नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

समंदर - मिलिंद बोकील

उपन्यास फरवरी 26 2020 से मार्च 1 2020 के बीच पढ़ा गया

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक
प्रकाशन: अंतिका प्रकाशन
पृष्ठ संख्या: 96
आई एस बी एन: 9789380044620
मूल मराठी से अनुवाद: पद्मजा घोरपड़े

समंदर -  मिलिंद बोकील
समंदर -  मिलिंद बोकील

पहला वाक्य:
अब जाकर रास्ता खाली मिला था। 
कहानी:
भास्कर एक कम्पनी का मालिक है। उसके पास धन है, लोगों का सम्मान है वह सब कुछ है जो एक व्यक्ति को उसकी उम्र में चाहिए होता है। सबकी नजरों में उसका परिवार भी एक परफेक्ट परिवार है। लेकिन वही जानता है कि उसके और उसकी पत्नी के बीच में कुछ है जो सही नहीं है।

भास्कर और नंदिनी के बीच दूरियाँ बढ़ चुकी है। कुछ है तो दोनों को परेशान करता रहता है। ऐसा कुछ जिसे वह लोग नजरअंदाज करते आये हैं लेकिन वह फिर भी रह रहकर उसका अहसास उन्हें होता रहा है। जैसे दाँत के बीच में फँसा कोई टुकड़ा बारबार व्यक्ति को परेशान करता है वैसे ही यह बात दोनों को परेशान किये हुए है।

अपने बीच की इस दूरी को दूर करने के लिए ही भास्कर समन्दर किनारे बसे एक रिसोर्ट में जाने की योजना बनाता है। कई वर्षों से वह अपने व्यपार में इतना व्यस्त रहा है कि पत्नी के साथ कहीं जा नहीं पाया है। समन्दर के नजदीक की यह यात्रा एक उम्मीद है।

उम्मीद कि उनकी बीच की दूरी को यह समन्दर पाट सकेगा।

आखिर भास्कर और नन्दिनी के यह दूरी क्यों आई थी? 
क्या समन्दर किनारे का यह सफर इन दोनों के बीच की इस दूरी को खत्म कर पाया?


मुख्य किरदार:
भास्कर - एक पानी साफ़ करने वाली कम्पनी का मालिक
नंदिनी  - भास्कर की पत्नी
राजू - भास्कर और नंदिनी का बेटा
गणेश राजोपाध्ये - नंदिनी का दोस्त

मेरे विचार:

समंदर मिलिंद बोकील के मराठी उपन्यास समुद्र का हिन्दी अनुवाद है। उपन्यास का अनुवाद पद्मजा घोरपड़े जी ने किया है। अनुवाद अच्छा हुआ है और उपन्यास पढ़ते हुए आपको कहीं भी नहीं लगता है कि आप एक अनुवाद पढ़ रहे हैं। अच्छे अनुवाद के लिए पद्मजा जी बधाई की पात्रा हैं।

उपन्यास की बात करूँ तो उपन्यास भास्कर, नंदिनी और समन्दर के इर्द गिर्द घूमता है। बीच में इक्के दुक्के किरदार आते हैं लेकिन या तो उनका केवल जिक्र होता है जैसे राजू और गणेश या फिर वह कहानी में इन किरदारों के आस पास होने वाले लोग हैं जिनका कहानी पर उतना प्रभाव नहीं है।

मुख्यतः यह उपन्यास भास्कर और नंदिनी के बीच के रिश्ते और इसके बीच पनपी दूरियों को लेकर लिखा गया है। जब उपन्यास शुरू होता है तो पाठक को लगता है कि यह दूरी इसलिए है कि भास्कर अपने व्यापार में ज्यादा ध्यान देता है लेकिन जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती है पाठको को पता चलता है कि इनके बीच पनपी इस दूरी के पीछे एक और गहरा कारण है।

भास्कार और नन्दिनी आम से लगने वाले किरदार हैं। दोनों में से कोई बुरा नहीं है और न ही कोई अति कामुक है। दोनों ही साधारण हैं। एक मध्यम वर्गीय जोड़ा जो अपने जीवन की गाड़ी खींच रहा है। ऐसे जोड़ों के बीच में जब भी दूरी आती है तो उसका मुझे एक ही कारण लगता है।

