नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

हांगकांग में हंगामा - सुरेन्द्र मोहन पाठक

संस्करण विवरण:

फॉर्मैट: ईबुक |  प्रकाशक: डेलीहंट | शृंखला: सुनील #6 | प्रथम प्रकाशन: 1966

पुस्तक लिंक: अमेज़न

समीक्षा: हांगकांग में हंगामा - सुरेन्द्र मोहन पाठक | Book Review of Hongkong Mein Hungama by Surendra Mohan Pathak

कहानी

नरेश कुमार प्रतिरक्षा मंत्रालय में एक क्लर्क हुआ करता था जिसकी मृत्यु रहस्यमय परिस्थितयों में हुई थी। उसकी लाश के पास से कुछ ऐसे दस्तावेज बरामद हुये थे जिसने देश की खुफिया अजेंसियो में खलबली मचा दी थी। खतरे की बात यही थी कि इन दस्तावेजों के कुछ जरूरी हिस्से अब भी गायब थे। 

अब प्रतिरक्षा मंत्री द्वारा उन कागजों को लाने की जिम्मेदारी सुनील को सौंपी गई थी।  और अपनी इस जिम्मेदारी को पूरा करने हेतु सुनील को हांगकांग आना पड़ा था जहाँ कदम कदम पर खतरा उसका इंतजार कर रहा था।

आखिर नरेश कुमार को किसने मारा था?

नरेश कुमार के पास ऐसे कौन से दस्तावेज बरामद हुए थे जिससे सब घबरा गए थे?

क्या सुनील अपने ऊपर आई इस जिम्मेदारी का निर्वाहन  कर पाया? 

उसे हांगकांग क्यों जाना पड़ा और उधर उसके साथ क्या क्या हुआ?

ऐसे कई सवालों के जवाब आपको इस उपन्यास में पढ़ने को मिलेंगे।

मुख्य किरदार 

सुनील कुमार चक्रवर्ती - ब्लास्ट का रिपोर्टर
रामसिंह - सी बी आई का सुपरिटेंडेंट 
नरेश कुमार - प्रतिरक्षा मंत्रालय का क्लर्क जिसकी रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो गयी थी
रमा - रमेश की मंगेतर
कर्ण सिंह - अंडर सेक्रेटरी
मेजर वर्मा - राजनगर में कर्ण सिंह का दोस्त
नरेंद्र सिंह - कर्ण सिंह का छोटा भाई
सोहन लाल - आफिस सुपरिटेंडेंट
सलामत अली - दूसरे मुल्क का एजेंट जो गुप्त दस्तावेजों के पीछे पड़ा था
माइकल -  भारत में रह रहा एक विदेशी एजेंट
गौतम - सी बी आई का जासूस जो सुनील से पहले ही होंग कोंग निकल गया था
मोहम्मद - एक अरबी लड़का जो सुनील को हांगकांग में मिला था
चिन ली - एक खूबसूरत चीनी महिला जो चायना क्लब में नर्तकी थी
लार्ड गोल्डस्मिथ - चायना क्लब का संचालक
सिल्विया - चायना क्लब की एक अमेरिकी होस्टेस
मिंग - एक पेशेवर हत्यारा
अब्दुल - मोहम्मद का भाई
मिस्टर टर्नर - चीफ़ इंस्पेक्टर

मेरे विचार

हांगकांग में हंगामा लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक द्वारा रचित सुनील शृंखला का छठवाँ उपन्यास है।  यह उपन्यास पहली बार 1966 में प्रकाशित हुआ था। मैंने इस उपन्यास का जो संस्करण पढ़ा वो डेली हंट द्वारा 2015 में प्रकाशित हुआ था। 


1966 में प्रकाशित हुए इस उपन्यास की खास बात यह है कि इस उपन्यास में पहली बार सुनील भारतीय सरकार के लिए एक एजेंट बन एक मिशन को अंजाम देता नजर आया था। इसके बाद कुछ और आगे के उपन्यासों में उसने ऐसे भारतीय एजेंट की तरह कार्य किया था।  

हांगकांग में हंगामा की बात करें तो जैसे नाम से प्रतीत होता है कि इस उपन्यास में सुनील अपनी कर्मभूमि राजनगर नहीं अपितु हांगकांग में जाकर कार्य करता दिखाई देता है। 

उपन्यास की शुरुआत रामसिंह के सुनील को प्रतिरक्षा मंत्री से मिलवाने से होती है। प्रतिरक्षा मंत्रालय के एक क्लर्क की मृत्यु के बाद जो बखेड़ा खड़ा हो गया है उसे सुलझाने की जिम्मेदारी मंत्री जी सुनील को  इसलिए देते हैं क्योंकि वह एक सिविलियन है और हालात ऐसे रहते हैं  कि किसी भारतीय गुप्तचर को साफ तौर पर मामले पर नहीं लगाया जा सकता है। 

इसके बाद किस तरह सुनील मामले की तह तक जाता है और इस दौरान किन किन रहस्यों को सुलझाता है यह देखना रोचक रहता है। उपन्यास का शुरुआती चालीस प्रतिशत हिस्सा भारत में घटित होता है और उसके बाद का साठ प्रतिशत का हिस्सा हांगकांग की धरती पर घटित होता है। भारत में सुनील जहाँ रमेश कुमार की मृत्यु की गुत्थी सुलझाता है वहीं हांगकांग में वह मुसीबतों से दो चार होकर भारत के कुछ जरूरी दस्तावेजों को वापिस लाने की जुगत करता दिखता है। ऐसा करते हुए वह कई बार धोखा खाता है, कई बार उसकी जान साँसत में फँसती भी दिखाई देती है।  जितनी आसानी से वह नरेश कुमार की हत्या की गुत्थी सुलझाता है उतना ही मुश्किल उसे कागजातों का पता लगाने में भी होती है। पल पल आती मुश्किलातें पाठक को उपन्यास से बांधकर रखती हैं।  


