नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

साक्षात्कार: अरविन्द सिंह नेगी

परिचय:

अरविन्द सिंह नेगी जी  उत्तराखंड रुद्रप्रयाग जिले के एक छोटे से गांव तड़ाग से हैं। वह एक अंतर्मुखी स्वभाव के व्यक्ति हैं। उन्होंने अपना बचपन गाँव के बजाय शहरों में अधिक बिताया है। लेकिन अब वह शहरों की शोर शराबे वाली दुनिया से वापस गाँव में आ चुके हैं।

कहानी/कविता लेखन के अलावा उन्हें फोटोग्राफी, वीडियोग्राफी, फिल्म निर्माण, वीडियो एडिटिंग भी बेहद पसंद है। उन्होंने एक गैर सरकारी संस्था में कुछ साल तक फोटोग्राफी भी की है। अलबेला किताब का ट्रेलर वाला वीडियो उन्होंने खुद एडिट किया था। (विडियो आप अलबेला के फेसबुक पृष्ठ में देख सकते हैं: अलबेला  फेसबुक)

जब वह लिख नहीं रहे होते हैं तो फिल्में देखते हैं और किताबें पढ़ते हैं। फिल्मो की बात करें  तो उन्हें हर प्रकार की फिल्में पसन्द है बशर्ते कहानी अच्छी हो। कोरियन,जापानी, फ्रेंच और ब्रिटिश सिनेमा  एनिमेशन, कॉमेडी, फिलॉसोफिकल, एडवेंचर आदि की हर प्रकार की फिल्में/tv सिरीज़ उन्होंने देखी है। उन्होंने बहुत सी चीज़े फिल्मों से ही सीखी हैं। बॉलीवुड की बात करें तो उन्होंने बॉलीवुड की पुरानी क्लासिक फिल्मे ज्यादा पसंद है।

संगीत के मामले में भी वही रवैया है।पुराने हिंदी सदाबहार गानों को ज्यादा सुनना पसंद करते हैं।

किताबों की बात की जाए तो प्रेमचंद, शरतचंद, देवकीनंदन खत्री, राहुल सांकृत्यायन जैसे क्लासिक लेखकों के उपन्यास/कहानियाँ उनकी पहली पसंद है। हालाँकि,  नए लेखकों को भी वो गाहे बगाहे पढ़ लते हैं।हाँ, आजकल गल्प से ज्यादा कथेतर साहित्य की तरफ उनका ज्यादा रुझान है।


अरविन्द सिंह नेगी जी से आप निम्न माध्यमों से सम्पर्क स्थापित कर सकते हैं:
ईमेल: arvinsngh09@gmail.com
फेसबुक: Arvind Singh

उनके उपन्यास आप निम्न लिंक से मँगवा सकते हैं:
अलबेला

एक बुक जर्नल की साक्षात्कार श्रृंखला का यह दूसरी कड़ी है। इस बार मैं आपके समक्ष अरविन्द सिंह नेगी जी का साक्षात्कार लेकर आ रहा हूँ। अरविन्द सिंह नेगी जी का साक्षात्कार लेने की चाह के पीछे मेरे कुछ अपने कारण थे।

पहला कारण तो यही ही था कि अरविन्द सिंह जी गढ़वाल के हैं और मैं भी उधर का ही हूँ तो एक तरह की आसक्ति का होना स्वभाविक है।लेकिन अरविन्द सिंह जी की ख़ास बात यह भी है कि ऐसे समय में जबकि  पहाड़ पलायन का दंश झेल रहा है, मैं भी एक प्रवासी पहाड़ी ही हूँ,  अरविन्द सिंह जी ने शहर से गाँव की तरफ जाने का फैसला किया। यह कदम प्रेरक है। वह गाँव में रहकर न केवल रोजगार कर रहे हैं लेकिन साहित्य रचना भी कर रहे हैं। ऐसा संयोजन कम ही देखने को मिलता है।

फिर आजकल जहाँ बाज़ार में आने वाले अधिकतर हिन्दी उपन्यास कुछ ही विषयों के इर्द गिर्द सिमट गए हैं वहीं अरविन्द जी का लिखा उपन्यास एक ताज़ा हवा के झौंके की तरह आया है। एक नए विषय, नए कालखण्ड को केंद्र में रखकर लिखने का उन्होंने प्रयास किया है।

इन्हीं सब वजहों के कारण मैं अरविन्द सिंह जी से बातचीत करना चाहता था। अब वह बातचीत आपके समक्ष प्रस्तुत है। उम्मीद है आपको पसंद आएगी।


