नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

वीर की विजय यात्रा - दिनेश चारण

रेटिंग : 3/5
उपन्यास 4 अगस्त 2018 से 8 अगस्त 2018 के बीच पढ़ा गया

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट : पेपरबैक
पृष्ठ संख्या : 130
प्रकाशक : सूरज पॉकेट बुक्स
आईएसबीएन :978193566107


पहला वाक्य:
घोड़े पर सवार वीरसेन आगे बढ़ रहा था।

वीरसेन को जब अपने ननिहाल से महाराज चित्रसेन का बुलावा आया तो वो बिना कोई देरी किये सुजानगढ़ के लिए निकल पड़ा। वीर को पता था कि महाराज ने अगर बुलाया है तो किसी जरूरी कार्य के लिए ही बुलाया होगा।

और कार्य सचमुच जरूरी था। काठवगढ़ कभी सुजानगढ़ के अधीन हुआ करता था। महराज जयसिंह महराज चित्रसेन की ओर से उस पर राज किया करते थे। लेकिन अब परिस्थिति जुदा थी। कासम खान और बिलाल खान, जिन्हें महराज जयसिंह ने आसरा दिया था,  ने आस्तीन का साँप बनकर जयसिंह को ही डस लिया था। उन दोनों ने एक षड्यंत्र रचकर जयसिंह को गद्दी से हटाकर खुद को काठवगढ़ का राजा नियुक्त कर दिया था।

और इसके साथ ही सुजानगढ़ से अलग होकर खुद को नया देश का दर्जा दे दिया था। उनके जुल्म से वहाँ की जनता परेशान थी।

और इसी चीज ने  महाराज चित्रसेन को परेशान किया था। वैसे तो वो काठवगढ़ पर हमला कर सकते थे और किया भी था लेकिन कासम खान ने ऐसी चाल चली थी कि महाराज को वापस होना पड़ा था।

अब महाराज को केवल एक ही उम्मीद की किरण नज़र आ रही थी। और वो था वीरसेन।

क्या वीरसेन महाराज की उम्मीदों पर खरा उतरा? 

क्या काठवगढ़ की समस्या को वीर सेन सुलझा पाया और यदि हाँ तो कैसे?

इस अभियान के दौरान वीरसेन के समक्ष कौन कौन सी विपत्तियाँ आई? और वीर ने इनका कैसे सामना किया?

इन्ही सब प्रश्नों के उत्तर आपको इस उपन्यास को पढ़ने में मिलेंगे।


मुख्य किरदार :
वीरसेन - एक देशभक्त युवक
चित्रसेन - सुजानगढ़ के महाराज
अमृत्यसेन - सुजानगढ़ के मंत्री और वीर के पिता
प्रद्युम्न - सुजानगढ़ के राजकुमार
स्वाति - सुजानगढ़ की राजकुमारी
शिवाचार्य - सुजानगढ़ के राजगुरु
कासम खान - काठवगढ़ राजा जिसने उधर का राज्य हथियाया था
बिलाल खान - कासम खान का चाचा
नसरीन - कासम खान की बहन
फातिमा - नसरीन की एक दासी
जगत - काठवगढ़ में मौजूद एक सैनिक
पंडित गोपालदास - काठवगढ़ के राज गुरु
जयसिंह - काठवगढ़ के राजा जिनका राज कासिम खान ने चुराया था
चन्दरसिंह - काठवगढ़ के सेनापति
तारकनाथ - सुजानगढ़ के सबसे काबिल गुप्तचर
महानन्द - सुजानगढ़ के राजगुरु शिवाचार्य के गुरु
सुलतान और छोटा पठान - दो अफगानी व्यपारी जो सूखे मेवे सुजानगढ़ में बेचते थे
रकीब खान - गुप्तचर प्रमुख
जलाल - कासम का मंत्री
घसीटाराम - सुजानगढ़ का एक ठेकेदार
चंदू - एक पानवाला

वीर की विजय यात्रा दिनेश चारण जी का पहला उपन्यास है। उपन्यास पढ़ने के बाद मैं इतना तो कह सकता हूँ कि उनके अगले उपन्यास की मुझे प्रतीक्षा रहेगी।

'वीर की विजय यात्रा' एक हिस्टोरिकल फिक्शन है। उपन्यास की पृष्ठभूमि एतिहासिक समय की है जहाँ राजा महाराजा हैं, गुप्तचर हैं, दुश्मन राज्य है और खूब सारा षड्यंत्र है। उपन्यास शुरुआत से ही पाठको को बाँधने में सफल हो जाता है। दिनेश जी ने ये चीज सुनिश्चित की है कि उपन्यास में कुछ न कुछ ऐसा होता रहे जो कि पाठक का ध्यान न भटकने दे। ऐसी घटनाओं से कथानक रोमांचक तो बनता ही है इसके अलवा पाठकों पर भी अपनी पकड़ बनाकर रखने में कामयाब होता है। अपने पहले उपन्यास में वो ये कर पाए इसके लिए वो बधाई के पात्र हैं। उपन्यास की एक अच्छी बात ये भी है इसमें जितने महिला पात्र हैं वो ताकतवर हैं। उन्हें पता है उन्हें क्या चाहिए और अपनी इच्छाओं को बताने में गुरेज नहीं करते हैं। ऐसे स्ट्रोंग महिला किरदार मुझे पसंद आते हैं। उनके विषय में मैं और जानने को उत्सुक था। स्वाति,नसरीन, फातिमा इत्यादि सारे ही मजबूत किरदार हैं। और मुझे पसंद आये। उनका हिस्सा उपन्यास में थोड़ा और होता तो मुझे अच्छा लगता। विशेषकर स्वाति का क्योंकि नसरीन को काफी जगह फिर भी मिली है।

