नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

बोरीवली से बोरीबन्दर तक - शैलेश मटियानी

संस्करण विवरण:

फॉरमेट:
पेपरबैक | प्रकाशक: हिन्द पॉकेट बुक्स | पृष्ठ संख्या: 128

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समीक्षा: बोरीवली से बोरीबंदर तक - शैलेश मटियानी

कहानी

वीरेन की जिंदगी भटकते हुए ही गुजरी थी। कुमाऊँ से दिल्ली और अब वह दिल्ली से मुंबई की तरफ चल गया था। वह लेखक था। उसकी कुछ कवितायें छपने लगी थी। उसे लगा था कि मुंबई उसे कुछ दे सकती है। 

वह मुंबई पहुँचा तो हालात ऐसे हुए कि ठिकाने की तलाश में उसे बोरीवाली से बोरीबंदर का सफर करना पड़ा। 

उसे क्या पता था कि यह सफर ही उसकी जिंदगी बदल देगा।

मुख्य किरदार

वीरेंद्र सिंह बिष्ट 'शैल' - एक कवि जो नौकरी की तलाश में मुंबई पहुँचा था 
पंडित - वीरेंद्र का दोस्त 
प्योलि - पंडित की प्रेमिका जिसकी शादी के बाद वह अल्मोड़ा से दिल्ली आ गया था 
लाली - एक नेपाली जिससे पंडित को प्रेम हो गया था 
सरू - वीरेंद्र की बचपन की प्रेमिका 
पी सी गोस्वामी - स्टेशन मास्टर 
दादा - मुँगरापाड़ा का गुंडा 
नूर - दादा के घर में रहने वाली स्त्री 
अलीबख्श -मुँगरापाड़ा में रहने वाले व्यक्ति जिसकी उधर फर्नीचर की दुकान थी  
कलीहुसैन - अलीबक्श का पार्टनर 
फर्नांन्डीस डिसूजा - मुँगरापाड़ा में टेलर की दुकान चलाने वाला 
विट्ठल पांडिया - दादा का आदमी 
अन्ना स्वामी - मुँगरापाड़ा का एक व्यक्ति जो अपनी बहन बेचता था 
कांजी सेठ - एक बड़ा सप्लाइर 

मेरे विचार:

बोरिवली से बोरबंदर तक लेखक शैलेश मटियानी द्वारा लिखा गया उपन्यास है।  यह शैलेश मटियानी जी का प्रथम उपन्यास था जो 1959 में प्रकाशित हुआ था। बोरीवली से बोरीबंदर तक के लिए शैलेश मटियानी जो उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा सम्मानित भी किया गया था।  

मेरे पास उपन्यास का जो संस्करण है वह हिन्द पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसका प्रथम संस्करण हिन्द पॉकेट बुक्स द्वारा 1986 में प्रकाशित किया गया था। जब से हिन्द पॉकेट बुक्स को पेंगविन द्वारा अधिकृत कर दिया गया था तब से उन्होंने हिंदी के कुछ ऐसे उपन्यास प्रकाशित करने शुरू कर दिये हैं जो काफी वर्षों से आउट ऑफ प्रिन्ट चल रहे थे। यह भी इसी शृंखला में प्रकाशित एक उपन्यास है। 

मैं शैलेश मटियानी के लेखन को काफी वक्त से पढ़ना चाह रहा था ऐसे में यह शीर्षक दिखा तो इसी से शुरुआत करने का मन बना लिया। यह इसलिए भी था कि मैं खुद 2012 से 2015 तक मुंबई में रहा था और इस कारण उपन्यास के शीर्षक में दर्ज जगहों को जानता था। इसने एक तरह की उत्सुकता मन में जगा दी थी। 

