नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

बाजी - सुरेंद्र मोहन पाठक

किताब 15 जनवरी 2020 से 17 जनवरी 2020 के बीच पढ़ी गयी

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: ई-बुक  | प्रकाशक: डेलीहंट | श्रृंखला: सुधीर सीरीज # 16

बाज़ी - सुरेंद्र मोहन पाठक
बाज़ी - सुरेंद्र मोहन पाठक

पहला वाक्य:
नवीन सेठ मेरी ही तरह प्राइवेट डिटेक्टिव था लेकिन, जैसे मेरा कार्यक्षेत्र दिल्ली था, उसका कार्यक्षेत्र मुंबई था। 

कहानी:
नवीन सेठ मुंबई का प्राइवेट डिटेक्टिव था जो कि किसी केस के सिलसिले में दिल्ली आया था। सुधीर कोहली और नवीन सेठ का कारोबारी रिश्ता था और दोनों जरूरत पड़ने पर एक दूसरे की मदद किया करते थे।

सुधीर कोहली ने जब नवीन सेठ को पॉम गार्डन ले जाने की सोची तो उसका एकलौता मकसद नवीन सेठी की दिल्ली की नाईट लाइफ देखने की इच्छा को पूरा करने का था। पॉम गार्डन अमीरों की तफरी करना का अड्डा था जहाँ के खर्चे उठाना हर किसी के बस की बात नहीं थी।

ऐसे में जब सुधीर ने पहले अपने हम पेशा निहाल बख्शी और फिर बाद उसकी बेटी सुगन्दा बख्शी को क्लब में देखा तो उसका माथा ठनकना लाजमी था। निहाल बख्शी एक छोटा पीडी था जिसका मौज मेले के लिए उधर आना कुछ जमता नहीं था। और फिर वह जगह ऐसी नहीं कि कोई बाप अपनी जवान बेटी को उधर बुलाता। ऐसे में सुगन्दा का उधर होना किसी गड़बड़ की तरफ ही ईशारा करता था।

सुधीर ने जब निहाल की बेटी को उधर से जाते देखा तो किसी अंदेशे के चलते सुधीर ने उसका पीछा किया और फिर न चाहते हुए भी ऐसे झमेले में फँस गया जिसके चलते उसके चारों तरफ लाशे ही लाशें गिरने लगी।

वह एक ऐसी बाजी का मोहरा बन गया था जिसमे एक भी गलत कदम उसकी जान ले सकता था।

आखिर निहाल बख्शी किस फिराक में था? 
वह क्यों पॉम गार्डन में पहुँचा हुआ था? 
सुधीर कोहली इस मामले में अड़ंगा डालकर किन झमेलों में फँस गया था? क्या सुधीर कोहली इस बाज़ी को जीत पाया?

ऐसी ही कई प्रश्नों का उत्तर इस उपन्यास को पढ़कर आपको पता चलेगा।

मुख्य किरदार:
सुधीर कोहली - यूनिवर्सल इन्वेस्टीगेशनस का मालिक एक प्राइवेट डिटेक्टिव
रजनी - सुधीर कोहली की सेक्रेटरी
नवीन सेठ - मुबई का एक पीडी जो कि सुधीर का दोस्त था और एक मामले के सिलसिले में दिल्ली आया था
जॉन पी अलेग्जेंडर - दिल्ली में अब्बा नाम के नाईट क्लब का मालिक
बुलबुल, शहनाज, क्रिस्टीना, मारिया, रोजीना - पॉम गार्डन में नाचने वाली नर्तकियाँ
मिस बॉम्बे बोम्ब्शेल बबिता बेनीवाल - पाम गार्डन में नृत्य पेश करने वाली एक लड़की
बाँके - पाम गार्डन में काम करने वाला एक व्यक्ति
रंजन औलक - पाम गार्डन का मैनेजर
निहाल बख्शी - दिल्ली का एक प्राइवेट डिटेक्टिव जिसकी सुधीर कोहली से जान पहचान थी
सुगन्दा बख्शी - निहाल बख्शी की बेटी
जजसिंह - सुधीर जिस इमारत में रहता था उसका चौकीदार
शिखर भटनागर - सुधीर की इमारत में रहने वाला एक व्यक्ति जो पेशे से टेलीफिल्म निर्माता था
सोहराब रेशमवाला - होटल पॉम गार्डन का मैनेजिंग पार्टनर
जोस ओसारियो - होटल पॉम गार्डन का मालिक जो कि एक साइलेंट पार्टनर था और एक गैंगस्टर था
ओम तिवारी - मालवीय नगर में रहने वाला एक नेता
इंस्पेक्टर मतवालचन्द - पुलिस का एक एस एच ओ
मुकुंदलाल - दिल्ली पुलिस का एक हवलदार जिससे सुधीर कोहली मदद लिया करता था
संजय सिंह - इंडियन एक्सप्रेस अखबार का रिपोर्टर जो कि कोहली का दोस्त था
देवेंद्र यादव - स्पेशल स्क्वाड का पुलिस इंस्पेक्टर जिससे सुधीर की जान पहचाना थी
मनोज जोशी - तिलक मार्ग ठाणे में मौजूद एक सब इंस्पेक्टर
अलीशा ओसवाल - लोटस लीफ नाम के क्लब में काम करने वाली एक सिंगर
मुकेश म्हात्रे - पॉम गार्डन में ड्रमर
शोभा सिंघल - द्वारका नाथ सिंघल, जो कि रूलिंग पार्टी का जनरल सेक्रेटरी था, कि बेटी

