नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

किताब 'प्रेत लेखन' के लेखक योगेश मित्तल से एक खास बातचीत

प्रेत लेखन के लेखक योगेश मित्तल से एक बातचीत

लेखक योगेश मित्तल की पहली कहानी और कविता 1964 में कलकत्ता के दैनिक अखबार सन्मार्ग में छपी थी। इसके बाद उनके लेखन का एक सिलसिला ही चल निकला। तब से लेकर आजतक लेखक योगेश मित्तल निरंतर साहित्य सेवा करते चले आ रहे हैं। उन्होंने उपन्यास लिखें हैं, बाल कहानियाँ लिखी हैं, कविताएँ लिखी हैं, लेख और रपट भी लिखी हैं। 


अपने इस लेखकीय जीवन में उन्होंने कई ट्रेड नामों से उपन्यास लिखे, कई पत्रिकाओं का सम्पादन किया और कई प्रकाशकों के लिए कार्य किया। लेकिन उस दौर में उन्होंने अपना ज्यादातर कार्य ट्रेड नामों के लिए लिखते हुए किया। ऐसे लेखक के रूप में, जिन्हे भूत लेखक या घोस्ट राइटर कहते हैं। वह दौर ऐसे ही कई प्रेत लेखकों का दौर था जिन्हे अपने कार्य का पारिश्रमिक तो मिल लेकिन कभी नाम नहीं मिला। ऐसे लेखकों की अपनी एक दुनिया थी।

अब योगेश मित्तल इस प्रेत लेखन की दुनिया के कई वर्षों के अनुभव लेकर पाठकों के सामने प्रस्तुत हो रहे हैं। नीलम जासूस कार्यालय से प्रकाशित होने वाली उनकी नई किताब प्रेत लेखन में वह इस दुनिया के कई अनजाने किस्से, संस्मरण और जानकारियाँ पाठकों के समक्ष लेकर आ रहे हैं। 

उनकी इसी नयी किताब प्रेत-लेखन के सिलसिले में  एक बुक जर्नल ने उनसे से बातचीत की है। उम्मीद है यह बातचीत आपको पसंद आएगी। 

योगेश मित्तल के विषय में विस्तृत जानकारी उनके ब्लॉग प्रतिध्वनि पर जाकर प्राप्त की जा सकती है:

प्रतिध्वनि

प्रेत लेखन - योगेश मित्तल



प्रश्न: नमस्कार सर, एक बुक जर्नल में आपका स्वागत है। सर्वप्रथम तो आपको अपनी पुस्तक प्रेत लेखन का नंगा सच के प्रकाशन पर हार्दिक बधाई। कृपया पाठकों को इस पुस्तक के विषय में कुछ बताये?

उत्तर: आपकी बधाई व शुभकामनाओं के लिए तहेदिल से शुक्रगुज़ार हूँ! 

प्रेत लेखन में - मैं हिन्दी फिक्शन पढ़ने वालों को ऐसे बहुत से लेखकों से परिचित कराने जा रहा हूँ, जो फेक नेम से, छद्म नामों से, घोस्ट नामों से या ट्रेड नामों अर्थात् प्रकाशकों द्वारा अपना माल बेचने के लिए रजिस्टर्ड करवाये ट्रेडमार्क नामों से लिखते रहे, उनमें से बहुत से पाठकों में अपनी पहचान नहीं बना पाये! बहुतों ने ट्रेडमार्क नामों से लिखते-लिखते भी अपनी पहचान भी बनाई और ट्रेडमार्क नाम में प्रकाशक की सहमति से अपनी तस्वीर भी ट्रेडमार्क नाम के बैक कवर पर छपवाने में सफलता प्राप्त की! 1970 के दशक में बहुत सारे प्रकाशकों ने लेखक के रूप में ट्रेडमार्क नामों को रजिस्टर करवा कर, उन नामों के लिए किसी एक या कई लेखकों से लिखवा कर उपन्यास प्रकाशित किये! 

हिन्द पाकेट बुक्स से कर्नल रंजीत, शेखर, मीनाक्षी माथुर आदि बहुत से नाम ट्रेडमार्क थे! कर्नल रंजीत में शायर व उपन्यासकार मखमूर जालन्धरी लिखते थे, किन्तु उनकी तस्वीर नहीं छापी गई! शेखर में भी सभी जानते हैं कि रामकुमार भ्रमर लिखते रहे, पर उनकी तस्वीर कभी नहीं छपी! 