प्रश्न:  सबसे पहले तो आप अपने विषय में पाठको को बताएं? आप मूलतः किधर के रहने वाले हैं? पढ़ाई किस विषय में की है? किन किन शहरों में रहे हैं? इन शहरों का आपके ऊपर क्या असर पड़ा है?
उत्तर: विकास जी आपकी ही तरह मैं भी  गढ़वाल उत्तराखंड के सबसे छोटे जिले रुद्रप्रयाग से हूँ। मैंने बी ए मास कम्युनिकेशन किया है। पिताजी फारेस्ट डिपार्टमेंट में  कार्यरत  थे (अब सेवानिवृत हो चुकें हैं) तो मेरा बचपन  उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड  के अलग-अलग शहरों में बीता। जब में छोटा था यानि की  पाँच-छह साल का रहा होऊँगा तो पिताजी मुझे अपने साथ मुजफ्फरनगर  ले गये और गाँव की दुनिया से दूर शहर से मेरी शिक्षा-दीक्षा शुरू हुई। फिर  पिताजी का ट्रांसफर  मेंरठ में हो गया, जहाँ मैंने एक कान्वेंट में जिंदगी के कुछ साल गुजारे, फिर  करीब तीन साल बाद हम उत्तराखंड के भीमताल आ गये,जहाँ  सरस्वती शिशु मंदिर से मैंने पढ़ाई जारी रखी। कितना विरोधाभासी हे न ? पहले कान्वेंट फिर शिशु मंदिर ? उसके बाद हम रामनगर आ गये और फिर अंत में बागेश्वर से  बाहरवीं की।

अलग-अलग जगहों का मेरे ज़हन पर बहुत ही अच्छा और मनोविज्ञानिक प्रभाव पड़ा। नई -नई  भाषा और उनके लहजे समझ में आने लगे, चर्च  की प्रार्थनाओं से लेकर संस्कृत के  श्लोकों का मतलब समझ आने लगा, नए लोगों और उनकी सोच से परिचित होकर लगा कि  इस दुनिया में कोई भी बुरा नहीं है सब अपने अपने तरीके से बस उसी एक परम तत्व की खोज कर रहे  हैं। हालाँकि भाषा और तरीके अलग हैं लेकिन गलत नहीं हैं, आखिर सबकी मंजिल एक ही है।

उसके बाद में उच्च शिक्षा के लिए मैं देहरादून आ गया। वहाँ मैं इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी की शिक्षा से लिए गया था लेकिन दो ही सेमेस्टर के बाद  मैंने  कंप्यूटर लैंग्वेज को  अलविदा कहकर  मास  कॉम में दाखिला ले लिया। लेकिन फिर मीडिया की बनावटी दुनिया में अपने को असहज सा पाया और फोटोग्राफी को चुना। कुछ साल फोटोग्राफी करने के बाद अचानक से  मुझे लगा कि ये सब तो ठीक है लेकिन मुझे कुछ और ही करना है और इस तरह साहित्य में मेरी रूचि फिर जाग उठी  और लिखना शुरू कर दिया।

प्रश्न: अरविन्द जी आप शहर से गाँव की तरफ आये हैं। पलायन गाँवों की समस्या है। ऐसे में गाँव में रोजगार के मुद्दे पर आप क्या सोचते हैं?(प्रश्न फेसबुक में आदित्य वशिष्ठ जी ने पूछा था।)
उत्तर: उत्तराखंड में रोजगार के प्रमुख दो ही साधन है । खेतीबाड़ी और पर्यटन।

खेतीबाड़ी में किसान पहले से ही जंगली जानवरों के आतंकका पीड़ित है। पड़ोसी राज्य भी अपने यहाँ से बंदरों को पकड़ कर यहां छोड़ रहे है जिस कारण किसान फसल उत्पादन में आ रही कमी की वजह से पलायन करने में मजबूर हो रहे है। सरकार को इस विषय मे कदम उठाने चाहिए।

रोजगार का दूसरा  विकल्प पर्यटन को बढ़ावा दे कर खुल सकता है। राज्य को इस विषय में ही सोचना चाहिए। रोजगार की ऐसी ही नीति सभी राज्यों के गाँवों में लगाई जा सकती है। सभी की कुछ न कुछ खूबी है। बस उसे उभारने की जरूरत है। युवाओं को भी इस दिशा में मेहनत करनी होगी। 

