नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

बाँकेलाल और भूतों की टोली

 संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक | प्रकाशक: राज कॉमिक्स | पृष्ठ संख्या: 32 |  चित्रांकन: बेदी | लेखक: तरुण कुमार वाही | सम्पादक: मनीष गुप्ता | श्रृंखला: बाँकेलाल

समीक्षा: बाँकेलाल और भूतों की टोली

कहानी:
कंकड़बाबा के शाप की अवधि समाप्त कर बाँकेलाल और विक्रमसिंह विशालगढ़ की तरफ बढ़े जा रहे थे। अपनी इस यात्रा में वह कई मुसीबतों से गुजर चुके थे। 

इस बार बाँकेलाल और विक्रम सिंह पहुँच चुके थे प्रसन्ननगर जहाँ का राजा था राजा अप्रसन्न सिंह जो कि परेशान चल रहा था।

वहीं दूसरी ओर यहाँ उनका इन्तजार कर रही थी एक भूतों की टोली जिन्होंने प्रसन्न नगर के खिलाफ एक साजिश रची हुई थी। 

राजा अप्रसन्न सिंह परेशान क्यों चल रहा था?

आखिर भूतों की टोली प्रसन्ननगर में क्या कर रही थी? भूतों की टोली की योजना क्या थी? 

बाँकेलाल और विक्रम सिंह इन मामलों में कहाँ फिट बैठते थे और वो लोग इन मुसीबतों से खुद को कैसे निकाल पाए?


मेरे विचार:

बाँकेलाल और भूतों की टोली बाँकेलाल डाइजेस्ट 11 का आखिरी यानी छठवाँ कॉमिक बुक है। राज कॉमिक्स द्वारा प्रकाशित इस डाइजेस्ट में बाँकेलाल के छः कॉमिक बुक (बाँकेलाल और चींटाघाटी, बाँकेलाल और बकासुर, सुनहरी मृग, जिस देश में बाँके रहता है, बाँकेलाल का जाल ) प्रकाशित किये गये थे। इन सभी कॉमिक बुक में बाँकेलाल और विक्रम सिंह कंकड़बाबा के शाप की अवधि समाप्त कर विशालगढ़ की तरफ बढ़ रहे हैं। हर यात्रा उनके लिए नई मुसीबत लाती है जो कि कॉमिक बुक्स का कथानक बनता है। 

प्रस्तुत कॉमिक बुक बाँकेलाल और भूतों की टोली में भी बाँकेलाल और राजा विक्रमसिंह विशालगढ़ की तरफ बढ़ रहे होते हैं कि उनके ऊपर एक के बाद एक मुसीबत टूटने लगती हैं। 

कॉमिक बुक की शुरुआत में ही बाँकेलाल क्रोधाचार्य नाम के ऋषि से टकराता है और कुछ ऐसा कर देता है कि बाँकेलाल को एक शाप भुगतना पड़ता है। यही कारण होता है कि बाँकेलाल क्रोधाचार्य से बदला लेने का मन बना लेता है। वहीं जब वह प्रसन्ननगर पहुँचते हैं तो उधर उनका टकराव एक तरफ राक्षस घंटाकर्ण से होता है वहीं दूसरी तरफ अपनी हरकतों के चलते वह राजा अप्रसन्नसिंह  के कोप का भाजन भी बनते हैं।  इन्हीं से बदला लेने की एक तरकीब बाँकेलाल बनाता है और फिर बुरा करने के चक्कर में भला भी कर देता है। 

कहा जाता है कि अकाल मृत्यु जिसकी भी होती है वह भूत बन जाता है। इसी बात को लेकर लेखक तरुण कुमार वाही ने इस कॉमिक बुक में भूतों की टोली का निर्माण किया है। प्रसन्न नगर में ऐसा कुछ हो रहा है जिससे लोग अकाल मृत्यु पा रहे हैं और इस कारण वह भूल बनते चले जा रहे हैं। इन भूतो का एक सरदार है जो कि अपनी एक योजना बना रहा है और उस योजना कस किर्यान्वन वह कैसे करता है और आगे क्या होता है यह भी कथानक का महत्वपूर्ण हिस्सा है। 

ऊपर दिए गई बातों के अलावा एक और षड्यंत्र यहाँ हो रहा होता है जिसे बाँकेलाल गलती से उजागर कर देता है और आखिर में वाहवही पाता है। 

वैसे तो यह कॉमिकबुक 32 पृष्ठ की ही है लेकिन इन 32 पृष्ठों में काफी कुछ होता पाठकों को दिखाई देता है जो कि कॉमिक बुक में रोमांच बनाये रखता है। कहानी में हास्य भी उचित मात्रा में है जो यदा कदा आपके चेहरे पर मुस्कान लेकर आता रहता है। 

कॉमिक बुक की आर्ट की बात करूँ तो यह बेदी जी का है जो कि अच्छा है और कथानक के साथ न्याय करता है। 

अंत में यही कहूँगा कि यह एक अच्छा कॉमिक बुक है जिसे नहीं पढ़ा तो आप पढ़ सकते हैं। मुझे तो कॉमिक बुक पसंद आया है। इसमें तेजी से घटित होता घटनाक्रम जहाँ एक तरफ कथानक में पाठक की रूचि बनाकर रखते हैं वहीं हास्य का पुट लिए डायलॉग्स पाठकों के चेहरे पर मुस्कान लाते रहते हैं।

अगर आपने इसे पढ़ा है तो आपको यह कैसे लगा? अपने विचारों से मुझे जरूर अवगत करवाइयेगा।

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2 Comments
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  1. समीक्षा पढ़ सत्यजीत रे जी की फिल्म गुपी गाइन बाघा बाइन की याद ताजा हो गई

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    1. यह फिल्म तो नहीं देखी है लेकिन अभी विकीपीडिया में इसके विषय में पढ़ा। कहानी में केवल भूतों की समानता ही है लेकिन फिल्म के भूत इस कहानी के भूत से बिलकुल जुदा है। हाँ, दोनों ही हास्यकथाएँ हैं। सत्यजित रे वाली फिल्म देखने की कोशिश करूँगा।

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