बाजी सुधीर कोहली श्रृंखला का 16 वाँ उपन्यास है। सुधीर कोहली के विषय में अगर आप नहीं जानते हैं तो यह जानना काफी है कि वह खुद को दिल्ली का सबसे बड़ा हरामी इनसान कहता है और इस पर कई बार खरा भी उतरकर दिखाता है। वह यूनिवर्सल इन्वेस्टीगेश्न्स नाम की प्राइवेट डिटेक्टिव एजेंसी का मालिक है और अपने पेशे के चलते ऐसे कई मामलों में फँस जाता है जो कि उपन्यास का कथानक बनते हैं।

बाजी इस मामले में सुधीर के ज्यादातर उपन्यासों अलग है कि इसमें सुधीर के पास कोई व्यक्ति केस लेकर नहीं आता है बल्कि हालात ऐसे बनते हैं कि सुधीर मामले में बिना किसी के बुलाये खुद ही फँसता चला जाता है। अपने हम पेशा व्यक्ति और उसकी बेटी को मुसीबत में देखकर वो बिना बोले उनकी मदद को तैयार हो जाता है और फिर परिस्थितियाँ ऐसी बनती चली जाती है कि एक बड़े गैंगस्टर और एक बड़े नेता के सम्मुख वह खुद को पाता है। उसका हम पेशा व्यक्ति क्यों मुसीबत में फंसा था? इससे एक गैंगस्टर और नेता के तार कैसे जुड़े थे? इन सब बातों से पर्दा जैसे जैसे कथानक आगे बढ़ता है वैसे वैसे उठता चला जाता है।

कथानक तेज रफ्तार है। सुधीर के सिर पर खतरे की तलवार लटकती रहती है। चीजें इस तरह से घटित होती हैं कि एक बात का पता चलता है तो दूसरी ऐसी बातें पाठक के सामने आ जाती हैं कि वो उनके  विषय में जानने के लिए खुद को उपन्यास से चिपका हुआ पाता है।  पाठक के लिए तब तक उपन्यास छोड़ना मुश्किल साबित होता है जब तक उपन्यास खत्म नहीं हो जाता है।

उपन्यास का मुख्य किरदार सुधीर कोहली है। वह खुद को दिल्ली का सबसे बड़ा हरामी कहता है और इस कारण कई बार आपको उसकी इन हरकतों से चिढ़ भी हो सकती है। उसका औरतों के प्रति एक ही तरह का नजरिया है जिससे वह कई बार नारीविरोधी भी लगता है।  विशेषकर शोभा सिंघल के प्रति उसके कुछ विचार मुझे भी खराब लगे थे लेकिन फिर यही उसका किरदार है।

कई बार सुधीर कोहली अंतर्विरोधों की गठरी भी लगता है। वह सुगन्दा की मदद बिना माँगे करता है लेकिन जब सुगन्दा उससे नाराज होती है तो वह बात को इस तरह टाल देता है जैसे कुछ हुआ ही न हो। लेकिन फिर भी वह मामले को नहीं छोड़ता है। वह मामले के तह तक तब भी जाता है जबकि उसे इसकी जरूरत नहीं थी। ऐसे में आप सोचने को मजबूर हो जाते हैं कि उसका रिश्तों के प्रति लापरवाह रवैया कहीं खुद को चोट से बचाने का ही एक तरीका तो नहीं है?

ऐसी ही एक और प्रसंग में वो नेता ओम तिवारी को केवल इसलिए डांट लगाता है क्योंकि उसने अपनी बीवी को सफाई का मौक़ा नहीं दिया था और जो उसके विषय में बोला गया था उसे मान लिया था। यहाँ उसे नेता को डाँट लगाने की आवश्यकता नहीं थी।

सुधीर को सुधीर जो चीज बनाती है वो उसके पेशे के प्रति इमानदारी है। इस उपन्यास में भी जब उसे एक लड़की पैसे और खुद के एवज में उससे पेशे के प्रति गद्दारी करने को कहती है तो वो इस बात से मुकर जाता है। वह अपने केस में जस का तस बना रहता है।