उपन्यास पढ़ते हुए कई बार लगता है कि इसमें काफी कुछ आत्मकथात्मक लेखक ने लिखा है। वीरेंद्र और शैलेश मटियानी में कुछ साम्य तो मौजूद हैं।  वीरेंद्र 'शैल' उपनाम से कविताएँ लिखता है और शैलेश भी रमेशचंद्र मटियानी जी का उपनाम था।  वीरेंद्र काम की तलाश में मुंबई आता है और शैलेश जी भी मुंबई रहे थे। दोनों को ही वहाँ काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा था। ऐसे में हो सकता है कि वीरेंद्र में उन्होंने खुद को प्रोजेक्ट किया हो। 

उपन्यास के कथानक की बात करें तो यह वीरेंद्र सिंह बिष्ट नामक व्यक्ति की कहानी है। उपन्यास की शुरुआत एक ट्रेन के दृश्य से होती है जहाँ वीरेंद्र सिंह बिष्ट अपने दोस्त के साथ दिल्ली से मुंबई जा रहा है। वीरेंद्र सिंह बिष्ट एक कवि है जो 'शैल' उपनाम से लिखता है। वह फकाकाशी (गरीबी) का जीवन ही अब तक बिताता आया है। इस सफर के दौरान ही आप जान पाते हैं बचपन से उसका जीवन ऐसा रहा है कि या तो उससे प्रेम करने वाले उससे दूर हो जाते हैं या वो मजबूरीवश उनसे दूर हो जाता है। इसी गरीबी के चलते वह अपनी प्रेमिका को भी नहीं अपना पाया था। वह लेखन तो करता है लेकिन चूँकि लेखन से भी उसका कुछ हो नहीं रहा है तो उसे लेकर भी निराश है और अब आखिरी चारे के रूप में बंबई जा रहा है। बंबई में पहुँच कर उसके साथ क्या अनुभव होते हैं? क्या उसे नौकरी मिलती है? क्या लेखन में उसका कुछ हो पाता है? क्या उसके प्रेमविहीन जीवन में प्रेम आता है? अगर आता है तो किस तरह आता है और इसके चलते उसके जीवन में क्या क्या कठिनाई आती हैं? यही सब घटनाएँ मिलकर उपन्यास का कथानक बनती है। 

वीरेंद्र उपन्यास का मुख्य किरदार है। वह एक सीधा साधा युवक है जो मुंबई नगरिया में पहली बार आया है। यहाँ आकर यहाँ की दुनिया को वह अपनी नजर से देखता है। एक कलाकार जैसा कोमल हृदय होता है वैसा ही उसे दिखाया गया है। इस कारण कई बार उसे दुख भी मिलता है तो कई बार चीजें उसके पक्ष में भी घटित हो जाती है। मुंबई के हाव भाव देखकर वह कभी हैरान होता है, कभी डरता है और कभी लोगों से मिल रही सहानुभूति से कृतज्ञ भी होता है।

उपन्यास में नूर भी एक महत्वपूर्ण किरदार है। वह एक ऐसी स्त्री है जिसकी कहानी भारत में कई लोगों की कहानी होगी। वह प्रेम में धोखा खाई स्त्री थी जिसे प्रेमी ने देह व्यापार में धकेल दिया था। नूर के माध्यम से लेखक ने विधवाओं, प्रेम में धोखा खाई स्त्रियों की हालत भी बयान किया है।

उपन्यास में एक महत्वपूर्ण  किरदार 'दादा' है। वह एक बड़ा गुंडा है जिसके जीवन में जब नूर आती है तो उसका चरित्र पूरी तरह से बदल जाता है। कहने को तो वह गुंडा मवाली है लेकिन जिस तरह से वह नूर को समझता है, उसकी इज्जत करता है, उसकी भावनाओं की कद्र करता है वह कई बार पढे लिखे सभ्य कहे जाने वाले व्यक्तियों में भी नहीं दिखलाई देता है। 

