नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

किस्मत का सुल्तान - अमित खान

उपन्यास बीस मई 2020 से बाईस मई 2020 के बीच पढ़ा गया

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक
पृष्ठ संख्या: 255
प्रकाशक: धीरज पॉकेट बुक्स
श्रृंखला: कमाण्डर करण सक्सेना

किस्मत का सुल्तान - अमित खान
किस्मत का सुल्तान - अमित खान

पहला वाक्य:
"और कमाण्डर..!"

कहानी:
मोनारा चीन और भारत के पड़ोस में स्थित एक छोटा सा देश था। जब चीन ने मोनारा पर कब्जा जमा कर अपनी कठपुतली सरकार उधर बैठाई तो मोनारा के एक क्रांतिकारी समूह ने भारत से मदद के लिए अनौपचारिक अनुरोध किया। मोनारा पर चीन का यह कब्जा भारत के हितों के लिए भी नुकसानदायक था और इसीलिए भारत ने क्रांतकारी समूह की मदद करने के का फैसला ले लिया।

इस कार्य का जिम्मा रॉ को दिया गया और रॉ ने अपने सबसे होनहार एजेंट कमाण्डर करण सक्सेना को इस मिशन पर भेजने का निर्णय लिया।

क्या कमाण्डर करण सक्सेना अपने इस मिशन में कामयाब हो पाया? 
करण को मोनारा में जाकर क्या करना था?
अपनी मिशन की कामयाबी के लिए करण सक्सेना को किन किन मुसीबतों से दो चार होना पड़ा?

इन सबके जवाब तो आपको इस उपन्यास को पढ़कर ही प्राप्त होंगे।

मुख्य किरदार:
गंगाधर महंत - रॉ का चीफ
कमाण्डर करण सक्सेना - रॉ का सबसे होनहार एजेंट
डॉक्टर माइकल चांग - मोनारा के क्रांतिकारी दल के नेता
रोजी चांग - माइकल चांग की बेटी
फाउचिन - मोनारा के जासूसी विभाग का इंस्पेक्टर
फू चांग - चीन का एक खूफिया  जासूस
पोंग लू - फाउचिन का मातहत
जॉनसन चांग - माइकल चांग का बेटा और  रोजी का भाई
डोंग सू - एक पशु चिकित्सक और क्रांतकारी दल में माइकल के बाद सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति
मिन सू - डोंग सू की बहन
ली पोंग - डोंग सू का साथी
नाम पेह - रेडियो स्टेशन का एक ड्राईवर
नाई पिंग  - डोंग सू के यहाँ काम करने वाला एक आदमी
क्वालिन - ताई की जवान बीवी
लार्ड बिन - डोंग सू का एक आदमी
तुंग ली - रेडियो स्टेशन में काम करने वाला इंजिनियर
वान ली - क्रांतिकारी दल का सदस्य
निट चांग - क्रांतिकारी दल का सदस्य
रोबर्ट चांग - निट का दोस्त

मेरे विचार:
किस्मत का सुल्तान अमित खान जी के कमाण्डर करण सक्सेना श्रृंखला का उपन्यास है। अगर आप कमाण्डर करण के किरदार से वाकिफ नहीं है तो इतना जान लेना काफी है कि कमाण्डर भारतीय खूफिया एजेंसी रॉ का सबसे होनहार एजेंट है। अपने काम के सिलसिले में उसे कई खतरनाक मिशनों को अंजाम देना होता है और यही मिशन उसके उपन्यासों के कथानक बनते हैं।

किस्मत का सुल्तान भी उसके एक ऐसे ही मिशन की कहानी है। अपने मिशन के चलते कमाण्डर करण को एक दूसरे देश मोनारा में जाकर एक काम को अंजाम देना होता है। यह काम बेहद खतरनाक है और इसे करते हुए उसके समक्ष क्या क्या मुसीबतें आती हैं और वह इनसे कैसे जूझता हुआ आगे बढ़ता है यह आपकी उपन्यास में रूचि जगाए रखता है।

