नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

किताब परिचय: गंगापुत्र भीष्म

किताब परिचय: गंगापुत्र भीष्म


किताब परिचय 

देवव्रत से भीष्म की यात्रा मानव-मूल्यों की विस्तृत परंपरा का गान है। इस कृति में लेखक ने कालजयी योद्धा भीष्म के जीवन के कई अनछुए पहलुओं को स्पर्श किया है। आप जब पुस्तक पढ़ते हैं तो प्रतिपल भीष्म के साथ उनके जीवन की मानसिक यात्रा के साथी बन जाते हैं। प्रस्तुत पुस्तक को सिर्फ महाभारत के आख्यान हेतु नहीं पढ़ा जाना चाहिए, बल्कि तत्कालीन गुप्तचर व्यवस्था एवं समाज व्यवस्था की भी झलक इसमें मिलती है। यही वह समय था, जब धरा को श्रीकृष्ण के रूप में नया नायक मिला था। भीष्म की धर्म-निष्ठा एवं श्रीकृष्ण द्वारा प्रदत्त धर्म की सम्यक् व्याख्या हेतु भी पुस्तक को पढ़ा जाना चाहिए।

किताब लिंक: अमेज़न

पुस्तक अंश

किताब परिचय: गंगापुत्र भीष्म


जाह्न‍वी की धारा एवं उसका किनारा सदैव ही मेरे अग्निपथरूपी जीवन के लिए शांत छाँव प्रदान करता रहा है। मैं जब भी अपने तृषित मन को लेकर यहाँ आया, जाह्न‍वी ने मुझे शांत किया, यथा माँ अपने व्याकुल पुत्र को आँचल में समेट ले, अभी कुछ देर पहले ही अग्र आगमन दूत सूचना देकर गया कि महायुवराज दुर्योधन अपने पितामह से मिलने आ रहा है। महायुवराज, सम्राट् से ज्यादा अधिकार प्राप्त युवराज, अपने एक राजकर्मचारी से नहीं, बल्कि पितामह से मिलने आ रहा है, वर्षों के बाद, आश्चर्य! परंतु वस्तुतः मुझे विस्मित नहीं होना चाहिए, मनुष्य की महत्त्वाकांक्षा एवं वर्तमान दौर में मूल्यक्षरण मनुष्यता को किस गर्त में ले जाकर छोड़ेंगे, अनुमान असंभव है। जीवन अनेक रूपों एवं रंगों में मेरे सम्मुख उपस्थित हुआ था, हो रहा है, फिर भी मेरा पौत्र समझता था, वह मुझे अपने किंचित् हाव-भाव से प्रभावित कर सकता था! मेरी विचार-शृंखला को प्रहरी के आगमन की ध्वनि ने बाधित किया, संभवतः महायुवराज का पदार्पण हो चुका था। आज न महायुवराज के पधारने से पूर्व आनेवाले सुरक्षाकर्मियों का विशेष दल आया, न ध्वनि विस्तारक यंत्र से महायुवराज के आने की घोषणा करते, महायुवराज की चरण-वंदना करते चारणों का समूह। मैंने ध्यान दिया कि यदि बालपन की क्रीड़ा को छोड़ दिया जाए तो दुर्योधन कभी भी अपने पितामह से मिलने आया ही नहीं, पहले राजकुमार और फिर महायुवराज अपने राजकर्मचारी से मिलने आया। मैंने प्रहरी को दुर्योधन को अतिथिगृह में विश्रमित व यथासंभव स्वागत हेतु आज्ञा दी। दुर्योधन से मिलन से पूर्व मेरी इच्छा है कि मैं और अधिक दृढ़ हो जाऊँ, मुझे अनुमान है कि दुर्योधन मुझसे क्या विनती करना चाहता है, मैं दुर्योधन की विनती को स्वीकार भी करूँगा, परंतु...। मैंने गंगा को प्रणाम किया एवं गवाक्ष को पूरित किया। मुझे आता देखकर दुर्योधन दूर से ही हाथ जोड़कर सावधान मुद्रा में प्रस्तुत हुआ, उसके प्रणाम का समुचित आशीर्वाद देने के बाद मैंने स्थान ग्रहण किया। दुर्योधन वहीं मेरे निकट स्थित