मुझे हमेशा से लगता है कि ऐसे व्यक्तियों के रिश्तों, जिन्हें देख आपको लगे कि यार दोनों इतने अच्छे हैं लेकिन फिर यह रिश्ता क्यों टूटा, में जब भी दरारे आती हैं वो संवाद की कमी के चलते आती हैं। यहाँ भी ऐसा ही कुछ है। जैसे जैसे उपन्यास की कहानी आगे बढती है यह बात साफ होती रहती है। जहाँ एक तरफ नन्दिनी है जिसे लगता है कि उससे या स्त्रियों से कोई कुछ पूछता नहीं है, वहीं दूसरी तरफ भास्कार है जिसे लगता है कि पति पत्नी के रिश्ते में कुछ चीजें बिना पूछे समझ में आनी चाहिए।

"..मैं ठीक से समझ नहीं पाया? आखिर उसके मन में क्या था? सच! औरतों के मन में क्या बातें होती हैं कुछ समझता नहीं ।"
"तुम लोग पूछते कहाँ हो?"
"यानी?"
"मतलब कि कोई कभी उनसे पूछता है क्या? पूछोगे तो पता चलेगा।"

"उसमें पूछना क्या है? कुछ बातें हम मानकर ही चलते हैं न?पति-पत्नी में इतनी अंडरस्टैंडिंग तो होनी ही चाहिए न? यही तो इस रिश्ते की बुनियाद होती है। देखो पति -पत्नी का रिश्ता इसी बेसिक बात पर टिका होता है।"
(पृष्ठ 20)



यहाँ मुझे लगता है कि यहाँ भास्कर की यह गलती है उसे लगता है कि पति पत्नी में कुछ चीजें कहने की जरूरत नहीं होती। उन्हें बिन कहे समझना होता है। मुझे यह ठीक नहीं लगता है। मुझे लगता है कि सब कुछ कहा जाना चाहिए। ये बिन कहे समझने वाली बात से ही दिक्कत होती है। और इसी चीज से भास्कर भी पीड़ित है। नन्दिनी को लगता है कि उसने पत्नी का धर्म निभाया है लेकिन भास्कर को उससे कुछ शिकायतें हैं जो वो जबान पर नहीं लाता लेकिन इससे उसके रिश्ते में दरार आती है।

हाँ , यह सच है कि अब उसके मन में उमंगे उभरती भी नहीं। यदि मैं नहीं बुलाता तो कतई नहीं आती। वैसे ही बैठी रहती समंदर देखते हुए। दोपहर में भी कभी मैं पास बुलाता हूँ तभी आती है वरना लेटी रहती है। दोपहर में ही क्यों, रात में भी कभी में भी इससे अलग कुछ नहीं होता। मैंने गले लगाया तो पास आएगी वरना सिर्फ बदन पर हाथ रखकर सो जाएगी। मैं मुँह उधर कर सोऊँ तब भी कुछ नहीं कहेगी।

उसके मन में फिर से टीस उभरी। वह अपने कर्तव्य में कभी चूकी नहीं। कभी मेरा मन नाराज नहीं किया। कुछ नहीं कहती है। सब बर्दाश्त करती रहती है। सयानी है लेकिन इसके परे भी कुछ होता है या नहीं? या फिर कुछ है जो मेरी समझ में नहीं आ रहा है? मैं ज्यादा बोल नहीं पाता हूँ।(पृष्ट 17)



संवाद न होने से यह दिक्कत होती है कि हम यह मान लेते हैं कि सामने वाले व्यक्ति को एक चीज चाहिए और उसे वही चीज देते जाते हैं। जबकि हो सकता है सामने वाले को हमसे अब कुछ चाहिए हो? संवाद की कमी के चलते हम इससे अनभिज्ञ रहते हैं और फिर वह व्यक्ति उन चीजों को अक्सर दूसरों में तलाश करने लगता है। यहाँ भी ऐसा ही कुछ होता है।

भास्कर और नंदिनी दोनों ही इससे पीड़ित हैं। दोनों के लिए ही रिश्तों में कुछ कमी है लेकिन चूँकि वह कमी साझा करने के बजाय वह इसे नजरअंदाज करना या चुप रहना बेहतर समझते हैं तो कुढ़ते जाते हैं।

वैसे तो उपन्यास छोटा सा है लेकिन इसे पढ़ने के बाद मैंने काफी देर तक सोचता रहा। उपन्यास में नंदिनी जो करती है उसे उस चीज को लेकर कोई ग्लानि नहीं होती है। उसे लगता है कि वह अपने पति के साथ अपने सभी पत्नी धर्म निभा रही है और इस कारण इसके इतर उसका कुछ करना गलत नहीं है। यह बात मुझे पचाने में थोड़ी सी दिक्कत हुई।