स्टार पाकेट बुक्स में राजवंश नाम से जनाब आरिफ मारहर्वीं साहब लिखते रहे, जो कि कभी आरिफ मारहर्वीं नाम से ही कैसर हयात निखट्टू उर्फ मार्शल क्यू सीरीज़ के जासूसी उपन्यास लिखा करते थे! राजवंश के उपन्यासों में अर्से तक आरिफ मारहर्वीं साहब की तस्वीर नहीं छपी, किन्तु जब उन्होंने मिथुन चक्रवर्ती की फिल्मों रफ्तार, सुरक्षा, गनमास्टर जी-9  आदि फिल्मों के लिए कहानियाँ लिखीं तो उनमें स्क्रीन पर आरिफ मारहर्वीं नाम के साथ राजवंश नाम से उपन्यासकार होने को भी दर्शाया गया! स्टार पाकेट बुक्स में, डायमंड पाकेट बुक्स में, मनोज पाकेट बुक्स में अनेक ट्रेडमार्क नामों से बहुत सारे लेखकों से लिखवाया गया! मनोज पाकेट बुक्स में मनोज नाम के लिए पहले दो उपन्यास खामोशी और जलती चिता, मास्टर ब्रेन सीरीज़ के उपन्यास अंजुम अर्शी नाम से लिखने वाले सफदरजंग अस्पताल के वार्ड नम्बर अट्ठाइस के इंचार्ज सैमुएल अंजुम अर्शी साहब ने लिखे थे, जो वहाँ 'मास्टरजी' नाम से पुकारे जाते थे और बाद में सैमुएल अंजुम अर्शी साहब के बहुत सारे सामाजिक उपन्यास 'भारती पाकेट बुक्स' से 'सैमी' नाम से छपे! लेकिन मनोज नाम के लिए तीसरा उपन्यास लिखने वाले 'दिनेश पाठक' एक ही उपन्यास लिखने के बाद गुमनाम हो गये तथा बाद में मनोज नाम के लिए बहुत सारे उपन्यास लिखने वाले जमील अंजुम अपने नाम की कोई मजबूत पहचान नहीं बना पाये, हालाँकि कुछ उपन्यास उनके नाम से भी छपे थे, परन्तु विजय पाकेट बुक्स से रजिस्टर्ड ट्रेडमार्क 'राजहंस' नाम के लिये आरम्भिक कुछ उपन्यासों के बाद लिखने वाले कभी मेडिकल रिप्रेज़ेंटेटिव रहे केवल कृष्ण कालिया ने विजय पाकेट बुक्स के स्वामी विजय कुमार मलहोत्रा के साथ मजबूत सम्बन्ध बनाये और राजहंस नाम में अपनी तस्वीर छपवाने में तो कामयाबी प्राप्त की ही, राजहंस नाम को बहुत ऊँचाई तक भी पहुँचाया! 

पर हम इस प्रेत लेखन श्रृंखला में सफल-असफल सभी की बात करेंगे! सभी की सच्चाई प्रकट करेंगे! सभी की मजबूरियों से परिचित करायेंगे! 

यह 'प्रेत लेखन' पुस्तक आपको ऐसे ऐसे बहुत से लेखकों से परिचित करायेगी और विख्यात लेखकों के सच्चे किस्से और रोचक संस्मरण भी आपको इसी श्रृंखला में पढ़ने को मिलेंगे, जो कि कहानियों और उपन्यासों से भी अधिक मज़ा भी देंगे और मनोरंजन भी करेंगे! 

 

प्रश्न:  अपने लेखकीय जीवन में आपने भी कई नामों से लिखा है। कई लेखक ये कार्य करते थे। कई बार पाठक इसके लिये सीधे प्रकाशकों को ही दोषी करार देते हैं। आप इस ट्रेंड को कैसे देखते थे?

उत्तर: हाँ, आज लोग शायद यकीन न करें, लेकिन सच्चाई है कि मैंने इतने ज्यादा नामों से लिखा है कि यदि रिकॉर्ड रखता और साबित कर पाता तो कहानी, लेख, उपन्यास आदि सब मिलाकर, सबसे ज्यादा नामों से लिखने के लिये गिन्नीज बुक आफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में मेरा नाम आ सकता था, लेकिन बहुत से जिन मित्रों के लिये मैंने उनके नाम से उपन्यास व कहानियाँ लिखीं, उनका जिक्र भी करूँ तो साबित नहीं कर सकता, क्योंकि यादों में कहानियों व उपन्यासों के नाम भी धूमिल पड़ चुके हैं और मैंने जो भी लिखा, लिखित रिकॉर्ड कभी नहीं रखा! 

मैं ट्रेडमार्क नामों और नकली नामों से लेखकों के लेखन के लिए प्रकाशकों को दोषी नहीं मानता! बहुत से लेखक कहते हैं कि प्रकाशक लेखकों का शोषण करते थे, उनका खून चूसते थे, मैं यह तो स्वीकार कर सकता हूँ कि यह अंशतः सही हो, पर पूर्णतः सही नहीं है! अधिकांश प्रकाशक लेखकों के साथ बहुत ही सहयोगी और मित्रवत सम्बन्ध रखते थे! लेखकों और प्रकाशकों में विवाद सिर्फ तभी उत्पन्न हुए हैं, जब लेखकों को बहुत मोटी धनराशि मिलने लगती थी और लेखक को वह भी कम लगती थी या उसे यह पता चलता था कि उसे जो मिल रहा है, वह उससे अधिक का हकदार है! 