उपन्यास का एक किरदार विट्ठल भी है। उसके बारे में पढ़कर मुझे दिल्ली के कई लड़कों की याद आ गई जो आने जाने वाले हर स्त्री से अपने सम्बन्ध होने के शेखी बघारते थे। कई लोगों में ये फूँक लेने की आदत होती है। विट्ठल एक अच्छा इंसान नहीं है लेकिन उपन्यास के अंत में जब उसे मौका मिलता है तो वह अच्छाई करने से चूकता नहीं है। 

इस उपन्यास के ये किरदार न अच्छे हैं और न बुरे हैं। यह इंसान हैं जो चुनाव करते हैं। कभी अच्छे कर्म करने का और कभी बुरे कर्म करने का। यही इन्हे तीन आयामी बनाता है। ये लोग ऊपर से अपराधी और दुश्चरित्र लगते हैं। हैं भी लेकिन कई बार इन लोगों के अंदर इंसानियत भी देखने को मिल जाती है। चूँकि वीरेंद्र मुख्य किरदार है तो जैसे जैसे वह दूसरे के संपर्क में आता रहता है और उनके संपर्क में आने के साथ उसके जो अनुभव होते हैं उन्हें लेखक ने ज्यादातर समाज पर टिप्पणी करने का जरिया चुना है। 

उपन्यास में जब वीरेंद्र मुंबई पहुंचता है तो उसे कई तरह के अनुभव होते हैं। वह चेहरे से खूबसूरत है तो वह पाता है कई बार चेहरे की खूबसूरती से ही लोगों के विचार उसके प्रति बदल जाते हैं। एक तरह का दयाभाव उनके मन में जग जाता है। आदमी का व्यवहार कैसा भी हो लेकिन चेहरा अगर अच्छा हो तो लोगों का व्यवहार किस तरह बदलता है यह वीरेंद्र के अनुभवों से जाना जा सकता है। लेखक लिखते भी हैं:

इस सूरत का भी तो अपना अलग अस्तित्व होता है। इसकी आड़ में ऐब दब भी सकते हैं। इसके माध्यम से शंका का सूत्रपात भी होता है।

उपन्यास में  किस्मत वीरेंद्र को मुँगरापाड़ा नाम की एक गरीब बस्ती में ले आती है। यहाँ के लोग गैरकानूनी कार्यों में लिप्त है। कोई दादा है, कोई नकली शराब बेचता है, कोई अपनी बहन से वैश्यावृत्ती करवाता है। वीरेंद्र के माध्यम से इन सभी की कहानी पाठकों को जानने को मिलती है। उपन्यास इन किरदारों के अलग अलग पहलुओं को पाठको के सामने पेश करता है।

अपने बहन तक को बेचने वाला व्यक्ति एक स्त्री की दारुण पुकार के आगे द्रवित हो जाता है और अपने जीवन की दिशा बदलने लगता है। एक गिरहकट, नकली शराब बेचने वाला दादा एक तरफ एक युवती पर मोहित हो उसे एक अच्छी जिंदगी देने की कोशिश करता है वहीं वह वीरेंद्र जैसे अनजान व्यक्ति को भी आसरा दे देता हैं। 

उपन्यास में कई छोटे छोटे अन्य प्रसंगों द्वारा समाज के विभिन्न स्याह पहलुओं पर लेखक टिप्पणी करते रहते हैं। जहाँ एक तरफ मलिन बस्तियों के अंदर रहने वालों तथाकथित बुरे लोगों की इंसानियत यहाँ दिखाई देती है वहीं अट्टालिकाओं में रहने वाले धनाढ्य वर्ग़ के मलिन चरित्र को भी इधर दर्शाया गया है। समाज कैसे ताकतवर के बड़े बड़े से गुनाह को भी माफ कर देता है और गरीब के छोटी छोटी गलतियों की बड़ी सजा उन्हे देता है यह भी इधर देखने को मिलता है। समाज के उस पहलू को भी उपन्यास में दर्शाया है जहाँ आदमी के अंदर एक जानवर के लिये एक इंसान से ज्यादा प्रेम है। यह ऐसी घटनाएँ हैं जो अक्सर हमारे इर्द गिर्द होती रहती हैं और अब हम इनके इतने आदि हो गए हैं कि हमारा ध्यान इन पर जाता ही नहीं है। उपन्यास पढ़ते हुए आप इन्हे देखते हैं और इन पर सोचने के लिए विवश हो जाते हैं। 