चूँकि इस उपन्यास में सुनील एक सीक्रिट एजेंट के तौर पर कार्य कर रहा है तो उपन्यास में रमाकांत मौजूद नहीं है। उसकी कमी इधर खलती है। लेकिन इस उपन्यास में सुनील के साथ मोहम्मद नाम का किरदार दिखता है जो कि रमाकांत की कमी काफी हद तक पूरी कर देता है। वह एक तेज तर्रार बच्चा है जो चोरी करके अपना जीवन यापन करता है। वह सुनील से टकराता है और फिर कुछ ऐसा होता है कि वह हांगकांग की धरती पर उसका उतना ही साथ देता है जितना कि रमाकांत भारत में देता है। उपन्यास के अंत में मैं यही सोच रहा था कि पाठक साहब को मोहम्मद को किसी और कथानक में जगह देनी चाहिए थी। जैसी ज़िंदगी वह जी रहा था उसका मुसीबत में फँसना तय था। ऐसे में एक कथानक उसके द्वारा सुनील को अपनी मदद के लिए बुलवाने पर भी लिखा जा सकता है। अगर ऐसा कुछ होता है उस उपन्यास को पढ़ने में मेरी दिलचस्पी रहेगी। 

उपन्यास में राम सिंह भी मौजूद है जो कि जरूरी जरूरी मौकों पर अपनी मौजूदगी दर्ज करवाता रहता है। 

उपन्यास में हांगकांग के चायना क्लब का जिक्र है जिसका बहुत ही सजीव चित्रण पाठक साहब ने किया है। वहाँ मौजूद सिलविया के किरदार के माध्यम से वह देहव्यापार में धकेली गई स्त्री के मनोभावों को दर्शाने में कामयाब होते हैं। अक्सर देह व्यापर में लिप्त स्त्रियों की तो हम लानत मलानत करते हैं लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि इनके ग्राहक उनसे ज्यादा दोषी हैं क्योंकि वह उन्हीं के कारण इधर लायी गईं हैं। इस बिन्दु पर सोचे जाने की जरूरत है। 

जहाँ एक तरफ सिलविया का किरदार पाठक के मन में सहानुभूति पैदा करता है वहीं चिन ली का किरदार अच्छे खासे आदमियों के होश उड़ाने की कुव्वत रखता है। जिस तरह से उसका विवरण इधर हुआ है वह आपके मन में उसे देखने की ललक सी जगा देता है। 

उपन्यास में खलनायक के रूप में गोल्डस्मिथ का किरदार प्रभावी है लेकिन उसके और सुनील का टकराव और बेहतर तरीके से दर्शाया जा सकता था।  

चूँकि उपन्यास गुप्तचरी पर आधारित है तो गुप्तचरी के काफी दाँव पेंच इधर देखने को मिलते है। कुछ दांव पेंच आज के पाठक को घिसे पिटे लग सकते हैं लेकिन अगर ये सोचकर पढ़ा जाए कि उपन्यास 1966 में आया था तो आप उपन्यास का ज्यादा लुत्फ ले पाएंगे।  

उपन्यास के अंत में ट्विस्टस भी आते हैं जिनमें से एक का अंदाजा पाठक के तौर पर मुझे पहले लग गया था लेकिन दूसरा मुझे चौंकाने में कामयाब हुआ था।

अंत में यही कहूँगा कि 'हांगकांग में हंगामा' मुझे एक पठनीय उपन्यास लगा जिसने मेरा भरपूर मनोरंजन किया। यह एक पठनीय रचना है और अगर आपने नहीं पढ़ी है तो एक बार आपको इसे पढ़कर देखना चाहिए। हो सकता है सुनील का यह नया रूप आपको पसंद आए। मेरी सुनील के ऐसे दूसरे करतबों को जल्द ही पढ़ने की कोशिश रहेगी। 

अगर आपने इस उपन्यास को पढ़ा है तो आपको यह कैसा लगा? अपने विचारों से मुझे अवगत जरूर करवाइएगा। सुनील के स्पाईसीरीज के उपन्यासों में से आपका पसंदीदा कौन सा उपन्यास है? मुझे बताना न भूलिएगा। 


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2 Comments
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  1. 'हांगकांग में हंगामा' मेरा पसंदीदा उपन्यास है। आपने अच्छी समीक्षा की है इसकी। सुनील के ऐसे उपन्यास पृष्ठ संख्या में कम होते हुए भी बड़े कैनवास पर लिखे गए होने के कारण उपन्यास ही होते थे, कहानी नहीं। सुनील के ऐसे उपन्यासों में मुझे 'ऑपरेशन पीकिंग' और 'स्पाई चक्र' ज़्यादा अच्छे लगे। वैसे नापसंद करने जैसा तो ऐसा कोई भी उपन्यास नहीं है।

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    1. जी उपन्यास के ऊपर लिखा यह लेख आपको पसंद आया यह जानकर मुझे अच्छा लगा। आपने सही कहा भले ही इनका साइज़ छोटा हो लेकिन फिर भी इन्हे कहानी के बजाय उपन्यास या लघु-उपन्यास कहना सटीक होगा। स्पाई शृंखला के दूसरे उपन्यास पढ़ने की भी कोशिश रहेगी।

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