नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

द ज़िन्दगी - अंकुर मिश्रा

किताब नवम्बर 25,2018 से नवम्बर 29,2018 के बीच पढ़ी गई

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक
पृष्ठ संख्या: 90
प्रकाशक: सूरज पॉकेट बुक्स
आईएसबीएन: 9789388094085

द ज़िन्दगी - अंकुर मिश्रा
द ज़िन्दगी - अंकुर मिश्रा


द ज़िन्दगी अंकुर मिश्रा जी की कहानियों का संग्रह है। यह  अंकुर जी की पहली किताब हैं। 'द ज़िन्दगी' को दो भागों में बाँटा गया है। पहले भाग में 6 कहानियाँ हैं और दूसरे भाग में 10 लघु-कथाएँ हैं। हर कहानी से पहले एक कविता है जो कि उस कहानी के विषय के प्रति इशारा कर देती है।

किताब का नाम और आवरण किताब में मौजूद सामग्री के विषय में काफी कुछ कह जाता है। अक्सर कहानी संग्रह का शीर्षक संग्रह में मौजूद किसी कहानी का शीर्षक ही होता है। मैंने तो अब तक ज्यादातर यही देखा है परन्तु इस कहानी संग्रह के मामले में ऐसा नहीं है। इस किताब में ज़िन्दगी के विभिन्न पहलुओं को दर्शाते किस्से और कहानियाँ हैं। कुछ में सुख है तो कुछ में दुःख है और इस तरह ज़िन्दगी का हर स्वाद इन्हें पढ़ते हुए मिलता है। यही चीज किताब के आवरण को देखने पर भी पता चलती  है।

आवरण में शहरी जीवन और ट्रैफिक जाम दिख रहा है।  दफ्तरी कागजातों की बारिश में भीग रहा एक आदमी दिख रहा है। शहर को देखते और एक दूसरे का हाथ थामे एक नवयुगल दिख रहा है जो शहर को ताक रहा है। वो साथ मिलकर शहर से लड़कर अपनी ज़िन्दगी सँवारने की जद्दोजहद करने के लिए तैयार होते से प्रतीत होते हैं।
यह तो हुई बाहरी साज सज्जा की बात। अब किताब की सामग्री की बात करते है।

भाग एक में  निम्न कहानियाँ  हैं।

1) अभी ज़िंदा हूँ मैं

पहला वाक्य:
आज ऑफिस से निकलते-निकलते नीलेश को फिर देर हो गई।

आज के आधुनिक जीवन में हम अपनी सम्वेदनाएँ खोते जा रहे हैं। ऑफिस और जीवन की चक्की में आदमी इतना पिस जाता है कि उसकी आम इनसानी संवेदनशीलता निचुड़ सी जाती है। बचा रहता है तो केवल एक रोबोट जो इनसान खाली घर के चौखट के अन्दर आने पर ही बनता है। अपनी इनसानियत को बचाने की जद्दोजहद ही इस कहानी में दिखती है। कहानी मुझे पंसद आई।


2) लाल महत्वाकांक्षाएं

पहला वाक्य:
उसने अपनी छोटी-छोटी आँखें खोली।

जैसे जैसे उपभोगता वाद बढ़ा है हमारी इच्छाएं भी बड़ी है। हम हर चीज पाना चाहते हैं। इसी दौड़ में हम लगे हुए है और दौड़ते दौड़ते इतने आगे निकल जाते हैं कि हमारे लिए जो जरूरी है उसकी भी आहुति दे देते हैं। इस बात को यह कहानी बाखूबी दर्शाती है।

इसके अलावा आजकल एकल परिवार का चलन भी बढ़ा है। पहले परिवार में लोग साथ रहते थे तो  एक दूसरे की मदद हो जाती थी लेकिन एकल परिवार ने दम्पति को अकेला अलग थलक कर दिया है। यह बात भी इस कहानी से दृष्टिगोचर होती है।

यह कहानी भी मुझे पसंद आई। किरदार जीवंत हैं और अपने में या अपने आस पास अगर हम देखें तो ये किरदार हमे आसानी से दिख जायेंगे।

3) इश्क ऐसा भी

पहला वाक्य:
मैं आज फिर लड़खड़ाता, बोतल में डूबता उतरता, कोठे नम्बर 117 के कमरा नम्बर 23 पर पहुँचा और ज़ोर-ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाने लगा।