उपन्यास की भाषा सुंदर है और पढ़ते हुए आनंद आता है। कई वाक्यों को पढ़ते हुए आप ठहर जाते हैं और उन्हे बार बार पढ़ने का मन करता है। कई वाक्य सूक्तियों की तरह प्रयोग किए जा सकते हैं। वहीं चूँकि उपन्यास का मुख्य किरदार उत्तरखंड का है और उपन्यास का ज़्यादादर कथानक मुंबई में घटित होता है तो इसलिए उपन्यास में कई बार पहाड़ी भाषा, मराठी, नेपाली के वाक्य भी पढ़ने को मिलते हैं। ज्यादातर जगह इन वाक्यों का अर्थ दिया है और जहाँ नहीं भी दिया है वहाँ वाक्यों से अर्थ आसानी से पता लग जाता है। 

उपन्यास में कमी तो ऐसी कुछ नहीं लेकिन चूँकि इसका किरदार वीरेंद्र कई बार एक ऐसा व्यक्ति की तरह दिखता है जो जिधर से हवा ले चल रही है उधर चले जा रहा है। वह अपने आप अपना भविष्य सँवारने के लिए कुछ विशेष प्रयत्न करता नहीं दिखता है। शायद यही कारण है कि वह अच्छा तो है लेकिन उपन्यास में वह आपके ऊपर कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाता है। यह भी एक कारण है कि आप उससे, उसके संघर्ष से उतना जुड़ाव शायद महसूस नहीं करते हैं और उपन्यास का कथानक यथार्थवादी होते हुए भी आप पर उतना गहरा प्रभाव नहीं छोड़ पाता है जितना तब छोड़ पाता जब आप मुख्य किरदार से और उसकी परेशानियों से जुड़ाव महसूस करते। मेरी नजर में शायद यही एक इस उपन्यास का कमजोर पहलू है।

अंत में यही कहूँगा कि उपन्यास मुझे पसंद आया है। इसमें बताई गयी समाजिक स्थिति और आज की स्थिति में ज्यादा फर्क नहीं आया है। यह यथार्थवादी चित्रण सोचने के लिए आपको काफी कुछ दे जाता है। उपन्यास एक बार पढ़ा जा सकता है। इस उपन्यास को पढ़ने के बाद मैं शैलेश जी के अन्य उपन्यास जरूर पढ़ना चाहूँगा। 

उपन्यास के कुछ अंश जो मुझे पसंद आये:

वेदना के शूल स्मृतियों को छाती से लगाकर, उनके फूल से कोमल अंग प्रत्यंगों को बींध देते हैं। यह बींध यह खींच बड़ी कड़वी होती है। कर्तव्य और अपनत्व की, नाते रिश्ते की खींच। (पृष्ठ 12)

 

अतीत के पृष्ठ पलटते, भविष्य के परिच्छेद जोड़ते जब थक गया, तो लेट गया वीरेंद्र। सोचने से, सीमा से अधिक सोचने से थकान और बढ़ती है, घुटन और बढ़ती है। अस्तु सपन पालने में कल्पनाओं के सद्य ज्ञात शिशु का अँगूठा चूसते छोड़ दो, उसकी केवल मीठी तुतली किलकारी में विषाद की काली छायाएँ सिमट सिकुड़कर मन के सीमांत प्रदेश से परे चली जाएँगी। (पृष्ठ 14)

 

