नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

कागज की नाव - सुरेन्द्र मोहन पाठक

जुलाई 23 जुलाई से जुलाई 25, 2020 के बीच पढ़ी गयी

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक 
पृष्ठ संख्या: 256 
प्रकाशक: वेस्टलैंड 
आईएसबीएन: 9789387578050

कागज की नाव - सुरेन्द्र मोहन पाठक
कागज की नाव - सुरेन्द्र मोहन पाठक


पहला वाक्य:
लालचन्द हजारे ने चोरी की एम्बैसडर कार को पंजाब बैंक की इमारत के ऐन सामने लाकर रोका।

कहानी: 
लल्लू उर्फ़ लालचंद हजारे एक इक्कीस वर्षीय युवक था जो कि धारावी की एक चाल में रहता था। लल्लू की दिली ख्वाहिश एक दिन रसूखदार व्यक्ति बनने की थी। उसका सपना खूब सारे पैसे क्माने का था। उसे लल्लू से लालचन्द बनना था।

ऐसे में जब उसे इलाके के रसूखदार मवालियों की शरण मिली तो उसे अपना सपना पूरा होता महसूस होने लगा। 

उसे वह सब कुछ मिलने की उम्मीद होने लगी जिसका कि उसने सपना देखा था। 

क्या लल्लू लालचंद बन पाया? 
क्या वह अपने सपनों को पूरा कर पाया?

इंस्पेक्टर अष्टेकर धारावी थाने का इंस्पेक्टर था। धारावी थाने के हर मवाली के विषय में वो जानता था। कुछ ही समय पहले हुई विलियम नाम के एक शख्स की हत्या के मामले ने उसे उलझा रखा था। वह इस मामले को सुलझाना चाहता था लेकिन सुलझा नहीं पा रहा था। 

आखिर किसने विलियम का खून किया था और क्यों अष्टेकर इस मामले को इतना महत्व दे रहा था? 
क्या वह कातिल का पता लगा पाया?

एन्थोनी फ्रान्कोजा धारावी का एक बड़ा दादा था जिसकी पूरी धारावी में धाक थी। विलियम उसका दोस्त हुआ करता था। विलियम की बेवा मोनिका अब उसकी प्रेमिका थी और उसने मोनिका को विलियम के कातिल को सजा देना का वादा किया था। वहीं एन्थोनी ने लल्लू को लल्लू से लालचंद हजारे बनाने का फैसला भी किया था।

क्या एन्थोनी अपने इरादों में कामयाब हो पाया?
मुख्य किरदार:
लल्लू उर्फ़ लालचंद हजारे - धारावी का एक 21 वर्षीय लड़का 
एंथोनी फ्रांकोजा - धारावी का एक दादा 
अब्बास अली - एंथोनी का साथी 
विलियम फ्रांसिस - एंथोनी का दोस्त
जोगलेकर - एक व्यक्ति जो कि प्लेटफार्म में लल्लू को मिला था
जमना - जोगलेकर की बीवी
मोनिका - एंथोनी के दोस्त विलियम की पत्नी 
मिकी - विलियम का बेटा 
मार्था -विलियम की माँ 
जैक - विलियम का पिता 
यशवंत अष्टेकर - धारावी थाने का इंस्पेक्टर
रामचन्द्र नागप्पा - धारावी का एक डोप पेडलर 
वीरू तारदेव - एक बूढ़ा तालातोड़ जो कि अब धारावी में रहता था
शांता, शोभा - दो सेक्सवर्कर्स जो कि पास्कल के बार में रहती थी 
खुर्शीद - एक और सेक्स वर्कर जो कि पास्कल के बार से अपना काम करती थी 
पांडी - एक जेबकतरे 
रविराम नट्टू - एक दादा जो कि जेल में रह रहा था 

मेरे विचार:
'कागज की नाव' सुरेन्द्र मोहन पाठक का लिखा थ्रिलर उपन्यास है जिसका प्रथम प्रकाशन सन 1987 में हुआ था। मेरे पास जो संस्करण मौजूद है वह इसका चौथा संस्करण है जो कि 2018 वेस्टलैंड द्वारा प्रकाशित किया गया था। 

