यास का कथानक ऐसा है कि पाठक इसे पढ़कर देजा वू का अनुभव करें। और यह दोनों ही बातें इस उपन्यास को पढ़ते हुए सही साबित हो जाती हैं। यह किस तरह होता है इस पर मैं बाद में आता हूँ। 

इस पुस्तक के विषय में बात करूँ प्रस्तुत पुस्तक में लेखक पाठक को उपन्यास का कथानक तो देते ही हैं साथ में एक लज्जतदार लेखकीय भी परोसते हैं। लेखक के इस लेखकीय में लेखक ने पूर्व प्रकाशित उपन्यास टेक थ्री पर पाठकों की राय तो प्रकाशित कर उस पर टिप्पणी तो की ही है साथ में लेखक ने 20 पृष्ठों का लेख भारतीय भोजन और भारतीय खाने में पाए जाने वाली विविधता को दर्शाते हुए लिखा है। अलग-अलग क्षेत्रों के साथ-साथ मंदिरों में मिलने वाले प्रसादों की ऐसी स्वादिष्ट जानकारियाँ लेखक ने इस लेख में अपने खास स्टाइल से परोसी हैं जो एक तरफ तो इस लेख को संग्रहणीय बना देता है वहीं दूसरी तरफ लेख को पढ़ने वाले की भूख भी जागृत कर देता है। लेखक के उपन्यासों में प्रकाशित होने वाले लेखकीय इतने अच्छा होते हैं कि मैं भविष्य में उनके इन लेखों की अलग से प्रकाशित किताब भी आती है तो वह मैं जरूर लेना चाहूँगा। लेखक को इस पर विचार करना चाहिए। 

उपन्यास के कथानक की बात करें तो उपन्यास का मुख्य कथानक एक रात की घटना को बताता है। इस एक रात के लिए कई लोग अपने-अपने मंसूबे बनाए बैठे हैं। 

एक तरफ दिल्ली पुलिस है जिसने दिल्ली में फैलते नशे के कारोबार में लगाम कसने के लिए एक ऐसी योजना बनाई है जिसे कोई मेवरिक ही अंजाम दे सकता है। 

वहीं दूसरी तरफ उपन्यास के केन्द्रीय पात्र हैं जिनके जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ यह रात लेकर आती है। इन मुख्य किरदारों में एक है दारेन सजवाण जो अमीर बाप की बिगड़ी औलाद है, दिल्ली में एक ऊँचे ओहदे पर कार्यरत है और घरवाली और बाहरवाली के बीच झूल रहा है। दूसरा है धीरज धामा जो कि दिल्ली पुलिस में इंस्पेक्टर है जिसे सस्पेंड कर दिया गया है और अब उसे एक खतरनाक अनऑफिसियल मिशन सौंपा गया है। और तीसरा है बाबू जो कि ड्रग के धंधे से जुड़ा हुआ है और इस धंधे से निकलकर अपने सुनहरे भविष्य की योजना तैयार करके बैठा है। 

इन तीनों की ही जिन्दगी में यह रात महत्वपूर्ण है और यह किस तरह महत्वपूर्ण है यह उपन्यास के पृष्ठ आप जब पलटते चले जाते हैं तो आपको पता लगता जाता है। वहीं दिल्ली पुलिस की योजना का इन किरदारों के जीवन पर जो असर पड़ता है वह एक ऐसे कथानक की रचना कर देता है जिसके चलते आप उपन्यास को अंत तक पढ़ने के लिए विवश से हो जाते हैं। कहानी शुरू से ही आप पर पकड़ बनाती है और अपने कमियों के साथ भी आपका पूरा मनोरंजन करने में सफल होती है। उपन्यास चूँकि दिल्ली पुलिस के ड्रग माफिया के खिलाफ हुए ऑपरेशन को भी दिखलाता है तो लेखक ने जरायम पेशा लोगों का चित्रण इधर किया है और कहानी उनके होने से और अधिक रोमांचक हो जाती है। लेखक ने जिस तरह से इस ट्रेड का खाका इधर खींचा है उससे लगता है कि शायद उन्होंने काफी रिसर्च इस टॉपिक पर की थी। विशेषकर जिसे तरह से उन्होंने नशे के कारोबार का दिल्ली तक पहुँचने का रास्ता बयान किया है वह विश्वसनीय लगता है। 