वर्तमान एक अंखींचीं लकीर, एक धुंधले नेगेटिव-सा है। भविष्य का चित्र इस नेगेटिव से स्पष्ट-स्वच्छ हो सकेगा, किसे मालूम! काश! जरा-सा आभास ही होता भविष्य का। लेकिन यह अनखिंची लकीर भाग्य के हाथों सीधी खिंचेगी या टेढ़ी, आड़ी-तिरछी या शून्य की भाँति वृत्ताकार, किसे मालूम! इस नेगेटिव का स्पष्ट रूप कैसा होगा, लुभावना या विकर्षक कौन जाने! (पृष्ठ 18)

 

इन राहो पर कितने प्रकार के राही चलते हैं, इस मन के पथ पर कितने विचार-राही आते-जाते रहते हैं, ठीक ऐसे ही, इसी क्रम से, आने-जाने का, कुछ सोचने-परखने का सामान जुटाते हुए। जैसे यह देखना, सोचना, परखना ही जीवन का पाथेय हो। फिर यह देखना-सोचना भी कितना विचित्र, नाप-जोख से परे। कभी कौतुहल, तो सभी समाधान, कभी चिंता तो कभी एक मन का सारा बोझ हल्का कर दे, ऐसी अल्हड़ता। (पृष्ठ 21 )

 

शरीर अपवित्र होता ही नहीं, वह तो एक पात्र है, मंज धुलकर फिर वैसा ही बन जाता है, पुराना पड़ जाये यह बात दूसरी है। पर मन तो जहाँ अपवित्र हुआ नहीं, फिर लाख गंगा-स्नान कराओ उसे, उज्ज्वल नहीं हो पाता। डाल से जमीन पर गिरे आम में जो दाग  पड़ जाते हैं, उनमें रंगत नहीं भरी जा सकती है। पकाने की कोशिश की जाए, तो पूरा आम ही सड़ जाता है। पवित्रता की डाल से गिरकर मन का आम भी अमृतफल नहीं रह पाता।  (पृष्ठ 67)

उनके लिए ईमान धर्म क्या , जिनके आगे जिंदा रहने की शर्त ही यही है कि बेईमानी करें, पाप कर्म करें और समाज की रगों में नाली के कीड़ों की तरह रेंगते रहें। कौन चाहता है नाली के कीड़े की तरह जीना? कोई नहीं चाहता।

और चूँकि नाली के कीड़ों की तरफ जीना किसी को भी पसंद नहीं, पर उसी तरह जीने की मजबूरियाँ आगे हैं, तो केवल एक ही रास्ता रह जाता है, बुरे काम करना और दारू-चरस पीना, खीसे काटने से लेकर गले काटने तक की नृशंसता रखना। जेल में ज्वार-बाजरे की रोटियाँ, तो बाहर बिरयानी से नीचे बात नहीं करना। 

जीना नाली के कीड़ों की तरह, पर हकीकत को नज़रन्दाज करने के लिए दारू चरस और औरत। बस यह औरत है जिसकी गोद में उन्हें कुछ प्यार, कुछ दुलार मिल जाता है। औरत माँ जो है! औरत बहन जो है। औरत...औरत जो है! (पृष्ठ 62)

 

मस्तिष्क जिसे लम्बी अवधि तक उलझाए रह जाता है, मन कुछ ही क्षणों में उसका फैसला कर लेना चाहता है। जानता है, न्यायाधीश की अपेक्ष निर्णय के प्रति आकुलता बंदी को ही रहती है और वैसे भी मन के मामले में सदैव मस्तिष्क को ही न्यायाधीश बनाना ठीक नहीं। मन विचार-भर करता है। वह विचारकर्ता है, मन भोक्ता है। भोक्ता की व्याधि वह क्या समझे! (पृष्ठ 71)

 

जिसे हम जीवन का सबसे बड़ा सवाल समझते हैं, कभी-कभी उसी का निपटारा क्षणों की वेदी पर कर देना पड़ता है। यही तो विधि की विडम्बना है।  (पृष्ठ 72 )