बाद में मैंने इसके ऊपर खूब सोचा कि आखिर ऐसा क्यों था? मुझे ऐसा क्यों लगा कि नन्दिनी इस मामले में गलत थी जबकि अगर उसकी जगह कोई मर्द होता तो मुझे यह बात इतनी गलत नहीं लगती। असल जिंदगी में कई मर्द यही तो कहते हैं। वह बाहर रिश्ता बनाते हैं और पत्नी से कहते हैं कि हमने अपने पति धर्म में कोई कमी नहीं रखी। इधर लेखक ने रोल घुमा दिए हैं। इधर एक औरत यही बात कह रही है।

क्या इस बात का बुरा लगना इसलिए भी था क्योंकि नंदिनी के सारे खर्चे भास्कर ही उठा रहा था? उपन्यास में एक बार भास्कर के दिमाग में भी यह बात आती है कि क्योंकि नन्दिनी को सब कुछ भास्कर के किये मिल रहा है तो उसके पास वक्त ही वक्त है और इस कारण वह यह सब करती है।

क्या नन्दिनी अगर खुद की कमाई कर रही होती तो यह बात मुझे ज्यादा तर्कसंगत लगती?
 यह इस तर्क के बुरे लगने के पीछे का कारण यह है कि मेरे दिमाग के किसी कोने में अभी भी एक ऐसा मर्द है जो औरत को अपनी जागीर की तरह देखता है? 

ऊपर के तीनों सवालों के ऊपर मैं सोचता रहा और खुद से यह पूछता रहा कि मुझे नन्दिनी की बात का बुरा क्यों लगा? यह सच है कि ऊपर की तीनों बातों आंशिक रूप से इसकी जिम्मेदार रही होंगी।

लेकिन काफी सोचने पर मैंने पाया कि नंदिनी का यह व्यवहार गलत लगने के पीछे मुख्य कारण यह था कि उसने यह बात अपने पति से छुपा कर रखी। भले ही उसे लगता हो उसने गलत नहीं किया लेकिन अगर असल में उसे ऐसा लगता तो यह बात उसे बता देना चाहिए था। उपन्यास में वह कहती है कि उसे यह मामूली बात लगी लेकिन यह तर्क बोथरा लगता है। आपसी समझोते में अगर यह चीज होती तो मुझे इतना बुरा नहीं लगता क्योंकि मुझे ओपन मैरिज से कोई ऐतराज नहीं है। दोनों व्यक्तियों को पता होता है कि वह किस चीज में दाखिल हो रहे हैं तो धोखे का सवाल ही नहीं उठता है।

वहीं नंदिनी अपने दोस्त से रिश्ता खत्म करने का जो कारण देती है वह मुझे ठीक नहीं लगा। अगर कोई मुझे वह कारण देगा तो मैं उससे केवल इतना कहूँगा कि अगर आगे चलकर कोई दूसरा व्यक्ति उसे मिले और वह पहले वाले की तरह बात न करे तो क्या वो रिश्ता वो पीठ पीछे कायम नहीं रखेंगे? मुझे समझ नहीं आया कि यह बताकर भास्कर को क्या जताना चाहती थी। हो सकता है काफी चीजें अभी उम्र के इस पड़ाव पर मुझे समझ नहीं आयें लेकिन मैं इस उपन्यास को कुछ सालों बाद दोबारा पढ़ना चाहूँगा ताकि देख सकूँ कि उस वक्त मेरा क्या नजरिया है।

उपन्यास के अंत होने तक भास्कर को काफी चीजें समझ आ जाती है। यह  चीजें क्या होती है वह तो आप उपन्यास पढ़कर ही जानेंगे। यहाँ मैं इतना ही कहूँगा कि समन्दर का इसमें बहुत अहम किरदार होता है।  जहाँ तक मेरी बात है मुझे लगता है कि भास्कर जो समझता है वह खुद को दिलासा देने वाली बात हो जाती है।  भास्कर की जगह मैं होता तो शायद वो न कर पाता जो उसने किया। लेकिन फिर उनके लिए मैं खुश भी होता हूँ कि जब दोनों व्यक्ति जिन्हें यह रिश्ता निभाना है खुश हैं तो मैं क्यों परेशान होऊँ।