मैं समझता हूँ - अब ट्रेडमार्क नामों, घोस्ट नामों, फेक नेम, छद्म नामों का यह ट्रेंड मृतप्राय: है और भविष्य में इसके पनपने की कोई सम्भावना नहीं है, क्योंकि इन्टरनेट और किंडल बुक्स तथा अन्य बहुत से रास्ते नये-पुराने लेखकों के लिए खुल रहे हैं! 


प्रश्न: क्या प्रेत लेखन के चलते हिंदी लोकप्रिय साहित्य को कोई नुकसान हुआ? अगर हाँ, तो वह क्या था?

उत्तर: व्यवहारिक तौर पर मैं यही कहूँगा कि कोई विशेष नुक्सान किसी को नहीं हुआ, क्योंकि प्रेत लेखन में उपन्यास लिखने का अवसर अधिकांशतः उन्हीं लोगों को मिला, जो यदि अपने नाम से लिख रहे थे तो बहुत अधिक आर्थिक लाभ नहीं उठा पा रहे थे! प्रकाशक प्रेत लेखन के लिए लेखकों की मर्जी पर निर्भर नहीं रहे, बल्कि उन्होंने लेखकों से अपनी मर्जी का लेखन करवाया और प्रचार में अन्धा पैसा लगाया, जिसका परिणाम अच्छा निकला! कभी जो पाकेट बुक्स दो तीन पाँच हजार से ज्यादा में नहीं बिकती थीं, लाखों में बिकीं और सौ रुपये से हजार डेढ़ हजार पाने वाले लेखकों को पहले दस, फिर बीस, फिर पचास हज़ार तक मिले, बल्कि कई लेखकों को एक एक उपन्यास के डेढ़ डेढ़ दो दो लाख तक मिले! 

उदाहरण के तौर पर आरिफ मारहर्वीं कैसर हयात निखट्टू के जासूसी उपन्यास लिखते थे, राजवंश ट्रेडमार्क में उनसे सामाजिक उपन्यास लिखवाये गये! नतीजा - बाद में उन्होंने और भी कई ट्रेडमार्क नामों के लिए सामाजिक लिखे, पर अपनी जासूसी उपन्यास लिखने की आदत को उन्होंने सामाजिक में ही भुनाया और सामाजिक उपन्यासों में भी सस्पेंस और जासूसी का मिश्रण डाला, जिससे पाठकों को एक टिकट में दो का मज़ा और भरपूर मनोरंजन मिला तथा और अधिक बढ़िया कहानियाँ उपन्यास लिखे गये और राजवंश के सुपरहिट होने का परिणाम यह हुआ कि अन्य बहुत से लेखकों ने भी अपने लिखने का पैटर्न बदला और क्राइम व इमोशन की मिलावट से बेहतरीन उपन्यास लिखे! 

फिर भी यह नहीं कहूँगा कि प्रेत लेखन के चलते लोकप्रिय साहित्य को कोई नुक्सान नहीं हुआ! 

हुआ और वह यह था कि बहुत से ऐसे लेखक गुमनाम रह गये, जो नाम कमा सकते थे, किन्तु एक बात यह भी है कि यदि वह नाम कमाने का प्रयास करते तो उन्हें वह आर्थिक लाभ नहीं मिलता, जो प्रेत लेखन के लिए लिख कर हासिल हुआ! अपना नाम छपवाने के लिए उन्हें थोड़ा ही नहीं बहुत ज्यादा त्याग करना पड़ता, क्योंकि जिस ट्रेडमार्क नाम में उनकी किताब हजारों में बिकने की वजह से अच्छा खासा पारिश्रमिक मिल जाता था, नाम से छपने पर वही किताब आरम्भ में दो तीन हजार से ज्यादा नहीं बिकती और लेखक को हजारों नहीं हजार मिलना भी आसान नहीं होता, क्योंकि तब पाकेट बुक्स की कीमत दो-तीन-पाँच से ज्यादा नहीं हुआ करती थी! उपन्यासों की कीमत दस तो तब हुई थी, जब ढेरों ट्रेडमार्क नाम बुक मार्केट में आ गये थे! 


प्रश्न:  ऐसे कौन से लेखक हैं जो भूत लेखन करते थे लेकिन आपकी नज़रों में उन्हे अपने नाम से छापा जाना चाहिए था? आजकल वह लेखक कहाँ हैं?