सिंहासन पर विरमित हुआ। “कैसे हो पुत्र?” “जिस व्यक्ति का पितामह आपके समान हो, वह सदैव अच्छा ही होगा पितामह, साक्षात् मृत्यु भी उसके समीप आने से घबराएगी, बस इस पुत्र पर पितामह का आशीर्वाद बना रहे।” “पांडवों के दल की तरफ से कोई सूचना? अभी भी समय है, मधुसूदन द्वारा सुझाए गए हल के बारे में विचार कर सकते हो।” अचानक ही दुर्योधन की भाव-भंगिमा में आश्चर्यजनक क्रोधयुक्त परिवर्तन आया, परंतु विस्मय! अचानक ही अतिथि कक्ष दुर्योधन के रुदन से गूँज उठा। दुर्योधन ने अपनी छाती को दोनों हाथों से पीटना आरंभ कर दिया। दुर्योधन को यह गुण अपने पिता से प्राप्त हुआ था, परंतु धृतराष्ट्र का क्रोध उसकी शारीरिक अक्षमता से उपजी हुई खीज थी, उसकी अंधता के कारण दुर्बलता एवं सामान्य व्यक्ति की सबलता के बीच जो अंतर था, वही धृतराष्ट्र के व्यवहार में क्रोध रूप में उभरकर आता था, परंतु दुर्योधन का इस प्रकार का व्यवहार मेरी समझ से परे है। दुर्योधन उसी अवस्था में बोला, “जब मेरे देवतुल्य पितामह ही मेरे अधिकार को मान्यता नहीं देते, फिर इस जीवन का क्या अर्थ, इसको नष्ट कर देना ही श्रेयस्कर है!” मैं कुछ देर तक अधिकार के मद में संज्ञाशून्य दुर्योधन को देखता रहा, कुछ समय उपरांत उसका रुदन स्वतः ही शांत हुआ। संभवतः उसको यकीन हो गया कि यथावश्यक प्रभाव पड़ चुका है। “दुर्योधन, क्या अधिकार ही जीवन का मूल है? अधिकार तभी व्यक्ति का आभूषण है, जब समाज एवं धर्म उसको स्वीकार करे, ऐसे अधिकार के लिए गुहार नहीं लगानी पड़ती, अपितु धर्म स्वयं ही उनकी प्राप्ति का मार्ग सहज करता है। जिस अधिकार हेतु बारंबार गुहार लगानी पड़े, ऐसे अधिकार को मैं धर्मसंगत नहीं मानता, यह व्यक्ति के सहज सामर्थ्य पर भी कालिमा के समान है।” “पितामह, मैं यहाँ पर न जीवन-मूल्य समझने आया हूँ और न ही अधिकार और जीवन-मूल्यों की व्याख्या सुनने, मैं तो यहाँ अपने पितामह के पास, उन पितामह के पास जिन्होंने अपनी माता को सदैव हस्तिनापुर के सिंहासन की रक्षा का वचन दिया था, हस्तिनापुर की रक्षा हेतु निवेदन करने आया हूँ।” प्रत्येक बीतते हुए क्षण के साथ दुर्योधन प्रत्यक्ष होकर सामने आता जा रहा था। “यदि वचन मुझे स्मरण न होता तो आज जैसी विषम स्थिति ही उत्पन्न नहीं होती! अस्तु, तुम जिस कार्य हेतु आए हो, उसको क्रियान्वित करो।” मैंने कुछ रूक्ष स्वर में कहा। दुर्योधन भी मेरे स्वर की रूक्षता भाँपकर कुछ विचलित हुआ, कदाचित् दुर्योधन इस नाट्य हेतु अत्यधिक मात्रा में मदिरा सेवन करके आया था। मदिरा की गंध उसकी साँसों से प्रवाहित होते हुए मुझ तक पहुँच रही थी, मैंने उसको पुनः प्रश्नवाचक नेत्रों से देखा। अब तक स्वयं पर नियंत्रण पा चुका दुर्योधन अत्यंत ही विनीत स्वर में बोला, “पितामह, मुझ दीन पर कृपा करें, मैं आपको प्रतिज्ञा याद दिलाऊँ, ऐसा मेरा साहस कहाँ? पितामह, बस एक ही आग्रह है कि हम कौरवों की 11 अक्षौहिणी सेना का नेतृत्व आप अपने समर्थ हाथों में लें।”


