अपनी आदत के अनुसार, मनीषा जब उससे आगे निकल गई तब जाकर ख्याल आया कि मंजिल तो पीछे ही रह गई। कहीं जाने के लिए निकलने पर उसके साथ यही होता है। जब तक राह परिचित लगती है, यह बिना उसकी ओर देखे अंतः प्रज्ञा द्वारा आगे बढ़ती जाती है। फिर, जब आसपास की अपरिचितता बरबस उसक ध्यान अपनी ओर खींच लेती है वह चौंककर रुक जाती है और कदम लौटा देती है। सड़कों के साथ यह करना जितना आसान है, ज़िन्दगी के साथ उतना ही कठिन। आदमी जब तक लौटे-लौटे मंजिल बदल जाती है।
- मृदुला गर्ग, उसके हिस्से की धूप
किताब लिंक: पेपरबैक | हार्डबैक
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (28-02-2021) को "महक रहा खिलता उपवन" (चर्चा अंक-3991) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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जी चर्चा अंक में मेरी प्रविष्टि को शामिल करने के लिए हार्दिक आभार....
Deleteविचारणीय
ReplyDeleteजी आभार....
Deleteसही कहा अनुज।
ReplyDeleteसादर
जी आभार.....
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