उत्तर: ऐसे बहुत से लेखक रहे हैं, लेकिन अब उनका जिक्र अर्थहीन है, क्योंकि उनमें से अधिकांश अब अपने नामों से छप रहे हैं और जो नहीं छप रहे या खत्म हो चुके हैं, उनके बारे में सिर्फ कुछ पंक्तियों में कुछ नहीं कहा जा सकता! उनके बारे में यदि सम्भव हुआ तो कभी आगे लिखेंगे! एक एक नाम का अलग अलग जिक्र करके! हाँ, तब भी यह बताना आसान नहीं होगा कि वे कहाँ हैं, किस हाल में हैं? 


प्रश्न:  आज तकनीक के चलते लेखक की अपने पाठकों तक पहुँच बनानी आसान हो चुकी है। लेखन को पाठक के समक्ष रखने के भी कई प्लेटफॉर्म आ चुके हैं। ऐसे में आप इस वक्त को कैसे देखते हैं? क्या असल में ऐसा है?

उत्तर: लेखकों की दृष्टि से यह वक़्त फायदेमंद है, पर पाठकों के लिए यह कोई सुनहरा वक़्त नहीं है! अक्सर पाठकों को ऐसा कथानक भी पढ़ने को मिल सकता है, जो उन्हें समय का दुरूपयोग प्रतीत हो, बेशक चार- छ: या दस पेज पढ़कर वह कथानक पढ़ना बन्द कर दें, लेकिन ऐसे सौ कथानक पाठक की आँखों के सामने घूम गये तो उसने हज़ार पेज पढ़ने का 

वक़्त बरबाद कर दिया! जबकि प्रकाशकों द्वारा हमेशा कोई भी कृति अच्छी तरह ठोंक बजा कर छांट कर छापी जाती थी और उसमें अशुद्धियाँ न रहें, इसका पूरा ख्याल रखा जाता था! अभी इन्टरनेट पर मिलने वाले नये लेखकों के बारे में शत प्रतिशत विश्वास के साथ यह नहीं कहा जा सकता कि वह अच्छा ही नहीं लिख रहे हैं, अनूठा भी लिख रहे हैं! 


प्रश्न:  आपके आगामी प्रोजेक्ट्स क्या हैं? क्या पाठकों को आप इनके विषय में कुछ बताएंगे?

उत्तर: हाँ, एक जबरदस्त कथानक कलम की नोंक पर है -

'कब तक जियें'

यह एक उपन्यास है, लेकिन जासूसी है या सामाजिक या कुछ और इस विषय में अभी कुछ नहीं कहूँगा! 

जवानी में असफल इश्क़ फरमा चुके एक प्रेमी जोड़े के बुढ़ापे के पवित्र इश्क़ की अनूठी दास्तान की एक लम्बी कहानी है, जिसे फिलहाल तो नाम दिया है -

'इश्क़ मदारी'

और शीघ्र ही वेद प्रकाश शर्मा से जुड़े खट्टे मीठे संस्मरण भी नीलम जासूस कार्यालय से प्रकाशित होने की डगर पर हैं! 

एक अन्य उपन्यास का दिमाग में खाका तैयार है - नाम है -

"मेरी पत्नी : मेरी दुश्मन"

बस डर यह है कि यह नाम मेरी पत्नी को भी मेरा दुश्मन न बना दे!  हा हा हा 


**************

तो यह थी लेखक योगेश मित्तल जी से हुई हमारी बातचीत। उम्मीद है आपको यह साक्षात्कार पसंद आया होगा। उनकी नवीन पुस्तक प्रेत-लेखन जल्द ही नीलम जासूस कार्यालय से प्रकाशित होगी। यह पुस्तक 30 सितंबर प्रकाशक द्वारा पाठकों तक भिजवानी शुरू कर दी जायेगी। पुस्तक का प्री ऑर्डर शुरू हो गया है और आप  9311377466 पर संपर्क कर इस पुस्तक को मँगवा सकते हैं। 

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6 Comments
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  1. साक्षात्कार हेतु आप साधुवाद के पात्र हैं विकास जी।योगेश जी की यह पुस्तक नीलम जासूस से कब तक प्रकाशित हो कर उपलब्ध हो जाएगी ? क्या अगले माह प्राप्त हो जाने की संभावना है ?

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    1. जी प्री ऑर्डर चालू है। आप ऑर्डर कर सकते हैं। 30 सितंबर तक यह प्रकाशित कर सकते हैं। आप इसे ऑर्डर कर सकते हैं।

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  2. रोचक साक्षात्कार । किताब का इंतजार है।।

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    1. साक्षात्कार आपको पसन्द आया यह जानकर अच्छा लगा।

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  3. बहुत ही रोचक साक्षात्कार !
    ट्रेडमार्क नामों एवं नकली नामों से लेखन के विषय में पहली बार जाना..।
    धन्यवाद आपका।

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    1. साक्षात्कार आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा। हार्दिक आभार।

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