उपन्यास की बात करें तो तो यह एक क्राइम थ्रिलर है जिसका घटनाक्रम मुंबई के धारावी के इलाके में घटित होता है। उपन्यास धारावी में रहने वाले विभिन्न किरदारों की कहानी है।  इनमें घुटे हुए बदमाश हैं, अपराध में कदम रखने को तत्पर किरदार है, कुछ स्त्रियाँ हैं जो कि अपना शरीर बेचकर अपना जीवन यापन करती है, पुलिस वाले हैं और इनके बीच के आपस के समीकरण है जो कि कहानी के दौरान बनते बिगड़ते रहते हैं। कभी ये एक दूसरे का साथ देते हैं और कभी एक दूसरे को धोखा देते हैं। 

उपन्यास की शुरुआत एक बैंक डकैती से होती है जिसके माध्यम से उपन्यास के मुख्य किरदार लल्लू, एंथोनी और अब्बास अली का परिचय पाठक से होता है। जहाँ एंथोनी और अब्बास घुटे हुए बदमाश हैं वहीं लल्लू एक ऐसा युवक है जो कि उनकी धाक से प्रभावित होकर उनके जैसा बनना चाहता तो है लेकिन अपने अंदर की दया और अच्छाई को मारने में नाकामयाब पाता है।

उपन्यास की कहानी के कई पहलू हैं। कहानी का एक पहलू लल्लू के लालचन्द हजारे बनने की कोशिश है जहाँ वह वो सब कुछ करता है जो उसका उस्ताद एंथोनी उससे करने को कहता है। इसमें उनके अपराध की दुनिया में किये गये उनके कृत्य हैं जो कहानी में रोमांच बरकरार रखते हैं। 

कहानी का एक अन्य पहलू एक रहस्यमय कत्ल भी है। एन्थोनी और उसकी गैंग के  बैंक लूटने से लगभग तीन महीने पहले धारावी में रहने वाले एक गैंगस्टर विलियम की हत्या हुई थी और यह एक रहस्य बनकर रह गया था। इस रहस्य को सुलझाने के लिए धारावी का पुलिस इंस्पेक्टर यशवंत अष्टेकर और एंथोनी दोनों ही कोशिश करते दिखते हैं। दोनों के ही इस गुत्थी को सुलझाने के लिए अपने अपने कारण है और इन कारणों के कारण पाठक की रूचि उपन्यास में रहती है। 

उपन्यास भले ही जरायम से जुड़े लोगों के विषय में है लेकिन इन किरदारों की प्रेम कहानियों को भी इसमें महत्व दिया है। लल्लू और खुर्शीद की प्रेम कहानी बहुत ही खूबसूरती से दिखाई गयी है। वहीं यशवंत अष्टेकर की अधूरी प्रेम कहानी आपका दिल छू लेती है। प्रेमिका  के प्रति ऐसा समर्पण कम ही दखने को मिलता है। अष्टेकर का एकाकीपन भी आपको दुखी कर देता है। एंथोनी एक क्रूर किरदार है लेकिन वह मोनिका से प्रेम करता है। अपनी विकृत सोच के चलते भी कई कई क्षणों में यह प्रेम दर्शाई देता है जो थोड़े पल के लिए ही सही उसके प्रति थोड़ी सहानुभूति जगा देते हैं। हाँ, यह सहानुभूति उसकी हरकतों के चलते ज्यादा देर तक बरकरार नहीं रह पाती हैं।

उपन्यास का केवल एक ही मुख्य  किरदार ऐसा था जो पूरी तरह से खलनायक है और जिसके अंदर कोई बी बात ऐसी नहीं है जो उसके प्रति आपकी सहानुभूति दर्शा सके। यह किरदार अब्बास अली है। 

उपन्यास के मुख्य किरदार भले ही ज्यादातर अपराधी है लेकिन उपन्यास यह दर्शाता है कि किस तरह अपराध की जिंदगी का अंत बुरा ही होता है। और कई बार इसके चपेट में कुछ वो मासूम भी आ जाते हैं जो कि बदकिस्मती से उन जरायमपेशा लोगों के सम्पर्क में आ जाते हैं। उपन्यास में यशवंत अष्टेकर द्वारा कही गयी निम्न लाइन ही उपन्यास का सार बता देती है: 

