नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

मौत का सफर - सुरेन्द्र मोहन पाठक

संस्करण विवरण:

फॉर्मैट: ई-बुक | पृष्ठ संख्या:  118 | शृंखला: प्रमोद #1 | प्रथम प्रकाशन: 1966

पुस्तक लिंक: अमेज़न


कहानी

चाऊ खोह खोह चीन का एक दार्शनिक था जिसकी प्रतिमा की एंटीक संग्रहकर्ताओं में भारी माँग थी। वह प्रतिमा बहुत दुर्लभ थी और संग्रहकर्ता उसे पाने के लिए कोई भी कीमत देने को तैयार थे।

मिस्टर सिडनी क्रेमर एक व्यवसायी था जिसे एंटीक वस्तुएँ संग्रह करने का शौक था। अब वह चीन पहुँचा हुआ था। उसे किसी भी कीमत पर चाऊ खोह खोह चाहिए थी। 

प्रमोद एक भारतीय युवक था जो काफी सालों से चीन में रह रहा था। अब मेजर कौल ने उसे क्रेमर की सहायता करने को कहा था। 

प्रमोद जानता था कि यह मदद इतनी आसान नहीं होने वाली थी। 

क्या क्रेमर चाऊ कोह कोह की मूर्ति पा पाया? 
प्रमोद को क्रेमर की मदद करने के लिए किन किन मुसीबतों का सामना करना पड़ा? 

मुख्य किरदार

प्रमोद तिवारी - एक उन्तीस वर्षीय भारतीय युवक जो कि चीन में रह रहा था 
मिस्टर सिडनी क्रेमर - एक व्यवसायी 
लिजा क्रेमर - सिडनी की बेटी 
विलियम - सिडनी का मैनेजर 
फिलिप लिऊ - एक चीनी युवक 
मेजर कौल - भारतीय सेना में एक अफसर
ब्रिगेडियर तिवारी - प्रमोद के पिता 
जोफरी गिल्डर - एक अमेरिकी संग्रहकर्ता 
मिस्टर वांग - एक चीनी दुकानदार जो एंटीक चीजें बेचा करता था 
याट टो - प्रमोद का नौकर 
जनरल बू - एक चीनी जनरल 
लिऊ ही ची - एक डकैत 
चिन माऊ शू  - जनरल बू का सार्जेंट 

मेरे विचार


कहते हैं शौक बड़ी चीज है। और अगर व्यक्ति अमीर हो तो यह शौक कई बार सनक का रूप भी ले लेता है। ऐसा ही एक शौक चीजें संग्रह करना भी होता है। उम्र और अपनी हैसियत के अनुसार चीजें संग्रह करने का शौक एक आम बात है। कई बार यह शौक बचपन के कंचों, ताश इत्यादि तक सीमित रहता है और कई बार व्यक्ति के वयस्क होने पर भी यह शौक यूँ ही बरकरार रहता है। लेकिन भले ही यह शौक बचपन मे इकट्ठा किये गए कंचे, ताश, माचिस के कवर इत्यादि का हो या वयस्कों द्वारा इकट्ठा किये जा रहे विंटेज गाड़ियाँ, दुर्लभ किताबें, या एंटीक चीजें का, एक बात तो तय है कि संग्रहकर्ता अपने संग्रह को लेकर बहुत ज्यादा भावुक रहते हैं। कई बार एक जैसी चीज को संग्रह करने वालों के बीच प्रतिस्पर्धा भी रहती है क्योंकि संग्रह में किसके पास कितनी बढ़िया और दुर्लभ वस्तु है यह बात उस समाज में उनका स्टेटस भी बढ़ा देती है। मैं यह बात इसलिए भी जानता हूँ क्योंकि प्लेइंग कार्ड हो या माचिस के कवर या सॉफ्ट ड्रिंक के बोतल के ढक्कन मैंने बचपन में सभी इकट्ठा किया है। इसलिए इन सबके संग्रह करने में अपने अपने स्तर पर किन किन परेशानियों से हम गुजरते थे इसका अहसास भी है। चीजें संग्रह करने का नशा क्या होता है यह बात भी मैं जानता हूँ। वहीं एक अच्छे संग्रह के होने से कैसी धाक दोस्तों के बीच होती थी और गर्व की जो अनुभूति होती थी इसे वही समझ सकता है जिसके अंदर संग्रह करने की यह प्रवृत्ति होती है।  अगर आप संग्रह करने वालों में से आपको इसका अहसास होगा लेकिन अगर संग्रह करने का शौक आपके पास नहीं है तो आपको यह एक खब्त लग सकती है और संग्रह करने वाला व्यक्ति एक खब्ती। 