उपन्यास भले ही सौ पृष्ठों से कम है और भले ही इसमें केवल दो किरदार हैं लेकिन उपन्यास आपको सोचने के लिए काफी कुछ दे देता है। सही क्या है? गलत क्या है? नैतिक क्या है? अनैतिक क्या है? इसकी परिभाषाएँ सबकी अलग अलग होती है। कई लोगों को ओपन मैरिज भी सही लगती हैं और कई लोगों को शादी में एक व्यक्ति की तरफ पूरी वफादारी चाहिए होती है मन की भी और तन की भी। कई बार परेशानी यह होती है कि एक जोड़े में शामिल दो व्यक्तियों की यह परिभाषा भिन्न हो सकती है। समन्दर भी ऐसे ही एक जोड़े की कहानी है।  यहाँ कोई गलत नहीं है बस संवाद न होने के चलते हुई गलतफहमियों का ये शिकार हैं।

यह एक विचारोत्तेजक उपन्यास है। पढ़ने के कई दिन बाद तक मैं भास्कर और नन्दिनी के विषय में सोचता रहा।  मुझे तो इसने काफी कुछ सोचने पर मजबूर किया।  आप भी एक बार पढ़िए।


उपन्यास के कुछ अंश जो मुझे पसंद आये:
वह दिमाग में बल देकर सोचने लगा - नंदिनी कुछ भी न करते हुए इतनी खुश कैसे रहती है? क्या करती रहती है? घरेलू काम? पढ़ना? मन रमाने के लिए क्या है उसके पास? मुझे तो समय का सतत अभाव महसूस होता है। काम-से-काम निकलते रहते हैं और नंदिनी? उसका समय कैसे कटता होगा? शरू- शुरू में मैंने कई बार उससे पूछा भी। दरअसल उसकी समझ में प्रश्न ही नहीं आया था। वह कभी खाली या उदास बैठी हुई या तारे गिनती हुई दिखी ही नहीं। हमेशा किसी-न-किसी काम में लगी रहती थी। उसका मन खुश ही रहता होगा वरना क्या कभी झुँझलाती नहीं? लेकिन ऐसा कभी हुआ ही नहीं! ना खीज, ना झुँझलाहट, ना काम का ढेर! आलस में तो उसे मैंने कभी देखा ही नहीं। वह हमेशा से एक जैसी रही है। सहज, खुश सी , अपने में निमग्न। 

उसने एक गहरी साँस छोड़ी। उसके मन में हमेशा-सी एक टीस उभरी। हमेशा-से विचार। अकेलेपन में उभरने वाले। और इन विचारों के उभरते ही उठने वाली यह टीस। यह दिल की बीमारी कतई नहीं है। दिल मेरा एकदम ठीक है। नियम से पूरी जाँच करता रहता हूँ। शरीर घोड़े की तरह चुस्त और रोबीला है। यह टीस अलग किस्म की है। मन में उभरनेवाली। कहाँ से उभरती है आज तक पता नहीं चला। पर उभरती है और भीतर ही भीतर बेतहाशा दौड़ शुरू हो जाती है। जिह्वा पर नीम की कड़वाहट उतरती है। और थकान से चूर-चूर हो जाता हूँ मैं। 

अक्सर बातें दोनों की एक पसंद से ही होती हैं। फिर भी कुछ पर्दा तो रहता ही है। ऊपर से भले ही न दिखे।  वक्त आने पर नंदिनी अपनी बात दबाकर मेरी बात रख भी लेगी लेकिन मुझे कहीं-न-कहीं अहसास होता रहता है। उस पीड़ा का किसी को अंदाज नहीं हो सकता। कैसी पीड़ा है यह? इसका भी ठीक से पता नहीं चलता। पति-पत्नी पूर्णतः एक दूसरे के हो जाते हैं फिर भी एक अदृश्य दूरी रहती है। ऐसे किसी मंतव्य से फिर उस दूरी का अहसास होता है। इसका कोई तो इलाज होगा। है भी या नहीं। या है और मैं नहीं जानता?(पृष्ठ 26)

चाहे जो हो! उसने सोचा! लेकिन इस समय वह मुझे अपने साथ नहीं चाहती। यह क्या बला है? हर एक का अपना- सिर्फ अपना ऐसा कुछ होता है। मेरा अपना भी ऐसा कुछ है जो सिर्फ मेरा है। लेकिन यह क्या होता है? पति-पत्नी के बीच भी अपना-अपना कोई द्वीप हो सकता है? अब उसके मन में क्या उभर रहा होगा? इस वक्त? कोई विचार? जो मेरे बग़ैर करना है।