इश्क को अक्सर हम खांचों में बाँध देते हैं लेकिन इसके अनेक रूप हैं। इश्क के ऐसे ही रूप को इस कहानी में देखा जा सकता है।

कहानी में कॉलेज का लड़कपन का हिस्सा भी आता है जो कि रोचक है। यह रोमांचक है लेकिन कहानी के बीच में अटपटा लगता है। यह इसलिए भी ज्यादा अलग लगता है क्योंकि दोनों हिस्सों की टोनालिटी एकदम अलहदा है। कॉलेज वाला किस्सा जहाँ रोमांचक है वहीं वर्तमान का किस्से में दर्द ज्यादा है।

इसके अतिरिक्त पहले मुझे समझ नहीं आया कि मुख्य किरदार एक ही लड़की के पास क्यों जाता था? लेकिन शायद वह भी इश्क में था।


4) आत्महत्या
पहला वाक्य:
उसके मन में अजीब सी उहापोह थी।

हमारे समाज में अक्सर गलती औरत की ही निकाली जाती है। चाहे कुछ भी हो, भले भी इसमें उसकी गलती न हो लेकिन उसे ही इस बात का दोषी ठहराया जाता है। इसी बात को बड़ी मार्मिक तरह से इस कहानी में उकेरा गया है। कई बार यह बात इतने बार बोली जाती है कि उस औरत को भी यह बात सच लगने लगती है। यहाँ भी हमे कुछ ऐसा ही दिखता है। कहानी का अंत मुझे पसंद आया।

5) वो कुछ अजीब सा था

पहला वाक्य:
वह थोड़ा, नहीं थोड़ा नहीं, ज्यादा अजीब था।

यह एक मर्मस्पर्शी कहानी है। कई बार आम से दिखने वाले लोग अपने अन्दर कितना दुःख लेकर जी रहे होते हैं हमे पता ही नहीं लगता। दिल को छू लेने वाली कहानी।


6) घुटन

पहला वाक्य:
मोहित दफ्तर से निकला।

कई लोग आजकल नौकरी में घुट घुट के जी रहे हैं। यह बात साफ़ दिखती है। परिवार की जिम्मेदारी,लोन इत्यादि काफी हो जाते हैं कि आदमी को एक टॉक्सिक वातावरण में काम करने को मजबूर होना पड़ता है।

मेरा अभी का वातावरण तो ठीक है लेकिन पहले ऑफिस में एक दो लोग ऐसे थे जिन्हें ताकत मिली थी तो वो अपने मातहतों को अपना गुलाम ही समझते थे। ऐसे में मोहित जिस चीज से गुजर रहा है वो मैं समझ सकता हूँ। मेरे ऊपर कोई जिम्मेदारी नहीं थी इसलिए मैं सुनता नहीं था, पलट कर जवाब दे देता था लेकिन मोहित जैसे कई लोगों को मैंने  देखा है। यह घुटन एक तरह से संस्था  के लिए भी खराब ही होती है क्योंकि इससे आदमी की उत्पादकता पर असर पड़ता है।

वही आदमी होना भी कई बार कठिन हो जाता है। आपको अपने भय,अपनी कमजोरियाँ व्यक्त नहीं करनी होती हैं क्योंकि आपको पता है आपको सहारा बनना है। ऐसे में आदमी अपने भावों को तो व्यक्त नहीं कर पाता है और यह भावनाएं दब दब कर उसकी मानसिक सेहत पर असर डालने लगती है। यह चीज भी हम इस कहानी में देखते हैं।

सुन्दर कहानी। अंत मुझे पसंद आया।


किताब के दूसरे भाग में दस लघु कथाएँ हैं। मैंने यह लघु-कथाएँ काफी जल्दी जल्दी ही पढ़ ली थी। इस भाग में मौजूद लघु-कथाएँ निम्न हैं:


1)फिजूलखर्ची

पहला वाक्य:
वे बड़े आदमी थे, बहुत बड़े।

आजकल के समाज का यह सच है। हम भाग दौड़ में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि रिश्ते कहीं दूर छूट जाते हैं। हम वरीयता किसे देते हैं यह इस बात पर निर्भर करता है। लेकिन कई बार कुछ चीजें ऐसी हो जाती हैं जो हमारे हाथ में नहीं होती हैं।