यहाँ इतना सब कुछ कहने का उद्देश्य यह है कि प्रस्तुत उपन्यास मौत का सफर एक ऐसे ही संग्रहकर्ता के जुनून की कहानी है। यह संग्रहकर्ता एक अमीर व्यपारी है और इसलिए वह बेशकीमती चीजों का संग्रह करता है और अपने इस संग्रह को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है।  यह संग्रहकर्ता सिडनी क्रेमर है जो कि वैसे तो भारतीय है लेकिन खुद को यूरोपीय दर्शाता है। अब वह चाऊ खोह खोह की दुर्लभ मूर्ति पाने के लिए चीन पहुँच चुका है। 

उपन्यास का घटनाक्रम चीन में घटित होता है। चूँकि यह उपन्यास 1966 में प्रथम बार प्रकाशित हुआ था इसलिए उस वक्त चीन के साथ भारत के जो रिश्ते थे उसकी हल्की झलक इसमें देखी जा सकती है। उपन्यास में लेखक दोनो देशो के नागरिकों के बीच एक दूसरे के प्रति क्या भाव थे यह भी दर्शाते हैं। इसके चलते भारतीय नागरिकों को उधर किस तरह से रहना पड़ता था यह चीज प्रमोद और क्रेमर के माध्यम से लेखक दर्शाने का प्रयास करते हैं। चूँकि उपन्यास का घटनाक्रम चीन में घटित हो रहा है तो वहाँ के लोगों और उनके तौर तरीकों की झलक भी लेखक ने थोड़ी बहुत दर्शाई है। लेखक चीनी लोगों के बोलने के अलंकृत तरीके को दर्शाते हैं जो कि काफी मजेदार लगा था। मन कर रहा था मैं भी कुछ वक्त तक ऐसे ही लोगों से वार्तालाप करूँ। 

वहीं प्रमोद की एक सोच से चीन और वहाँ के लोगों के विषय में भी वह टिप्पणी करते दिखते हैं और एक ही अनुच्छेद में काफी कुछ कह जाते हैं। आप भी पढिए :

आखिर चीन क्या है। 
सत्तर करोड़ लोगों का मुल्क। 
चायनीज ड्रैगन की लपलपाती हजि जुबान जैसे सब कुछ चाट जाना चाहती हो। 
इम्पीरियलिस्म के विस्तार में लगे हुए धूर्त लोग। 
संसार की सबसे मुश्किल भाषा भाषी देश। 
जहाँ इंसान की मौलिकता नष्ट कर दी जाती है। 
जहाँ चीनी राजनीतिज्ञ विलायत वाग्जाल की सहायता से चीन की एक और महान देश के रूप में व्याख्या करते हैन और उसी नये चीन में गरीब किसानो पर भारी टैक्स लगाए जाते हैं। 
गरीब चीनी जिनका राजिनीति से कोई वास्ता नहीं है, जिनकी अपनी नेताओं की विस्तारवादी नीति से कोई सहमति नहीं है चुपचाप अपना जीवन जीते जाते हैं - रक्त में चलते हुए रक्त कणों की सी निर्लिप्तता से। 

उपन्यास का केन्द्रीय पात्र प्रमोद नाम का युवक है जो कि पिछले कई वर्षों से चीन में रह रहा है। यह एक रहस्यमय किरदार है।  वह अपने घर से भागकर चीन आया था और अब यहाँ बसा हुआ है। भारत में रहने वाले अपने जानकार के कहने के चलते वह सिडनी की मदद करने को तैयार होता है। अपने इस निर्णय के चलते उसे चाऊ खोह खोह की मूर्ति पाने के लिए बनी सिडनी की टोली का नेतृत्व करना पड़ता है। हालात ऐसे हो जाते हैं कि उन्हें हो हसैन नाम की जगह का सफर करना पड़ता है। यह जगह काफी खतरनाक मानी जाती है। इस सफर के दौरान उनके साथ क्या क्या होता है और वह उन परिस्थितयो से कैसे निपटते हैं यही उपन्यास का कथानक बनता है। 