 

आकाश में बादल घृते देख घर का पानी-भरा घड़ा फोड़ देना, मूर्खता न होगी? जैसे दही के मथने से जो माखन निकलता है, वह दही छाछ की अपेक्षा अधिक ठोस, अधिक शक्ति-सम्पन्न होता है, उसी प्रकार वादी-प्रतिवादी विचारों के मंथन से, जो निर्णय मिलत अहै, वह भी ठोस, व्यवहारिक होता है। (पृष्ठ 72) 

 

अतीत की धुंधली दिशायें भविष्य की अनिश्चित पगडंडियों से गले मिल रही थीं और वीरेन सोच रहा था, विड्म्बनाओं से जब विड्म्बनाएँ गले मिलती हैं, तो क्या होता है? काँटे काँटों के गले से मिलें, तो क्या होता है । काँटे फूल के गले मिलें, तो क्या होता है? मिलन से एक नई चीज का जन्म होता है, यह तो ध्रुव सत्य है, पर वह मिलन प्रकृति-पुरुष का हो तब न? सुख से सुख  दुःख से दुःख का समन्वय पुरुष-पुरुष या प्रकृति-प्रकृति का मिलन है।... दूध में दूध डालने से कोई नई चीज नहीं बनती। सत्य से झूठ का, दूध से चावल का, सुख से दुःख का सम्मिलन होना चाहिए तभी नई चीज बनती है, फिर चाहे वह वर्ण-शंकर ही क्यों न हो? (पृष्ठ 106)

 

प्यार का भी कोई समय होता है? प्यार की लालसा मानव-मन की तीव्रतम ही नहीं पवित्रतम अनुभूति है। जिनके मन में मीन-मेख है, जिनके जीवन में प्यार के वाक्य में भी जल्दी विराम-चिन्ह लग गया है, वे इसी बात को दूसरी निगाह से देखते हैं। (पृष्ठ 106)

 

हर फूल महकना चाहता है, हर इंसान जीना चाहता है, हर जिंदगी मुस्कराना-भटकना चाहती है। फूल की महक काँटों की चहार दीवारी लाँघने पर ही मिलना सम्भव है। काँटों से परे फूल का, संघर्ष से परे जीवन का कोई मूल्य शास्वत नहीं है। (पृष्ठ 107)

 

सेठ लोग हजार मनुष्यों का रक्त निचोड़कर, कुछ चांदी के टुकड़े 'पशुओं के लिए गोशाला-धर्मशाळा बनाने को दे दें, तो उनकी दया, धर्म-कीर्ति की दुन्दुभि चारों दिशाओं में गूँजने लगती है। पर, गरीब अपने प्राणों की आहुति देकर भी मानवता के आदर्शों की रक्षा करता है, तो कहीं चर्चा तक नहीं होती। सेठ हजारों के गले में स्वार्थ की छुरी फेर देते हैं, सरेआम इंसानियत को कत्ल कर देते हैं, वह केवल रोजगार दिखाई देता है। गरीब गंजी-फ्रॉक बेचकर चार आने क्माने की कोशिश करे, वह कानून की दृष्टि में अपराधी है। सेठ के पुण्य और गरीब के पाप दोनों तिल से ताड़ बनकर समाज के सामने आते हैं। (पृष्ठ 119)


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4 Comments
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  1. किताब का बेहद खूबसूरती के साथ विकास जी ने रिव्यू किया है।
    अच्छी बात यह है कि कहानी के छोटे-छोटे अंशो को अपने लेख में ले आना जरूर पाठको को कहानी पढ़ने के प्रति और उत्सुक कर देगी।

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    1. किताब पर लिखी टिप्पणी आपको पसंद आयी यह जानकर अच्छा लगा। हार्दिक आभार।

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  2. Replies
    1. लेख आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा सर। हार्दिक आभार।

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