मुझे नहीं पता कि मैं इस लघु कथा से कहाँ तक सहमत हूँ। कई बार अच्छे लोगों की भी अपनी मजबूरी होती है।

इसमें भी एक रिश्ते का उल्लेख है जिस पर हुए खर्चे को लेखक ने फिजूलखर्ची कहा है। परन्तु एक ही घटना पाठक के तौर पर हमे पता चलती है। उस रिश्तेदार का व्यवहार कैसा था? क्या सच में उसकी मजबूरी  थी या वो पहले से ही ऐसा था? यही सब प्रश्न मेरे दिमाग में इसे पढ़कर उठ रहे थे। मुझे लग रहा था जैसे हमने बहुत जल्दी में रिश्तेदार के खिलाफ मन बना लिया था। अगर इस घटना से पहले भी कुछ और घटनाओं के विषय बताया गया होता तो शायद बेहतर होता।


2) बरसाते और भी हैं

पहला वाक्य:
आज मौसम खुशनुमा था।

मौसम का खुशनुमा होना जेब में मौजूद दमड़ी पर निर्भर करता है। इस बात जो बड़ी बखूबी से लेखक ने दर्शाया है। मर्मस्पर्शी कहानी।

3) नारी

पहला वाक्य:
जब भी उसको देखो चाहे कमी में या इफरात में, वो ऐसी ही रहती है, झूठी संतुष्ट सी या फिर एक आवरण ओढ़े हुए।

इसे मैं कथा नहीं कहूँगा। एक पितृसत्तात्मक समाज में नारी की दशा का मर्मस्पर्शी  विवरण है।



4) चुनाव

पहला वाक्य:
मालिक साहब मेरे पड़ोसी हैं।

अक्सर हमें अधिकार तो चाहिए होते हैं लेकिन जिम्मेदारी से हम बचने की कोशिश करते हैं। हम नेताओ को दिन भर गाली तो देते हैं लेकिन सही नेता का चुनाव नहीं करते हैं। इसी बात को यह लघु कथा दर्शाती है। मुझे पसंद आई।

5) द्विसंवाद

पहला वाक्य:
देखो राहुल को समझाओ, आज फिर स्कूल नहीं गया।

यह एक रोचक लघु-कथा थी। अक्सर पढ़ाई के विषय में यह सोच रही है कि यह अमीरों के लिए आवश्यक है और गरीबों के लिए नहीं जबकि गरीबो के पास उठने का केवल यही जरिया होता है। परन्तु अमीर लोग ऐसा नहीं सोचते।

यही फर्क बेटा और बेटी में भी दिखता है। इधर भी आखिर में बेटी को ही पढ़ाई से हटाया जाने को बोला जाता है।

मैं उस वक्त यही सोच रहा था कि क्या जिसकी बेटी के विषय में बात हो रही है उसका बेटा नहीं था और अगर था तो उसे क्यों नहीं हटाने की बात हुई।

इस छोटी सी ही कथा में लेखक ने दोनों ही बिंदु  उठाएं हैं। मुझे यह पसंद आई।

6) गलत-सही

पहला वाक्य:
आज मैं जल्दी में था।

शहरी जीवन हमे कठोर बना देता है। लोग हमे ठगने को ऐसे तैयार रहते हैं कि हम अब जब भी किसी जरूरतमंद को देखते हैं तो मन में पहला ख्याल यही आता है कि जरूर यह फायदा उठाने के लिए कर रहा है। कई बार यह ख्याल सही होता है लेकिन जब गलत होता है तो कोई न कोई जरूरतमंद खाली हाथ रह जाता है। ऐसी ही एक घटना को लेखक ने लघु कथा के माध्यम से उकेरा है। अच्छी लघु कथा।