उपन्यास के कथानक की बात करूँ तो उपन्यास का शीर्षक मौत का सफर है जिससे इसके जितने रोमांचक होने की उम्मीद लगाई थी उससे यह मुझे कम रोमांचक ही लगा है। उपन्यास में दो तीन प्रसंग ही ऐसे हैं जहाँ रोमांच पैदा होता है। इन प्रसंगों के अलावा बाकी कथानक एक आम कथानक की तरह बढ़ता चला जाता है। 

ऐसा नहीं है कि उपन्यास में रोमांच पैदा करने के अवसर नहीं थे। उपन्यास में सिडनी और जोफरी गिल्डर की प्रतिद्वंदीता के बारे में काफी कुछ लिखा गया है। इस प्रतिद्वंदिता के चलते सिडनी जोफरी के खिलाफ गैरकानूनी कदम भी उठाता  है लेकिन फिर भी इस प्रतिद्वंदिता के चलते जितना रोमांच उपन्यास में लाया जा सकता था वह नहीं लाया गया है। इस मौके को लेखक भुना नहीं पाए है। इसके अलावा पेकिंग से हो हसैन के सफर के दौरान किरदारों के साथ केवल एक ही घटना ऐसी घटित होती है जिससे कथानक में थोड़ा मज़ा आता है। ऐसी अगर एक दो घटनाएँ और होती तो शायद कथानक और रुचिकर बन सकता था और इससे शीर्षक मौत का सफ़र भी चरितार्थ होता। शायद उपन्यास का कम कलेवर का होना भी इसका जिम्मेदार है जो लेखक को कई चीजों के साथ प्रयोग करने का मौका नहीं देता है। मुझे लगता है कि कुछ और पृष्ठ लगाकर उपन्यास और रोमांचक बन सकता था। 

हाँ, उपन्यास का अंत मुझे पसंद आया। प्रमोद जिस तरह से आखिरी परेशानी से सबको निजाद दिलाता है वह रोचक रहता है।  प्रमोद एक सुलझा हुआ पात्र है जो ताकत से ज्यादा दिमाग को तवज्जो देता है और यह बात उपन्यास में दृष्टिगोचर होती है। इसी वजह से प्रमोद मुझे पसंद आया और उसके दूसरे कारनामें मैं जरूर पढ़ना चाहूँगा। फिलहाल तो प्रमोद एक रहस्यमय व्यक्ति की तरह इस उपन्यास में दर्शाया गया है। उसके विषय में कुछ बातें आपको इस उपन्यास को पढ़कर पता चल जाती हैं लेकिन कई ऐसी बाते भी हैं जो पता नहीं चलती हैं। मसलन आपको पता चलता है कि प्रमोद भारत से चीन क्यों आया है। लेकिन ये नहीं पता चलता है कि उसके अंदर ऐसी क्या खूबी थी जिसे देखकर मेजर कौल ने उसे सिडनी की सुरक्षा की जिम्मेदारी दी। क्या वह ऐसे मामलों के लिए प्रशिक्षित है? अगर हाँ तो कैसे? फिर वह इतने सालों से चीन में अपना जीविकोपार्जन किस तरह कर रहा है? वह करता क्या है? यह कुछ ऐसे सवाल है जो कहानी खत्म होने के बाद भी अनुत्तरित रह जाते हैं। उम्मीद है शृंखला के अन्य उपन्यासों में इनके विषय में अधिक जानकारी प्राप्त होगी। 

उपन्यास में प्रमोद का नौकर याट टो भी एक रोचक किरदार है। वह एक स्वामिभक्त व्यक्ति है जो कि प्रमोद के भारतीय होने की असलियत जानता है लेकिन फिर भी उसकी फिक्र करता है और प्रमोद की काफी मदद भी करता है। शायद पूरे उपन्यास में यही एक सकारात्मक चीनी किरदार लेखक ने दर्शाया है। बाकी सभी चीनी जो दर्शाएँ हैं वह कुटिल ही दर्शाएँ हैं। ऐसा ही एक कुटिल किरदार फिलिप लिऊ है। 