प्रश्न:   अरविन्द जी! किस्से कहानियों से आपका जुड़ाव कैसे हुआ? क्या बचपन में आप किस्से कहानियों के प्रति आकर्षित होते थे? अगर हाँ,तो ऐसी कौन से लेखक हैं जिन्होंने आपको सबसे ज्यादा आकर्षित किया?
उत्तर: गर्मी की छुट्टियों में जब हम घर जाते थे तो मेरी दादी हमें  ढ़वाली लोक कथा सुनाती थी और जब में वापस शहर जाता था तो में उन कहानियों को अपने दोस्तों को सुनाता था। फिर थोड़ी समझ बढ़ी तो लिखना शुरू किया। मुझे आज भी याद है जब मैंने प्रेमचंद जी की कहानी 'पंच परमेश्वर' पढ़ी थी उसका मुझपर बहुत प्रभाव पड़ा। फिर उसके बाद 'नमक का दरोगा' पढ़ी। प्रेमचंद को पढ़ते पढ़ते मुझे न सिर्फ प्रेमचंद बल्कि कहानियों से प्रेम हो गया। उसके बाद लियो टोलोस्टॉय और पाउलो कोहेलो ने काफी प्रभावित किया, कविता की बात करे तो सुमित्रानंदन पन्त  और अपने स्थानीय  कवी चन्द्र कुँवर बर्त्वाल से मैंने प्रक्रति से प्रेम करना  सीखा। 


प्रश्न:  अरविन्द जी आपकी पहली कहानी  'अलबेला' हिम युग की पृष्ठ भूमि पर लिखी गयी है। आपको इस कहानी को लिखने का ख्याल कैसे आया? क्या आप अपने पाठकों के साथ उस कहानी को साझा करना चाहेंगे?


अलबेला 
उत्तर:  'अलबेला' को में पाषाण काल की पृष्ठभूमि में रखना चाहता था लेकिन इसे हिमालय में कहीं दर्शाना था और हिमालय में तो हमेशा बर्फ ही होती है। तो यह हिमयुग की दास्तान बन गयी। 

'अलबेला' कहानी  एक ऐसे लड़के की है जो बहुत सवाल करता था। जब उसने जवाब खोजने शुरू कर दिए तो लोगों  ने उसका शुरू में तो बहुत विरोध किया, क्योंकि उनके हिसाब से वो उस समाज में फिट नही होता था, लेकिन जैसे जैसे उसकी तरकीबें काम आने लगी वैसे वैसे लोग उसे समझने लगे।और उसके साथ हिमयुग की इस क्रांति कथा का हिस्सा बनने लगे।
   
कहानी को विस्तार से तो नहीं बता सकता लेकिन संक्षेप में इतना कहूँगा की ये उस आदमी की कथा है जिसने खुद पे भरोसा किया और अपनी दुनिया को बदलने की कोशिश करी। इसकी प्रेरणा मुझे उन लोगों को पढ़कर मिली जिन्होंने सच में इस दुनिया को बदला था जैसे गेलिलियों , बुध, निकोला टेस्ला या फिर लिओनार्डो डी विंची इत्यादि। अलबेला में सबका समावेष है। वह भी  बस कोशिश कर रहा है मानवता को एक नई दिशा देने की। साथ ही मुझे रोमांच और कल्पनायें करना शुरू से ही पसंद था तो मैंने इस कहानी को थोड़ा रोमांचक रंग दे डाला ताकि पाठक ऊब न जाएँ। 

प्रश्न: चूंकि आपके पहले उपन्यास का कथानक वर्तमान में न होकर पुरातन काल पर आधारित हैं तो क्या आपने अपने कथ्य को यथार्थ के नजदीक लाने के लिए कुछ शोधकार्य किया था? लेखक के रूप में आप शोध को कितना जरूरी मानते हैं? 
उत्तर: शोध बहुत जरुरी होता है। बिना शोध के कुछ भी लिखना ऐसा है जैसे बिना आत्मा का कोई  शरीर। हाँ, हर चीज़ में मेहनत जरुरी है और वही मेहनत मैं अपने पाठकों को शब्दों के रूप में परसोता हूँ। 