अपराध कागज की नाव की तरह होता है जो बहुत देर तक, बहुत दूर तक नहीं चल सकती।

उपन्यास के किरदारों, फिर वो मुख्य हों या साइड, सभी पर काम किया गया है और वह ऐसे बन पड़े हैं कि आपके जहन में अपनी छाप छोड़ देते हैं। उपन्यास खत्म होने के काफी देर बाद तक आपको लल्लू, खुर्शीद, अष्टेकर, अब्बास अली, एंथोनी, वीरू तारदेव, शांता शोभा इत्यादि याद रहेंगे।  उपन्यास में लल्लू द्वारा कही गयी  आखिरी पंक्ति भी दिल छू जाती है। वह यह दर्शाने के लिए काफी है कि कई बार हम आस पास के माहौल के चलते खुद को बदलने की कोशिश करते हैं। यह बदलाव अच्छाई के लिए हो तो बेहतर रहता है लेकिन बुराई के लिए हो तो बाद में सिर्फ पछताने के लिए कुछ हाथ नहीं लगता। हम काफी कुछ खो देते हैं।
 
उपन्यास की कमी की बात करूँ तो उपन्यास में रहस्य का जो तत्व हैं वो मुझे थोड़े कमजोर लगा। जिस रहस्य को उपन्यास के मुख्य बिन्दुओं में से एक होना था उसका अंदाजा काफी पहले लग जाता है। पढ़ते हुए मुझे लग रहा था कि जरूर इसमें कोई ट्विस्ट होगा और जिसे मैं कातिल समझ रहा हूँ वो कातिल नहीं होगा लेकिन ऐसा नहीं निकला। मुझे लगता है इस बिंदु पर और काम किया जाना चाहिए था।  

अंत में यही कहूँगा कि उपन्यास एक रोचक अपराध गल्प है जो कि आपका भरपूर मनोरंजन करता है। इसके किरदार आपके मन को छू लेते हैं और उनके सुख दुःख आपके सुख दुःख बन जाते हैं। ऊपर दी गयी कमी इसमें जरूर है लेकिन इसके चलते थ्रिल की कमी नहीं आती है। उपन्यास अगर आपने नहीं पढ़ा है तो एक बार इसे जरूर पढ़िए।

किताब की कुछ पंक्तियाँ जो मुझे पसंद आई:

उसने अपने साफ-सुथरे क्वार्टर में एक सरसरी निगाह दौड़ायी।
साफ-सुथरा क्वार्टर!
लेकिन क्या यह साफ-सुथरापन उसे पसन्द था?
क्या यह बेहतर न होता कि यहाँ बच्चों की चिल्ल-पों मची होती, चार चीजें टूटकर बिखरी होतीं, चार टूटने वाली होतीं, सोफे को चिंगम चिपटी होती और कार्पेट पर दाल बिखरी होती। बच्चों की माँ चिल्ला-चिल्लाकर उन्हें चुप करा रही होती और खिलौने, कॉपियाँ उठाकर अलमारी में रखने को कह रही होती!
लेकिन वहाँ तो मरघट जैसी खामोशी थी।


अपराध कागज की नाव की तरह होता है जो बहुत देर तक, बहुत दूर तक नहीं चल सकती।

वह एक नर्क से निजाद पा रही थी लेकिन फिर भी उसका मन मसोस रहा था। एक जानी-पहचानी ज़िन्दगी छोड़कर वह एक अंजान, अजनबी ज़िन्दगी में कदम रखने जा रही थी। वह अपनी माँ का घर छोड़ रही थी लेकिन कोई शहनाई नहीं बज रही थी, कोई उसे विदा नहीं कर रहा था, किसी के आँखो में उसके लिए आँसू की बूँद नहीं थी।



रेटिंग: 4/5

जुर्म का इकबाल 

पहला वाक्य:
थाने के फ्रंट डैस्क पर टेलीफोन की घंटी बजी। 

कहानी:
रात के वक्त जब किसी ने पुलिस स्टेशन में एक कत्ल की जानकारी देता कॉल किया तो एडिशनल एस एच ओ  इंस्पेक्टर अतुल ग्रोवर मामले की तहकीकात के लिए पहुँच गया। और वह जाता भी क्यों नहीं? 

जिस कोठी से गोली चलने की आवाज उसमें उसकी भूतपूर्व प्रेमिका शिल्पा जो रहती थी। कोठी पर पहुँचने पर जो उसने पाया वो सुनकर उसको एक झटका सा लगा। 

अतुल ने शिल्पा के पति मनमोहन को एक लाश को ठिकाने लगाते रंगे हाथों पकड़ लिया। 

अब शिल्पा का कहना था कि मकतूल का कत्ल शिल्पा ने किया था। पर अतुल यह मानने को राजी नहीं था। 
उसे लग रहा था कि शिल्पा के इस इकबालिया ब्यान में कुछ तो गड़बड़ थी। ऐसा कुछ था जो छुपाया जा रहा था।

क्या अतुल का यह संशय सही था या यह उसके भूतपूर्व प्रेमी होने के चलते उसका पूर्वाग्रह था?
कत्ल किसका हुआ था? 
यह कत्ल क्यों किया गया था?