उपन्यास के किरदारों की बात करूँ तो उपन्यास के किरदार कथानक के अनुरूप हैं। एक पुलिस वाले की योजना के चलते जिस तरह दारेन की जिन्दगी में बदलाव लाया वह थोड़ा अटपटा लगता है। पुलिस की छवि इससे धूमिल ही होती है। दारेन में रईस बाप की बिगड़ैल औलाद जरूर था जो औरत को अपनी जागीर समझता था लेकिन वह कातिल न था। ऐसे में जो उसके साथ जो जाता है उससे बुरा लगता है। बाबू उपन्यास का ऐसा किरदार है जो कि एक तरफ तो अपराधी है लेकिन उसके लहजा ऐसा है कि आप उससे नफरत नहीं कर पाते हो। ऐसे में जो उसके साथ होता है उससे यही लगता है कि उसे अपने अपराधों की सजा तो मिलनी चाहिए थी लेकिन ऐसी सजा नहीं। उपन्यास में मौजूद ड्रग से जुड़े माफिया लोग जैसे शाहजी, जगत गोसाई, दारा मुराद खतरनाक हैं और कभी कभी दहशत भी पैदा करते हैं। धीरज धामा उपन्यास का महत्वपूर्ण किरदार है जो कि एक पुलिस वाला है। इस उपन्यास में उसके एक पहले केस का जिक्र है जो कि मुझे रोचक लगा और जिसे मैं जरूर पढ़ना चाहूँगा। उसे आगे किसी  उपन्यास में भी जरूर देखना चाहूँगा।  

उपन्यास में इक्का दुक्का ऐसी बातें भी थी जो कि मुझे लगा कि बेहतर हो सकती थीं। 

लेख के शुरुआती अंश में मैंने उपन्यास के शीर्षक और उससे मेरे मन में उपजने वाले सवाल की बाबत बात की थी।  तो उन प्रश्नों के जवाब भी इस उपन्यास की कमी बनते हैं। यह बात भी सच है कि इस उपन्यास में एक किरदार को देजा वू का अनुभव होता है और दूसरी बात भी सच है कि लेखक को कथानक पढ़ते हुए देजा वू यानि पहले ऐसा कुछ पढ़ा है/देखा है का अनुभव होता है। 

लेखक ने उपन्यास का नाम सार्थक करने के लिए उपन्यास के शुरुआती अंश में एक किरदार के साथ होने वाली घटना दिखाई है। यह घटना ऐसी है जिसका अंत इस घटना में वर्णित  किरदारों के प्रति उत्सुकता पैदा कर देता है। लेकिन उपन्यास खत्म करने पर यह घटना केवल नाम को सार्थक करने के लिए लेखक द्वारा लिखी हुई प्रतीत होती है। उपन्यास खत्म हो जाता है लेकिन आपको उस शुरुआती घटना का मतलब समझ नहीं आता। अगर उपन्यास से  वह हिस्सा हटा दिया जाए तो शायद ही इसके कथानक में कोई फर्क पड़ेगा। ऐसे में आप यह सोचते हो कि अगर वह शुरुआती हिस्सा ऐसा लिखा होता जो कि शीर्षक को उपयुक्त साबित करने के अलावा भी कुछ करता तो शायद बेहतर होता। 