प्रश्न:  अरविन्द जी,  जब आप उपन्यास लिखते हैं तो, उस वक़्त आपके मन में क्या चलता है ?  आपका धेय क्या होता है?  क्या आप केवल मनोरंजन के लिए लिखते हैं या समाज कि विसंगतियों को ध्यान में रखकर अपने विचारों को अपनी लेखनी से प्रकट करते हैं। 
उत्तर: जब भी मैं कुछ लिखता हूँ, तो मेरा प्राथमिक उद्देश्य पाठकों का मनोरंजन ही होता है । उसके पीछे कारण ये भी होता है कि, मैं जबरदस्ती की शिक्षा किसी पर थोपना नहीं चाहता। और ना ही मैं जबरदस्ती का ज्ञान बाँटने की कोशिश करता हूँ।मैं कोई  बड़ा लेखक या पूरी तरह से परिपक्व व्यक्ति नहीं हूँ। अभी खुद सीख रहा हूँ।  

फिर भी मेरा जो दूसरा उद्देश्य होता है वो थोड़ा गुप्त होता है।वो होती है उस रचना की आत्मा जिसमें वो बात छुपी होती है जो मैं असल में कहना चाहता हूँ।जो चीज़ कहानी में माध्यम से मैं कहना चाहता हूँ , वो बहुत सटल(subtle) तरीके से कहानी में मौजूद होता है।अगर कहानी ध्यान से पढ़ जाए तो, वो बात पाठकों को उजागर हो ही जाती है। मैं स्पून फीडिंग नहीं करना चाहता। यह पाठकों को ऊपर होता है कि वह उसका क्या अर्थ निकालते हैं। 

प्रश्न: अरविन्द  जी आपका यह उपन्यास पुराने कालखण्ड में घटित होता है? क्या आप सम-सामियक मुद्दों को लेकर भी कुछ लिखने का विचार कर रहे हैं?
उत्तर: वर्तमान के मुद्दों पर भी एक उपन्यास लिखा गया है जो ९० प्रतिशत तक पूरा है। परन्तु चूँकि उसका क्लाइमेक्स मुझे जँच नहीं रहा है इसलिए इस पर बाद में काम करने की सोची है। 

मैं  अपनी कोई रचना तब तक नहीं छपवाता जब तक मेरी आत्मा मुझे उसकी इजाज़त नही दे देती। अलबेला २ भी पूरी हो चुकी है लेकिन कई बार के सम्पादन के बाद भी मन संतुष्ट नही हो पा रहा। प्रकाशक तक को भी अभी मैंने कोई ड्राफ्ट नही भेजा, जब तक खुद को कोई चीज़ पसंद नही आ जाती मैं उसे अपने तक ही सीमित रखता हूँ। 


प्रश्न:  कहा जाता है कि किताब लिखना तो आसान है, पर उसे छपवाना टेढ़ी खीर है। आपकी यह पहली किताब थी। प्रकाशन की प्रक्रिया को आप किस तरह देखते हैं? एक नया लेखक,जो अपनी किताब छपवाने को आतुर है, उसे आप इस विषय में क्या सलाह देंगे?
उत्तर: एक साल तक मेहनत  करने के बाद जब मैंने पहली किताब लिख कर पूरी कर दी थी तो मुझे उम्मीद थी की मुझे प्रकाशकों से पैसे मिलने वाले हैं लेकिन मै गलत था। उल्टे वो ही वो लोग मुझसे पैसा मांगने लगे। कोई १५ हज़ार तो कोई २० हज़ार की मांग करने लगा।फिर मैंने खुद के  १५, २० हज़ार ख़र्च करके इस किताब में एडिटिंग करवाई। २० चित्र बनवाए, कवर बनवाया ( पुराना वाला ) और सेल्फ पब्लिश करने के लिए  उत्तराखंड से दिल्ली तक गया। लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। संयोग से फ्लाईड्रीम पब्लिकेशन से संपर्क हुआ और ये किताब छप गयी। 

नए लेखकों को यही सलाह दूंगा कि,  किताब छपवाने कि जल्दबाज़ी बिल्कुल न करें । आजकल के दौर में छपना कोई बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात है ,कहानी में दम होना। अगर आपकी कहानी अच्छी है तो दुनिया की कोई भी ताकत उसे बुरा नही बोल सकती।
   
सबसे पहले अपना बेस मजबूत करे, कहानी लेखन की प्रक्रिया समझें। जरुरी नहीं की बड़े-बड़े शब्द सीखे , साधारण शब्द  भी कभी कभी बड़ा अर्थ रखते हैं, मैंने ऐसे कई नये लेखको को पढ़ा है जिनके  शब्द तो बहुत बड़े होते हैं लेकिन अर्थ साधारण। इससे तो अच्छा है सरल शब्दों में एक ऐसी कहानी लिखने की कोशिश  करो जिसमें वास्तव में कोई सार हो, कोई आत्मा हो। 