उपन्यास का शीर्षक किस्मत का सुल्तान है और यह शीर्षक कथानक पर फिट बैठता है। उपन्यास के ज्यादातर हिस्से में कमाण्डर अपनी अच्छी किस्मत के चलते ही बचता है। यह बात लेखक भी जानता है और इस बात को उन्होंने कई जगह दोहराया भी है।

अब तक कमांडर ने जितने भी पासे फेंके थे, वो सब उतरे पड़े थे। वो 'किस्मत का सुल्तान' था इसलिए खुद उसकी जान अब तक बची हुई थी। लेकिन अब लगता था कि उसे खुद अपनी जान के लाले पड़ने वाले थे। 
(पृष्ठ 130)

उपन्यास का घटनाक्रम तेजी से घटित होता है तो आप पृष्ठ पलटते जाते हो। यह कथानक की खूबी है और पाठक की रूचि उपन्यास में बनाये रखती है। उपन्यास में करण की हालत आसमान से गिरा और खजूर में अटका वाली होती है। वह एक मुसीबत से निकलता है तो दूसरी में फंसता है। यह चीज उपन्यास में रोमांच भी बनाकर रखती है।

उपन्यास की काफी चीजें ऐसे भी हैं जो मुझे पसंद नहीं आई थी। इन चीजों में कुछ प्लाट होल्स है, कुछ कहानी का ट्रीटमेंट है और ऐसी गलतियाँ हैं जिन्हें की सुधारा जा सकता था लेकिन लापरवाही के तहत जिन पर काम नहीं हुआ और फिर इन्होने एक पाठक के रूप मेरे अनुभव को प्रभावित किया। यह बातें निम्न हैं:

इस उपन्यास में कमाण्डर ज्यादातर अपनी किस्मत के भरोसे ही दिखा है। उसकी किस्मत अच्छी भी रही है कि जब जब वो कहीं फंसता है तो कुछ न कुछ ऐसा हो जाता है कि उसकी जान साँसत से निकल जाती है। ऐसे में उपन्यास का कथानक अपने शीर्षक के साथ तो न्याय करता है लेकिन आपको यह भी महसूस होता है कि यह कमाण्डर वो नहीं है जिसके आप फैन हो। वह कमाण्डर नहीं है जो अपने बलबूते पर बड़ी से बड़ी मुश्किलों को पार कर देता है। गल्प में संयोग होना मुझे कभी भी पसंद नहीं रहा है। मुझे लगता है  संयोगों का सहारा लेने से  कथानक कमजोर होता है लेकिन यहाँ संयोगों की भरमार है। इससे एक तरह की अन्स्तुष्टि रहती है।

कई बार ऐसा लगता भी है जैसे उपन्यास में चीजों को आसान कर दिया गया है। जैसे उपन्यास में क्रांतिकारी दल के एक बड़े सदस्य के खेत ही उसी जगह के नजदीक होते हैं जहाँ उन्हें अपने मिशन को अंजाम देना था। ऐसे में मिशन को अंजाम देना और वहाँ से निकलना आसान ही रहता है। यह एक ऐसा संयोग है जिसकी चाह हर सीक्रेट एजेंट को होगी। वहीं मुख्य खलनायक, जिसे इतना शातिर दिखाया गया है और यह भी दिखाया गया है कि वह खेत के मालिक पर क्रांतिकारी दल में शामिल होने का शक करता है,  अपने इस ठिकाने के इतने नजदीक मौजूद इन खेतों की रखवाली नहीं करवाता है जो कि कोई भी शातिर व्यक्ति करवाएगा।

जिस खतरनाक मिशन के लिए कमाण्डर को लाया गया है उसमें भी कमाण्डर का योगदान ऐसा कुछ खास नहीं है जिससे यह लगे कि कमाण्डर के बिना यह मुमकिन नहीं था। पढ़ते हुए मैं यही सोच रहा था कि अगर इधर कमांडर के जगह मोनारा के दल का कोई दूसरा सदस्य भी होता तो भी मिशन आसानी से निपट सकता था। ऐसे में उन्होंने कमाण्डर को क्यों बुलाया? वहीं कमाण्डर हर चीज के लिए क्रांतिकारी दल के सदस्यों पर निर्भर रहता है। उसकी संस्था के लोगों ने भी प्लान बी के तौर पर किसी मदद का इन्तजाम उधर किया नहीं रहता है जबकि एक खूफिया संस्था से इतनी तो उम्मीद की जा सकती है कि वो उधर प्लान बी के तौर पर किसी को रखेंगे। लेकिन ऐसा कुछ इधर नहीं है।