उपन्यास में कई ऐसे प्रसंग आते हैं जहाँ यह पता लगता है कि भले ही सुधीर खुद को कितना भी बड़ा हरामी कह ले लेकिन उसकी भी अपनी नैतिकता है, जो कि आम लोगों से अलग है, लेकिन वह इस नैतिकता को बनाये रखता है। उसकी इन हरकतों से आप कई बार उसे हीरो की तरह देखते हो और कई बार उससे चिढ़ते भी हैं। सुधीर की यही बात उसे ख़ास बनाती है। वह एक कार्ड बोर्ड करैक्टर नहीं है। उसमें कमिया भी हैं तो खूबियाँ भी हैं। किसी प्रसंग में उसकी कमी उस पर हावी होती है और किसी प्रसंग में उसकी खूबी। एक पाठक के तौर पर यह आपके ऊपर निर्भर रहता है कि आप उसकी कमियों को अपनाते हैं या उसकी खूबी को। सुधीर कोहली को फिलोसोफेर डिटेक्टिव का नाम भी दिया गया है। उपन्यास का कथानक सुधीर के सदके ऐसी सूक्तियों से भरा है जो उसके हरामीपन को भी दर्शाता है और उसके दार्शनिक रवैये को भी दिखाता है।

उपन्यास में बाकी किरदार भी कथानक के हिसाब से फिट हैं। डिंपल श्रेष्ट का किरदार रोचक है। विशेषकर उसके शादी को लेकर विचार। वैसे ऐसे विचार कभी ग्राहम ग्रीन नाम के लेखक के भी थे। इसलिए मुझे इस बात का यकीन करने में परेशानी नहीं हुई कि ऐसे बेतुके ख्याल भी कोई रख सकता है।

उपन्यास में पुलिस के भी कई रूप देखने को मिलते हैं। पुलिस के विषय में सुधीर कोहली और सुगन्दा की एक बातचीत का जो मुझे रोचक लगी और जो उपन्यास में आये पुलिस वालों के किरदारों को भी दर्शाती है:

"कमाल है!"-वो नेत्र फैला कर बोली-"पुलिस भी उन लोगों की मदद कर रही है।"

"आजकल के पुलिस वाले जरदारों की ड्योढ़ी के कुत्ते बने हुए हैं; उनके फेंके टुकड़े खाते हैं, उनका मैला चाटते हैं और उनके इशारे पर गरीब गुरबा पर जुल्म ढाते हैं। इसीलिये पुलिस को गुण्डों की आर्गनाइज्ड फाॅर्स का नाम दिया गया है।"

"ऐसे मुल्क का निजाम कैसे चल सकता है?"

"चल रहा है। इसलिए चल रहा है क्योंकि पाँचों उँगलियाँ बराबर नहीं होतीं। क्योंकि टोटल पुलिस फाॅर्स करप्ट नहीं हो सकती। जहाँ कोयला होता है वहाँ हीरा भी होता है; जहाँ कीचड़ होता है वहाँ कमल भी होता है। जब सब कोयला हो जायेगा या सब कीचड़ हो जायेगा तो प्रलय आ जायेगी।"


अंत में यही कहूँगा कि बाज़ी मुझे पसंद आया। रहस्य और रोमांच के मामले में यह आपको पूरी तरह संतुष्ट करता है। कथानक घुमावदार और तेज रफ्तार है। कहानी एक जगह से बढ़ती तो है लेकिन फिर इसमें दूसरे पहलु भी जुड़ जाते हैं जिससे कथानक ज्यादा रहस्यमयी हो जाता है। सुधीर इन रहस्यों के उलझे हुए धागों को किस तरह सुलझाता है यह देखना रोचक रहता है। हाँ,मेरे लिए अंत तक आते आते कातिल का अंदाजा लगाना आसान हो गया था। लेकिन कातिल ने कैसे और क्यों इन सब कामों को अंजाम दिया वह तभी पता लगता है जब सुधीर कातिल से मुखातिब होता है। इसलिए उपन्यास के मनोरंजन में कमी नहीं आती है।

सुधीर कोहली एक एंटी हीरो है। वह धर्मात्मा नहीं है लेकिन फिर भी वह अपने पेशे के प्रति ईमानदार है। अगर आप एंटी हीरो की कहानी पढ़नी पसंद करते हैं तो आप इस उपन्यास का लुत्फ़ उठा सकते हैं लेकिन अगर आपको ऐसे किरदार से कोफ़्त होती है तो शायद आप उपन्यास का उतना लुत्फ़ न उठा पाए।

रेटिंग: 4/5

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4 Comments
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  1. उम्दा समीक्षा। बहुत साल पहले पढ़ा था ये उपन्यास, यादें ताज़ा हो गई।

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    1. आभार, हितेश भाई। उपन्यास वाकई मनोरंजक है। यह उपन्यास एक से अधिक बार पढ़े जाने लायक है।

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  2. बहुत बढ़िया समीक्षा. मुझे भी ये नावेल बहुत पसंद आया.
    तस्कीन अहमद

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