मुख्य किरदार:
अतुल ग्रोवर - पुलिस में इंस्पेक्टर
शिल्पा सूद - अतुल की पूर्व प्रेमिका 
मनमोहन सूद - शिल्पा का पति 
बलवान सिंह - एस एच ओ अतुल का बड़ा अफसर 
बालकिशन - अतुल का दोस्त और सब-इंस्पेक्टर

'जुर्म का इकबाल' एक पुलिस प्रोसीज़रल कहानी है। एक गोली चलने की आवाज की सूचना से शुरू हुई कहानी आगे चलकर एक कत्ल की तफ्तीश में बदल जाती है। तफ्तीश करने वाला इंस्पेक्टर कत्ल का इकबालिया जुर्म करने वाली शिल्पा का भूतपूर्व प्रेमी रह चुका है और इस कारण उसके प्रति उसका रवैया उतना सख्त नहीं है। ऐसे में वो मामले की पूछताछ करते हुए कैसे इस मामले की तह तक जाता है यह देखना रोचक रहता है। इस दौरान उसके अपनी प्रेमिका के प्रति क्या भाव रहते हैं यह भी पाठक को पता चलता जाता है जो कि कहानी में रोचकता बनाये रखने में योगदान देते हैं।

कहानी रोचक है और अंत तक आपको बांधे रखती है। कहानी मुझे पसंद आई। एक अच्छे उपन्यास के साथ दी गयी यह कहानी किताब को पढ़ने का मजा बढ़ा देती है।  

रेटिंग: 3.5/5

क्या आपने इस पुस्तक को पढ़ा है? आपकी इस विषय में क्या राय है? 

किताब आप पढ़ना चाहें तो इसे निम्न लिंक पर जाकर मँगवा सकते हैं:

पाठक साहब की अन्य किताबों के विषय में मेरी राय आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:

हिन्दी पल्प साहित्य के अन्य उपन्यासों के प्रति मेरी राय आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:

© विकास नैनवाल 'अंजान'
FTC Disclosure: इस पोस्ट में एफिलिएट लिंक्स मौजूद हैं। अगर आप इन लिंक्स के माध्यम से खरीददारी करते हैं तो एक बुक जर्नल को उसके एवज में छोटा सा कमीशन मिलता है। आपको इसके लिए कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं देना पड़ेगा। ये पैसा साइट के रखरखाव में काम आता है। This post may contain affiliate links. If you buy from these links Ek Book Journal receives a small percentage of your purchase as a commission. You are not charged extra for your purchase. This money is used in maintainence of the website.

Post a Comment

4 Comments
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.
  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (29-07-2020) को     "कोरोना वार्तालाप"   (चर्चा अंक-3777)     पर भी होगी। 
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  
    --

    ReplyDelete
    Replies
    1. चर्चा में मेरी पोस्ट को जगह देने के लिए हार्दिक आभार, सर...

      Delete
  2. अच्छी समीक्षा की है विकास जी आपने । 'कागज़ की नाव' पाठक साहब की अमर कृति है जिसकी रचना शायद उनसे अनजाने में हो गई है वरना वे तो अपनी तरफ़ से एक रूटीन थ्रिलर ही लिख रहे होंगे । मुझे तो 'कागज़ की नाव' उपन्यास इतना पसंद है कि मैंने इसकी विस्तृत समीक्षा हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों में लिखी है ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. सर आपकी दोनों समीक्षाएं पढ़ी हैं। मुझे व्यक्तिगत तौर पर लगता है कि पाठक साहब किरदारों के भावनात्मक पह्लुओ को पाठकों के समक्ष उजागर करने में महारथ रखते हैं। उनकी ऐसी कई कृतियाँ है जहाँ आप इसे देख सकते हैं। कागज की नाव उसके किरदारों के इन्हीं पहलुओं के लिए कई बार पढ़े जाने लायक है।

      Delete

Top Post Ad

Below Post Ad

चाल पे चाल