7) जन्मदिन

पहला वाक्य:
"बेटा हैप्पी बर्थडे"-मनीष ने सैम को सुबह उठकर विश किया।

मनुष्य का स्वभाव ऐसा है कि उसे लगता है वह जो दूसरों के साथ कर रहा है वह उसके साथ कभी नहीं होगा। वह अपने माँ बाप के साथ भले ही अच्छा व्यवहार न करे लेकिन उम्मीद करता है कि उसके बच्चे उसके साथ अच्छा व्यवहार करेंगे। यह लघु कथा यही दर्शा रही है।  अच्छी लघु कथा है। नये तरीके से इस बात को प्रस्तुत किया है। बचपन में एक कम्बल वाली कहानी पढ़ी थी उसी की याद पढ़ते हुए आ गई।


8) संवेदनहीनता

पहला वाक्य:
आज बैंक में बहुत भीड़ थी।

सम्वेदनहीनता की पृष्ठभूमि नोट बंदी का वक्त है। कहानी का सार ये है कि आदमी कभी कभी पैसे की गर्मी के सामने इनसानियत को भूल जाता है। लेकिन जब वह पैसा उससे दूर होता है तो शायद वह अकड़ भी चली जाती है।

लघु-कथा के पीछे ख्याल तो अच्छा है लेकिन जिस बुनियाद पर इसे खड़ा किया है वह मुझे पसंद नहीं आया। शहरी जीवन में तनाव इतना है कि छोटी छोटी बात पर गुस्सा आ जाता है। मुझे याद है एक बार बस के कंडक्टर ने मुझे कुछ बोल दिया था तो मेरा मन उससे लड़ने भिड़ने को हो गया था। मैं लड़ भी गया था। कई बार मूड खराब रहता है और छोटी छोटी बात पर आदमी ओवररियेक्ट कर जाता है लेकिन वही आदमी दूसरे दिन किसी की मदद भी करेगा।

इसमें एक ही घटना को आधार बनाकर आदमी का चरित्र निर्धारित किया है। अगर निर्धारण दो तीन घटनाओं के बाद करते तो ज्यादा बेहतर रहता। मसलन बैंक के कर्मचारियों से व्यवहार, अपने ड्राईवर से व्यहवार इत्यादि। तब लघुकथा शायद  ज्यादा प्रभावशाली बन सकती थी क्योंकि वह असल में बदलाव होता।

वैसे नोट बंदी के विषय में बात बताऊं तो गुरुग्राम में ज्यादा पैसे वाले लोग लाइन में लग भी नहीं रहे थे। बाकायदा लाइन में लगने वाले किराए में आ रहे थे। आप उन्हें 200-300 रूपये दो और वो आपकी जगह पूरे दिन लाइन में लगे रहेंगे। बड़े लोगों को तो बैंक जाने की जरूरत भी नहीं थी।

9) दहेज

पहला वाक्य:
मैंने तो साफ कह दिया शर्मा जी से दहेज में हमे एक नया पैसा नहीं चाहिए।

 हाथी के दाँत खाने के और और दिखाने के कुछ और ही होते हैं। दहेज के मामले में कई बार यह कहावत चरित्राथ होती है। इसी पर लेखक ने इस लघु कथा के माध्यम से प्रहार किया है। एक अच्छी लघु-कथा।


10)तबादला

पहला वाक्य:
जाने किसकी वक्र दृष्टि पढ़ी मुझ पर कि कम्पनी ने मेरा तबादला घर से 750 किलोमीटर दूर कर दिया।

कहा जाता है जिस पर बीतती है वही दुःख समझ सकता है। इस लघु कथा का आशय भी कुछ ऐसा ही है। आदमी दूसरों की परेशानी के वक्त भले ही दार्शनिक जैसी बातें करने में सक्षम हो लेकिन जब खुद पर बात आती है तो यह दार्शनिकता गायब सी हो जाती है।
हाँ, लघु-कथा का टर्निंग पॉइंट उसी वक्त न होकर कुछ दिन बाद होता तो शायद ज्यादा तार्किक होता। ज्यादा कुछ न कहते हुए केवल यही कहूँगा कि जिसे एक के विषय में जानकारी होगी उसे दूसरे के विषय में भी पहले से ही जानकारी होगी। इसलिए अचानक से हुआ बदलाव शॉक तो पैदा करता है लेकिन अखरता है।