वहीं मैंने ऊपर जिक्र किया है कि इस उपन्यास को पढ़ते हुए एक बार पाठक को भी देजा वू का अहसास होता है तो वह इसलिए क्योंकि इस उपन्यास का एक महत्वपूर्ण  हिस्सा पैट्रीशिया हाईस्मिथ के बहु-चर्चित उपन्यास स्ट्रैन्जर्स ऑन अ ट्रेन (1950) और अल्फ्रेड हिचकॉक की इसी नाम से बनी प्रसिद्ध फिल्म की याद दिलाता है। इतना ही कहूँगा कि उपन्यास का नाम इसी तर्ज पर स्ट्रेंजर्स इन अ टैक्सी भी हो सकता था और यह सटीक नाम भी होता। फिर शुरुआती हिस्सा लिखने की जरूरत भी नहीं पड़ती।  पैट्रीशिया हाईस्मिथ के उस उपन्यास से काफी दूसरी रचनाएँ, टीवी एपिसोड भी प्रेरित हुई हैं। इसलिए अच्छा होता कि जब ऐसी परिस्थिति में उपन्यास के  किरदार आए थे उधर किसी किरदार से इस फिल्म का जिक्र करवाया जाता। कम से कम दारेन जिस समाज से आता है वहाँ के नवयुवक ने यह फिल्म न देखी हो इस पर थोड़ा सा संशय होता है। अगर लेखक किसी किरदार से इस फिल्म का नाम बुलवाते तो शायद बेहतर होता।  एक तरह से होमाज हो जाता।   

जीवन में जितना योगदान योजना का होता है उतना ही इत्तेफाक का भी हो जाता है। यह इत्तेफाक इस उपन्यास में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उपन्यास की एक कमी इसमें होने वाले ये इत्तेफाक भी हैं। यहाँ एक के बाद एक इत्तेफाक होते  चले जाते हैं। हाँ, चूँकि उपन्यास का एक किरदार भी यह मानता है कि यह पूरा घटनाक्रम ऐसा  इत्तेफाक है जो आम नहीं है तो यह चीज यह दर्शा ही देती है कि उपन्यासकार भी इस पहलू से वाकिफ हैं। लेकिन बेहतर होता कि इत्तेफाको की संख्या कम ही होती। 

उपन्यास में एक ट्विस्ट भी लेखक ने रखा है लेकिन उसका हल्का सा अंदाजा मुझे हो ही गया था और इस कारण उसका वैसा प्रभाव नहीं पढ़ा जैसा पढ़ना चाहिए था। हाँ, अटपटा जरूर लगा था लेकिन ज्यादा बात करूँगा तो स्पॉइलर हो जाएगा। 

अंत में यही कहूँगा कि ऊपर लिखी कुछ बातों को छोड़ दिया जाए तो यह उपन्यास एक अच्छी रोमांच कथा है। उपरोक्त लिखी बातें भी ऐसी नहीं है कि जो पढ़ने के अनुभव में ज्यादा विघ्न डालें तो यह कथानक की रफ्तार और रोमांच इनसे प्रभावित नहीं होता है। ऐसे में अगर आप एक रोमांचक कथानक पढ़ने की इच्छा से इस उपन्यास को उठाते हैं तो वह इच्छा आपकी पूरी ही होगी। अगर नहीं पढ़ा है तो पढ़कर देखिए।  

उपन्यास की कुछ पंक्तियाँ जो मुझे पसंद आईं

भूख को जायके की और मक्कार को दुनियावी शर्मों हया की फिक्र कहाँ होती है! (पृष्ठ 32 )


शादी मूँगफली की तरह होती है... कि जब तक बाहरी हिस्सा चटकता नहीं, भीतर हासिल का पता नहीं पाता। (पृष्ठ 32)  


बुराई कोई खुदाई चीज नहीं बल्कि एक इंतेहाई इंसानी अदद है जो हमारे साठ बिस्तरों पर सोती है, हमारे साथ खाना साझा करती है। (पृष्ठ 54) 


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4 Comments
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  1. आपकी समीक्षा नई पुस्तक पढ़ने की भूख जगा दी

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    1. जी आभार। उपन्यास के प्रति आपकी राय का इंतजार रहेगा...

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  2. प्रकाशन के समय ही यह उपन्यास पढा था, कुछ कन्फ्यूजन के पश्चात भी कुछ हद तक ठीक है।
    कंवल शर्मा जी का एकमात्र यही उपन्यास है जो औसत से नीचा रहा है।
    अच्छी समीक्षा ।

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