यही नहीं करण उपन्यास में  ऐसी गलतियाँ करता दिखता है जिससे वह एक तरह से नौसीखिया सा प्रतीत होता है।

उदाहरण के लिए:
उपन्यास में एक प्रसंग है जिसमें एक व्यक्ति के जगह  क्रांतिकारी सदस्य अपने एक व्यक्ति को उधर भेजना चाहते हैं। अब क्रन्तिकारी सदस्य और करण दोनों के ही दिमाग में यह बात नहीं आती है कि उस स्टेशन में कोई ऐसा बन्दा हो सकता है जो उसे जानता हो। यह एक आम सी बात है जो कि  सबसे पहले एक आम जासूस सोचेगा। लेकिन करण जैसा बेहतरीन जासूस यह बात नहीं सोचता है। यह बात हैरत में डालती है।

वहीं वह जगह उपन्यास के हिसाब से इतनी जरूरी थी कि उसी में मौजूद किसी चीज को खत्म करना करण का मिशन था। ऐसे में जिन व्यक्तियों के नीचे वह जगह थी वह किसी अनजान व्यक्ति को क्यों भेंजेंगे? यह चीज भी तार्किक नहीं लगती है। यह आम से प्रोटोकोल हैं जिन्हें कहानी को आसान बनाने के लिए नजरअंदाज कर दिया गया है।

उपन्यास के अंत में भी एक प्रसंग है जब कमाण्डर को एक जगह बम फिट करने हैं। उसे पता है कि उसे अपने साथियों से ही धोखा मिलने की उम्मीद है लेकिन ऐसे मौके में भी वह अपनी साथियों के पास उस बम को फोड़ने का यंत्र छोड़कर चला जाता है। यह एक अनुभवी जासूस से अपेक्षित नहीं है। वह यंत्र अपने साथ ही लेकर जायेगा ताकि कम से कम जो उसे धोखा देना चाहते हैं वह बम को लगाते वक्त ही बम न फोड़ दें। दूसरा बन्दा  ऐसी कोशिश भी कर देता है लेकिन करण किस्मत के वजह बच जाता है।

करण के इस व्यवहार के अलावा भी प्लाट में कुछ चीजें थीं जो मुझे खटकी:

उपन्यास में एक चीनी एजेंट है जिसके विषय में बताया गया है कि वह नाम बदल कर मोनारा में रह रहा है। शुरुआत में उसके नकली नाम से ही क्रांतिकारी संगठन का नेता पुकारता है जिससे लगता है कि किसी को उसकी असलियत नहीं पता है लेकिन बाद में उसके असली नाम से ही उपन्यास में हर कोई पुकारता हुआ दिखता है।

यहाँ तक कि उसका मातहत जब करण को अपने साथ हेडक्वार्टर चेकिंग के लिए ले जाता है तो भी उसका असली नाम ही लेता है। यह अटपटा लगता है। अगर मैं किसी नकली नाम से कहीं रह रहा हूँ और माना मेरे मातहत को मेरा असली नाम पता भी है लेकिन तब भी वो किसी अंजान के सामने मेरा असली नाम क्यों लेगा। वह मेरा नकली नाम ही नहीं लेगा?

डॉक्टर माइकल चांग ने भी बाहर से आतीं वो आवाजें सुन ली थीं और वो फाऊचिन की आवाज को पहचान भी गया था।
उसके जेहन में जो पहला शब्द उभरा, वो था- खतरा। इंस्पेक्टर फाऊचिन जैसे शनिचर की मौजूदगी का मलतब था खतरा।
(पृष्ठ 18)
उसके सामने चीन का खतरनाक जासूस फूचांग खड़ा हुआ था। कमाण्डर को मालूम था कि फूचांग इंस्पेक्टर फाऊचिन के नाम से चीन सरकार की तरफ से मोनारा में रह रहा था।
(पृष्ठ 28)
"और शायद मेरी भी।" पोंगलू बुरा सा मुँह बनाकर बोला-"फूचांग बहुत शक्की टाइप का आदमी है, वह हर आदमी की इसी तरह जांच करवा रहा है।"
(पृष्ठ 35)