अंत में यही कहूँगा कि द ज़िन्दगी के माध्यम से अंकुर जी  रोज-मर्रा की ज़िन्दगी के बीच से कुछ किस्से चुनकर पाठको के समक्ष लाये हैं। आजकल हम लोग इतना भाग दौड़ कर रहे हैं कि इस भाग दौड़ में कई जरूरी चीजें पीछे छूट जा रही हैं। इन कहानियों को पढ़कर आप शायद अपना अक्स इसमे देखे और फिर सोचे कि हम लोग क्यों ऐसे जी रहे हैं और असल में हमे किसकी तलाश है।

एक पठनीय कहानी संग्रह जो कि आधुनिक  ज़िन्दगी के कई पहलुओ को कहानियों के माध्यम से उकेरता है। कहानियों के बीच-बीच में कई फलसफे लेखक ने दिए हैं जो कि दिल को छू जाते हैं और आपको सोचने पर मजबूर कर देते हैं। उन्ही में से कुछ पंक्तियाँ जो मुझे पसंद आई:

दरअसल कभी-कभी हम अपनी महत्वाकांक्षाओं को अपने जीवन में इतना महत्व दे देते हैं कि फिर चाह कर भी उनसे पीछा नहीं छुटा पाते। कुछ झूठी मरीचिकाओं में इतना फँस जाते हैं कि समझ ही नहीं पाते कि हमारा वर्तमान कदम हमारी ज़िन्दगी को कितना प्रभावित करेगा। हम खो देते हैं वर्तमान में हमारे सम्मुख मौजूद छोटी छोटी खुशियों को भविष्य के नामालूम बड़े बड़े सपनों के लिए।

यही विडम्बना है वर्तमान वक्त की। हम जिस उद्देश्य की प्राप्ति के सारे प्रयास कर रहे होते हैं, कहीं न कहीं वही खोता जा रहा है। मानो फलक की तलाश में तेजी से, और तेजी से दौड़ा जा रहा है व्यक्ति, पर फलक भला कभी किसी की पकड़ में आया है।....इस दौड़ में पहले व्यक्ति थकता है, फिर लड़खड़ाता है, और अंत में गिर जाता है पर दूरी कम नहीं होती है। मह्त्वाकक्षाएं बढ़ती जाती हैं, जरूरतें बढ़ती जाती हैं।

यही वास्तविकता है मानव स्वभाव की, कोई भी काम हमको सिर्फ तब तक बुरा लगता है जब तक हम खुद को वो काम करने का निर्णय नहीं ले लेते। अंत में हम तर्क ढूँढते हैं। हमारी विचारधारा से मिलते जुलते तर्क, हमारे कार्य-कलापों को उचित ठहराते तर्क और तर्क मिल जाने पर हमारी पहली कोशिश होती है कि इतने ज़ोर से चिल्लाया जाये कि बाकी सारे तर्,सारी ध्वनियाँ हमारी ध्वनि के आगे दब जाये।

आर्थिक रूप से आत्म निर्भर होना अपने आप में बहुत बड़ा हथियार है जिससे बड़ी से बड़ी समस्या का सामना किया जा सकता है।

कितने अच्छे होते हैं वो लोग जिनको बीच का रास्ता पता होता है,जीत जाना या हार कर मर जाना यही ज़िन्दगी तो नहीं, ज़िन्दगी तो इन सबसे उबर कर आने का नाम है। न हार स्थायी, न जीत।

वैसे तो यह लेखक का पहला संग्रह है लेकिन अंकुर जी कई विषयों को लगातार लिखते रहते हैं। यही कारण है उनकी लेखन के ऊपर पकड़ इस संग्रह में भी दिखती है। उम्मीद है वो जल्द ही कोई वृद्ध कथानक पढ़ने के लिए अपने पाठकों को देंगे।

मेरी रेटिंग : 3.5/5

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6 Comments
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  1. विकास जी धन्यवाद पुस्तक को अपना प्यार देने के लिए ।

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    1. शुक्रिया, अंकुर जी। उम्मीद है जल्द ही वृद्ध कथानक पढ़ने को मिलेगा।

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  2. वह विकास जी आपने पुस्तक के प्रति मेरी उत्सुकता जगा दी कई दिनों से इसे पढ़ना चाह रहा था, आज शाम को ही पढ़ता हूँ

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    1. शुक्रिया दिनेश जी। पढ़कर बताइयेगा कि आपको कैसी लगी?

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  3. सदैव की तरह रोचक समीक्षा ।

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