वह पानी के स्पर्श को अनुभूत करते हुए खड़ा रहा। विचार शून्य सा वह खड़ा रहा। लहरे आ जा रही थीं। उनकी हल्की आवाज और समन्दर की खामोशी। नौकाएं न थीं। सूरज आसमान में सारी दुनिया को चुनौती देने की मुद्रा में डटा था और समंदर उसकी आग चुपचाप पीने की मुद्रा में। 
न जाने वह कितनी देर वैसे ही खड़ा रहा। मन में सन्नाटा भरा था। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे? एक प्रकार से शून्य का मुकाबला कर रहा था। धूप थी, उमस थी लेकिन यह अनुभवहीन स्थिति में, खाली-खाली सा था। सामने असीम समंदर है लेकिन मैं इसे लेकर क्या करूँ? उसने सोचा।

यदि मैं अपने साथ हूँ तो और किसी के होने की जरूरत है क्या? और दूसरे जो मेरे साथ होते हैं दरअसल वे भी खुद अपने साथ होते हैं। हम साथ चलते हैं यानी साथ होते नहीं। हम अपने साथ ही होते हैं। इसीलिए हम किसी के साथ चल सकते हैं।

रेटिंग: 4/5
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मेरे प्रिय पाठकों अब आपके लिए कुछ प्रश्न:
प्रश्न 1: आप हालफिलहाल में छुट्टियाँ मनाने किधर गये थे?
प्रश्न 2: कहा जाता है कि आदमी का असली चरित्र जानना है तो उसके साथ एक बार घूमने निकलो। क्या आप इस कथ्य से सहमत हैं? अगर ऐसा सच है तो आपको क्यों लगता है कि किसी को जानने के लिए आपको उसके साथ घूमना जरूरी है?

मैंने मराठी से हिन्दी में अनूदित कुछ और उपन्यास पढ़े हैं। उनके विषय में मेरी राय आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
मराठी से हिन्दी

मैं अक्सर हिन्दी अनुवाद पढ़ता रहता हूँ। हिन्दी में अनूदित कृतियों के विषय में मेरी राय आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
हिन्दी अनुवाद


© विकास नैनवाल  'अंजान'
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4 Comments
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  1. यह पुस्तक मुझे कई बार अमेज़ॉन पर मिली है पर कभी ध्यान नही दिया। मौका मिला तो अवश्य पढ़ूँगा।

    हाल ही तो मैं शिमला गया था परिवार के साथ फरवरी। सुंदर जगह थी। वही से प्रेरणा लेकर मैने प्रतिलिपि पर जासूसी कथा प्रतियोगिता मे एक कहानी भेजी थी, पर देरी के कारण कुछ हो न पाया।

    वही दूसरा प्रश्न काफी जटिल है।
    कई लोग अपने चेहरे पर मुखोटा धारण किए होते है और वह छुट्टियों के दौरान भी अपनी असली शक्ल नही दिखाते।

    वही अधिकतर मनुष्यो मे वह पारखी नज़र नही होती जो असली और नकली रूप मे फर्क कर सके।

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    1. जी मौका लगे तो पढ़ियेगा। शिमला वकाई खूबसूरत है। हाँ, लोग चेहरे पर मुखौटा तो लगा देते हैं लेकिन अक्सर लम्बी रोड ट्रिप में वह उतर जाते हैं क्योंकि आपको कई दिनों तक उनके साथ रहना होता है और लम्बी यात्राओं के दौरान सुविधाएँ भी कम होती है। जासूसी कथा अगर प्रतिलिपि पर है तो लिंक दीजियेगा। मैं जरूर पढ़ना चाहूँगा। 

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  2. उपन्यास के बारे में बहुत सुंदर वर्णन किया है।
    एक दम रुचि पैदा करने वाला वर्णन है।
    मुझे लगता है कि लगभग रिश्तों की यही कहानी है।
    आपसी समझ की कमी संवाद में कमी के कारण आती है।

    1. हाल ही में मैं जयपुर गया था।
    आमेरगढ़ की भव्यता के आगे सब फीके लगते हैं।

    2. केवल घूमने मात्र से संपूर्ण चरित्र को जाना नहीं जा सकता। लेकिन किसी के चरित्र का अंदाजा लगाया जा सकता है। अक्सर मैं जब सफ़र में होता हूँ तो दिमाग बनावटी बातों से परहेज करता है।

    नई रचना- सर्वोपरि?

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    Replies
    1. जी उपन्यास के ऊपर लिखा लेख आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा। आमेरगढ़ मैं काफी पहले गया था। आपने सही कहा उसकी भव्यता के आगे सभी फीके लगते हैं। जी सही कहा सम्पूर्ण चरित्र का पता लगाना तो मुश्किल ही है क्योंकि इनसान पल पल बदलता रहता है। कई बार तो इन बदलावों से वह खुद भी वाकिफ नहीं होता है। ब्लॉग पर आने का शुक्रिया। आते रहियेगा।

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