इसी प्रसंग में कमाण्डर को जब पोंगलू अपने साथ ले जाता है तो कागजात पोंगलू के पास रहते हैं। वह पोंगलू से पीछा छुड़ाता है तो उसके पास से कागजात लेने का उसे मौका नहीं रहता है लेकिन फिर भी आगे जाकर वह उन्हीं कागजातों को गटर में बहाता हुआ दिखलाया जाता है।

पोंगलू ने मेज पर से कमाण्डर के कागजात उठाए और कमाण्डर को अपने साथ चलने का इशारा किया। कमाण्डर उसके साथ शहर की तरफ चल पड़ा।
(पृष्ठ 34)
पोंगलू सपने में भी नहीं सोच सकता था कि कमाण्डर क्या करने जा रहा है। इससे पहले कि वो किसी किस्म के खतरे को महसूस कर पाता, कमाण्डर ने एकदम बिजली की-सी कौंध की तरह हाथ बढ़ाया था और एक कराटेचाप पोंगलू की गर्दन पर जमा दी थी। 
पोंगलू के हाथों से अचानक स्टेरिंग फिसल गया था और जीप का बैलेंस एकदम बिगड़ गया। 
लेकिन इससे पहले कि जीप एक तरफ पड़े बर्फ से टकराती, कमाण्डर करण सक्सेना ने जीप में से छलांग लगा दी थी।
कुछ दूर तक वो लुढ़कता चला गया था, फिर वो फुर्ती से उठा था। तब तक जीप बर्फीली दीवार से टकरा चुकी थी।
उठने के बाद कमाण्डर ने एक पल की भी देर नहीं की और फुर्ती से आसपास देखा। किसी का ध्यान उसकी तरफ नहीं था। वैसे कुछ लोग थोड़ी दूरी पर आते-जाते दिखाई दे रहे थे।
लोगों के आकर्षित होने से पहले ही कमाण्डर दौड़ता हुआ एक गली में जा चुका था।
(पृष्ठ 36, पृष्ठ 37- कागज निकालते हुए कहीं दिखाया नहीं गया है)
कमाण्डर करण सक्सेना अब उन कागजातों को नष्ट कर देना चाहता था। फिर उसे एक जगह एक गटर दिखाई दिया। कमाण्डर ने यहाँ रूककर सतर्क नज़रों से चारों तरफ देखा, आस-पास कहीं कोई नजर नहीं आया उसे।
कमाण्डर ने फुर्ती से गटर का ढक्कन एक तरफ सरकाया।
फिर उसने जेब से अपने कागजात निकाले और टुकड़े-टुकड़े कर उन्हें गटर में डाल दिया। उसने गटर का ढक्कन ठीक से रखा और आगे चल दिया। 
(पृष्ठ 49, पृष्ठ 50)

यह तो प्लाट की कमजोरियाँ हैं जो कि उभर कर मेरे सामने आई थी। इसके अलावा कुछ दूसरी गलतियाँ थीं जिन्होंने उपन्यास पढ़ने के अनुभव पर बुरा प्रभाव डाला। यह उपन्यास धीरज पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित है और पढ़कर लगता है उन्होंने इस पर कुछ भी काम नहीं किया है। सम्पादन तो दूर की बात है, प्रूफ रीडिंग तक उपन्यास की नहीं हुई है।

इक्का दुक्का बार वक्यों में और प्रसंग में दोहराव था जिस पढ़कर लग रहा था जैसे वो खाली पृष्ठ बढ़ाने के लिए डाला गया था।  नाम अक्सर बदल जाते हैं।

 ताई बिज  आगे जाकर नाई पिंग हो जाता है, मिट चांग आगे जाकर निट चांग हो जाता है, सेट चांग आगे जाकर वांग से हो जाता है

कुछ वाक्य ऐसे लिखे गये हैं जिन्हें पढ़ते वक्त व्यक्ति संशय में पड़ जाता है कि लेखक कहना क्या चाहता है।कई बार किरदारों के नाम अदल बदल जाते हैं जिससे अर्थ का अनर्थ हो जाता है।