उपन्यास के बाकी किरदार उपन्यास के अनुरूप ही गढ़े गये हैं। जनरल बू प्रभावशाली किरदार है। वह कितना खतरनाक और  क्रूर है इसकी झलक उपन्यास में दिखती तो है लेकिन चूँकि वह प्रमोद और उसकी टीम का प्रतिद्वंदी नहीं रहता है तो यह क्रूरता फिर उस प्रसंग के अलावा कथानक में उतना रोमांच नहीं ला पाती है।  लिऊ ही ची एक डकैत है और उसी हिसाब से उसे गढ़ा गया है। 

उपन्यास में विलियम, लिजा  के किरदार भी हैं। लिजा सिडनी क्रेमर की बेटी है और विलियम उसका मैनेजर है। लिजा भले ही आधी भारतीय हो लेकिन वह खुद को यूरोपीय ही मानती है। लिज़ा, विलियम और प्रमोद के बीच के रिश्ते की उधेड़बुन भी कथानक में रोमांस का रस घोलती है। इन तीनों के बीच जो खींच तान चलती है वह कथानक को रोचक बनाती है। 

खींचतान की बात चल ही रही है तो एक दूसरी खींचतान इधर देखने को मिलती है। यह खींचतान प्रमोद और सिडनी, लिजा और विलियम के बीच होती है। मैं अक्सर ट्रेक में जाता हूँ और उधर ऐसे कई किरदार देखने को मिल जाते हैं जो शौक शौक में तो ट्रेक में आ जाते हैं लेकिन उसकी गंभीरता का अहसास होने नहीं होता है। उन्हें संभालना उनके गाइड के लिए काफी मुश्किल हो जाता है। सिडनी, लिजा, विलियम भी ऐसे ही किरदार हैं। उनके और प्रमोद के बीच की बहस पढ़ते हुए मैं कई बार ट्रेक्स के दौरान सुनी गई ऐसे कई बहसें ध्यान आ रही थी जिसने बरबस ही मेरे चेहरे पर मुस्कान ला दी थी। मैं उस वक्त प्रमोद की हालत समझ सकता था।  

अंत में यही कहूँगा कि विदेशी पृष्ठ भूमि पर रचा गया लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक का यह उपन्यास आपको पढ़ते वक्त उनके बाकी उपन्यासों से एक अलग अहसास जरूर देता है। उपन्यास में एक जानदार उपन्यास बनने के पूरे गुण थे लेकिन रोमांच की कमी के कारण यह उपन्यास एक औसत उपन्यास बनकर ही रह जाता है।  अगर उपन्यास में रोमांच के तत्व ज्यादा होते तो शायद यह एक बेहतरीन उपन्यास बन सकता था। फिर भी उपन्यास एक बार पढ़ा जा सकता है। इस शृंखला के दूसरे उपन्यास मैं जरूर पढ़ना चाहूँगा। 

पुस्तक लिंक: अमेज़न


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2 Comments
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  1. आपने ठीक समझा है विकास जी। वास्तव में पृष्ठ संख्या कम रखने की बंदिश उस ज़माने में पाठक साहब जैसे क़ाबिल लेखक के लिए एक बड़ी दुश्वारी थी। इसीलिए यह उपन्यास आपको कम रोमांचक लगा जबकि ज़्यादा रोमांचक हो सकता था। प्रमोद के कुल चार ही कारनामे हैं। उसके दूसरे उपन्यास 'आधी रात के बाद' में उसकी बैकग्राउंड के बारे में आपको बहुत कुछ जानने को मिलेगा। इस सीरीज़ और इस किरदार से मुझे कुछ ऐसा लगाव हुआ कि मैंने इस पर एक लम्बा लेख लिखा जिसका लिंक मैं आपके और पाठक साहब की क़लम के दूसरे शैदाइयों के लिए दे रहा हूं :
    https://jitendramathur.blogspot.com/2021/02/blog-post_18.html?m=1

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    1. जी आभार। प्रमोद के बाकी कारनामें भी पढ़ने की कोशिश रहेगी। आपके द्वारा लिखा हुआ लेख वाकई बेहतरीन है। इसे पाठक साहब के शैदाइयों को जरूर पढ़ना चाहिए।

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