“क्यों, तुम्हारे पास तो कई योद्धा हैं और फिर तुम जानते ही हो, भले ही मैं तुम्हारी तरफ से युद्ध करूँ, परंतु पांडवों के प्रति तो मैं निरपेक्ष ही रहूँगा? पांडव मेरे लिए अवध्य हैं।” “ज्ञात है पितामह, यह तो आप भी स्वीकार करेंगे कि पांडवों को अग्रप्रतिष्ठित कर वस्तुतः पांचाल हमलावर हैं हस्तिनापुर पर। पांचाल अति चतुराई से अर्जुन के गांडीव पर अपनी पीढ़ियों पुरानी महत्त्वाकांक्षा का तीर चलाना चाहते हैं।” यह कहकर दुर्योधन ने आशान्वित दृष्टि से मेरी ओर देखा। संभव है, उसको अनुमान हो कि पांचालों का नाम सुनते ही मैं क्रोधवश सेनापति का उत्तरदायित्व ग्रहण कर लूँगा। “मेरी एक और शर्त सुन लो दुर्योधन, फिर सोच-समझकर कोई निर्णय लो। तुम्हारा अभिन्न मित्र सदैव मुझसे प्रतिस्पर्धारत रहता है। उसको न शस्त्र का ज्ञान है न शास्त्रों का। असत्य का आश्रय लेकर प्राप्त की गई विद्या पर मिथ्या अभिमान करता है, परंतु युद्ध में जरा सा दुर्गम शत्रु पाते ही पीठ दिखाकर भाग आता है। उसको न शास्त्रसम्मत चलन का ज्ञान है, न ही उसकी समझ में विनम्रता का कोई मूल्य है। विनम्रता किसी भी उत्तम योद्धा का मूल स्वभाव है, किसी भी शक्तिमान का आवश्यक गुण है, विनम्रता के अभाव में महारथी भी शक्तिशाली पशु से बढ़कर नहीं है। इसके साथ ही तुम्हारे मित्र में किसी भी युद्ध में विजय के लिए आवश्यक गुण अनुशासन का भी नितांत अभाव है, जैसा कि मैंने कहा कि मेरे सेनापति बनने के उपरांत भी कर्ण अपने स्वभावानुसार मुझसे प्रतिस्पर्धा को तिलांजलि नहीं दे पाएगा एवं अनुशासन भंग कर अनजाने ही शत्रु पक्ष की सहायता करेगा, अतः मेरा निश्चय है कि मेरे सेनापतित्व में वह युद्ध नहीं करेगा, यदि वह युद्ध करेगा तो मैं शस्त्र ग्रहण नहीं करूँगा।” “स्वीकार है पितामह!” दुर्योधन ने अतिशीघ्रता से कहा।


“एक बार पुनः विचार कर लो दुर्योधन, युद्धकाल में सेनापति का आदेश सर्वोपरि होता है, न कि राजा या युवराज का, संभव है कि तुमको बाद में अपने निर्णय पर पश्चात्ताप हो!” “पश्चात्ताप का प्रश्न ही नहीं उपस्थित होता पितामह, जिस पक्ष से गंगापुत्र भीष्म शस्त्र धारण करेंगे, उस पक्ष के लिए पश्चात्ताप या पराजय जैसे शब्द हैं ही नहीं।” मैं शांत ही रहा, मैंने अपनी शर्तें दुर्योधन के सामने स्पष्ट कर दी थीं। दुर्योधन ने भी मेरी चुप्पी को मेरी स्वीकृति समझा, उसने तुरंत ही भृत्य को पूजन सामग्री लाने का आदेश दिया। दुर्योधन ने कक्ष में ही मेरा महासेनापति के रूप में अभिषेक किया। “अब मैं आज्ञा चाहूँगा पितामह! प्रणाम स्वीकार करें।” दुर्योधन बोला। 


“आयुष्मान भव!”


******

किताब लिंक: अमेज़न


लेखक परिचय

अंकुर मिश्रा

अंकुर मिश्रा कानपुर उत्तर प्रदेश के हैं। उन्होंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के पश्चात बैंकिंग क्षेत्र में अपना कैरियर बनाने का विचार किया। अब वह सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक में वरिष्ठ प्रबन्धक के पद पर कार्यरत हैं। 

उनकी कहानियाँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। 

लेखक से आप निम्न माध्यमों के द्वारा सम्पर्क स्थापित कर सकते हैं:

ईमेल | फेसबुक इंस्टाग्राम अमेज़न पेज


नोट: 'किताब परिचय' एक बुक जर्नल की एक पहल है जिसके अंतर्गत हम नव प्रकाशित रोचक पुस्तकों से आपका परिचय करवाने का प्रयास करते हैं। अगर आप चाहते हैं कि आपकी पुस्तक को भी इस पहल के अंतर्गत फीचर किया जाए तो आप निम्न ईमेल आई डी के माध्यम से हमसे सम्पर्क स्थापित कर सकते हैं:

contactekbookjournal@gmail.com

FTC Disclosure: इस पोस्ट में एफिलिएट लिंक्स मौजूद हैं। अगर आप इन लिंक्स के माध्यम से खरीददारी करते हैं तो एक बुक जर्नल को उसके एवज में छोटा सा कमीशन मिलता है। आपको इसके लिए कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं देना पड़ेगा। ये पैसा साइट के रखरखाव में काम आता है। This post may contain affiliate links. If you buy from these links Ek Book Journal receives a small percentage of your purchase as a commission. You are not charged extra for your purchase. This money is used in maintainence of the website.

Post a Comment

2 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.

Top Post Ad

Below Post Ad

चाल पे चाल