फार्म में कमाण्डर को सुबह वाले आदमियों में एक जोड़ा बढ़ा हुआ नज़र आया। तो ये बूढ़ा और उसकी बीवी, जो मुश्किल से बीस साल की थी। शायद यह ताई बिज तीसरी या चौथी बीवी थी। 
(पृष्ठ 92)

"हाँ। इस काम में मेरे आदमी तुम्हारा पूरा सहयोग देंगे।" डोंग ने गम्भीरता से कहा।
उसकी बात ने कमाण्डर को और भी सोचने पर मजबूर कर दिया।
"वो भी काट दिए जायेंगे।"डोंग बोला - "फ़िलहाल तुम ध्यान से योजना समझते जाओ। यह जरूरी है।"

(पृष्ठ 170) न जाने किसको काटने की बात की जा रही है

वैसे वान ने गलत नहीं कहा था।
मौत वाकई  उसके चार आशिकों का इन्तजार कर रही थी। उसका ख्याल सही था कि वह उनकी आखिरी मुलाक़ात हो सकती थी।
(पृष्ठ 177) कौन से चार आशिक?

लेकिन वह खुद महसूस क्र रहा था कि उसकी आवाज में दमन ही है। उसकी आवाज बिल्कुल खोखली थी।
हकीकत को छुपाया नहीं जा सकता था।

भाटिया ने आवेश में कहा-
"नहीं मैंने सुना है कि आदमी शराब के नशे में हमेशा सच ही बोलता है।"
(पृष्ठ 229) (भाटिया कौन है)

डोंग ने रोजी के मुँह पर एक जोरदार थप्पड़ जड़ते हुये कहा- "होश में आओ मारिया.. अगर तुमने यह बकवास दल के किसी आदमी के सामने की तो मैं हमेशा के लिए तुम्हारा मुँह बंद कर दूँगा।"
( पृष्ठ 230) रोजी कैसे मारिया हो गयी

हिन्दुस्तानी कुत्तों तेरे लिए मुझे आज मेरे प्यार का भी खून कर देना पड़ा।
(पृष्ठ 232)

"मजबूरी है मिन!" कमाण्डर ने बाहरी साँस लेकर कहा..

कमांडर ने बाहरी साँस  लेकर बोला- "अच्छा मिन....मेरी शुभकामनायें..."
(पृष्ठ 251)

यहाँ मैंने कुछ ही वाक्य डाले हैं। ऐसे वाक्यों की भरमार इधर है। इन गलतियों के चलते आपको यह समझने में मशक्कत करनी पड़ती है कि लेखक क्या कहना चाहता है। यह कहानी रूपी सड़क में अनचाहे खड्डों की तरह प्रतीत होते हैं जिससे होते हुए पाठक का दिमाग हिचकोले खाने लगता है।

ऊपर मैंने जो भी गलतियाँ गिनाई हैं वह  ऐसी  हैं जिन्हें उपन्यास को सम्पादित करके हटाया जा सकता था।  परन्तु ऐसा लगता है कि न लेखक और न प्रकाशक ने ही प्रूफ रीड और सम्पादन को महत्व दिया। अगर देते तो कहानी बेहतर बन सकती थी। अच्छा सम्पादक लेखक के समक्ष वही बिंदु उठाता जो मैंने उठाये हैं और लेखक कम से कम इन चीजों में तो सुधार कर ही देता। इससे कहानी और बेहतर बनती।

अंत में यही कहूँगा कि उपन्यास एक बार पढ़ा जा सकता है। हाँ, उपन्यास में करण अपनी किस्मत के बदौलत ही बचता रहा है और ऐसे में उसके रॉ के नम्बर वन एजेंट होने के दावे को लेकर थोड़ा संशय मन में होता है। मुझे लगता है उपन्यास करण के किरदार के साथ न्याय नहीं करता है।

रेटिंग: 2/5

अगर यह उपन्यास आपने पढ़ा है तो आपको यह कैसा लगा? अपने विचारों से मुझे जरूर अवगत करवाईयेगा।

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© विकास नैनवाल 'अंजान'
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