प्रश्न: अरविन्द जी  क्या आप किसी अन्य उपन्यास पर काम कर रहे हैं? अगर हाँ, तो क्या आप हमारे पाठकों को उस उपन्यास के विषय में कुछ बता पाएंगे?
  उत्तर: जी नैनवाल जी ! अभी मैं अलबेला के दूसरे भाग के अलावा एक अन्य उपन्यास पर काम कर रहा हूँ। जिसका शीर्षक है 'गल्पकार' ये एक लेखक के जीवन पर आधारित(काल्पनिक) उपन्यास है। इसमें आपको 90 के दशक की एक बहुत ही खूबसूरत प्रेम कहानी पढ़ने को मिलेगी। उपन्यास का पहला ड्राफ्ट लगभग पूरा हो चुका हैं। अलबेला 2 के पूरा होते ही मैं उसे पूरा करूँगा। और साथ ही मैं अपने ड्रीम प्रोजेक्ट 'माधो सिंह भंडारी' पर भी काम कर रहा हूँ जो कि ऐतिहासिक गल्प  होगा। माधोसिंह मेरा पहला उपन्यास भी है, मैंने इसी उपन्यास के साथ लेखन शुरू किया था। लगभग 3 सालों से उसपर काम करता आया हूँ, लेकिन फिर  तथ्यों की कमी और उचित रिसर्च न होने के कारण बीच मे ही लिखना छोड़ दिया था।
अलबेला के तीन भाग और गल्पकार के बाद मैं माधो सिंह पर काम करूंगा।

प्रश्न:  अंत में अरविन्द जी मैं चाहता हूँ इधर मैं आपसे कुछ प्रश्न नहीं करूँगा। अपितु मैं आपसे यह गुजारिश करूँगा कि क्या उपरोक्त सवालों के अलावा आप अपने पाठकों से कुछ कहना चाहेंगे? कुछ भी। वह आप कहिये। 
उत्तर: पाठकों से बस इतना कहना चाहता हूँ कि नये लेखको को भी मौका दे , आजकल बहुत सी नई प्रतिभाएं दम तोड़ रही हैं क्यूंकि उनको वो अटेंशन वो सम्मान नही मिल पा रहा जिसके वो हक़दार हैं।  

यह साक्षात्कार आपको कैसा लगा? अपने विचारों से मुझे जरूर अवगत करवाइयेगा।

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ब्लॉग में मौजूद दूसरे साक्षात्कार आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
साक्षात्कार




© विकास नैनवाल 'अंजान'

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10 Comments
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  1. वाह विकास नैनवाल जी ,आपने बहुत बढिया साक्षात्कार लिया, अरविन्द जी ने बढ़िया उत्तर पढने को मिले । आपका प्रयास सराहनीय है ।

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  2. बहुत बहुत धन्यवाद इस साक्षात्कार के लिए क्योंकि इसकी मदद से युवावर्ग के काफी लेखकों के मन मे उठे रहे कई सारे सवालों के जवाब मिलेंगे अपितु बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। मैं विकास भाई का भी शुक्रमन्द हूँ कि इस तरह नए लेखकों को मंच प्रदान कर के स्वर्णिम अवसर दे रहे हैं जिस से वह अपनी बातों को सीधे पाठकवर्ग तक आसानी से पहुंचा रहे हैं।

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    1. आभार देव भाई। ब्लॉग पर आते रहिएगा।

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  3. बहुत बढ़िया साक्षात्कार

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  4. साक्षात्कार लेने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद विकाश भैजी। आशा करता हूँ कि आप भविष्य में भी ऐसे प्रयासकरते रहेंगे और नए नए लेखकों को पाठको से अवगत करवातेरहंगे।

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    1. बातचीत करने के लिए आभार। मुझे उम्मीद है पाठकों को काफी कुछ जानने को मिलेगा। आपके अगले उपन्यास का इन्तजार है।

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  5. अरविंद सिंह नेगी का साक्षात्कार पढ़ कर बहुत अच्छा लगा। उनके जीवन में शहर से गांव जाना मुझे प्रभावित कर गया। कई बार सोचता हूँ कि किसी पहाड़ पर रहूं। ईश्वर ने मेरे हाथों में लिखा होगा तो जरूर किसी पहाड़ पर रहूंगा।

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