उपन्यास में गुप्तचरों का भी योगदान है और जिस भी हिस्से में गुप्तचर होते थे उन्हें पढ़ना मेरे लिए काफी रोमांचक रहता था। मुझे ऐसे गुप्तचरी के किस्से और पढ़ने को मिले तो मजा जा जाये। मैं तारकनाथ के और किस्से पढ़ना चाहूँगा।

उपन्यास में यूँ तो कोई कमी नहीं है लेकिन एक पाठक के तौर पर जब मैं हिस्टोरिकल फिक्शन पढ़ता हूँ तो उसमें थोड़ी जटिलता की उम्मीद करता हूँ। ऐसा नहीं है कि इधर सब कुछ आराम से हो जाता है लेकिन वीर का पलड़ा ज्यदातर ऊपर ही रहता है। अगर उपन्यास के दौरान उसे कुछ असफलताएं मिलती और वो उनसे जूझकर कुछ सीख लेकर अपनी विजय यात्रा पूरा करता तो शायद उपन्यास और रोचक हो सकता था। अभी जैसा वीर है ऐसे में उसके लिए कुछ भी असम्भव नहीं लगता है।

ऐसा नहीं है उपन्यास के किरदार एक आयामी हैं। नहीं उपन्यास के किरदारों में भी शेड्स हैं जो कभी कभी  दिखते हैं। प्रद्युम्न वैसे तो जुआरी और अय्याश है लेकिन अपने दोस्त की इज्जत करता है। जरूरत पड़ने पर जिम्मेदारी भी उठाता है। कासम खान वैसे तो दुष्ट है लेकिन एक आज्ञाकारी भतीजा और अपनी बहन को दिलो जान से चाहने वाला भाई भी है। वहीं नसरीन के अन्दर भी कई तरह के शेड्स हैं जो दिनेश जी दिखाने में कामयाब हुए हैं। ये सब शेड्स किरदार को यथार्थ के निकट लाते हैं और पाठक के रूम में मैं उनके साथ उनकी ज़िन्दगी जीने लगते हूँ। उनकी जीत में खुश होता हूँ और उनकी हार और मृत्यु में दुखी। उपन्यास के ज्यादातर किरदार तीन आयामी ही हैं और ये एक अच्छी बात है। वीर के मामले में थोड़ा सा चूक हो गई लेकिन इतना चलता है।

उपन्यास में दीवारों में मौजूद कान का बहुत उपयोग किया गया है। प्लाट के कई ट्विस्ट तब आते हैं जब दो लोग बात कर रहे होते हैं और तीसरा जो कि अक्सर हीरो रहता है वो उनकी बात सुन लेता है। ये चीज मुझे थोड़ी जमी नहीं। जब मैं महल की कल्पना करता हूँ तो मन में बड़े बड़े कमरों का अक्स उभरता है और फिर जब गुप्त मंत्रणा के बारे में सोचता हूँ तो एक फुसफुसाहट सी मन में उभरती है। मैंने घरों में भी ये देखा है कि अगर कुछ ऐसी बात की जा रही है जो मोहल्ले में कोई वाद विवाद क्रिएट कर सकती है तो बोलने वाले की आवाज़ अपने आप ही धीमी हो जाती है। वो बात कहता नहीं उसे फुसफुसाता है। ऐसे में उस बात का बाहर किसी व्यक्ति को सुनाई देना लगभग असम्भव होता है। तो महल में ऐसी बात का सुनाई देना, वो भी दरवाजे के बाहर से,  मुझे थोड़ा जमा नहीं। एक बार इसका इस्तमाल किया ठीक है। लेकिन दो तीन बार नहीं करना चाहिए था। थोड़ा सोचकर कुछ और तरीका निकालता तो शायद ज्यादा बेहतर होता और उपन्यास में थोड़ा और विवधता आती।

उपन्यास के अंत से कुछ पहले रकीब खान, मंत्री जलाल और कासम के बीच के गुप्त मंत्रणा होती है। उसमें काफी अच्छी पॉवर ऑफ़ डिडक्शन दिखाई गई है। एक जासूसी उपन्यास की तरह लगता है। वो चीजों को देखकर उसका हाल समझ जाते हैं और अपना अगला कदम निर्धारित करते हैं। ये हिस्सा मुझे पसंद आया भले ही ये काम करने वाले खलनायक थे। इससे कम से कम ये तो जाहिर होता है कि खलनायक बेवकूफ तो नहीं हैं। खैर, इधर बात ये नहीं है। बात ये है कि जिस चीज पर वो पहुँचते हैं वो पाठक को शुरुआत में ही दिखाई जाती है। जब वो चीज मैंने पढ़ी थी तो मुझे पता लग गया था कि हो न हो ये कुछ न कुछ पंगा करेगी। ऐसे में जिस नतीजे में कासिम,रकीब और जालिम आते हैं वो मुझे प्रभावित तो करता है लेकिन आश्चर्यचकित नहीं। जबकि लेखक चाहते तो उस प्रसंग में उतनी ही जानकारी पाठक को देते जितनी इन तीनों को थी। और फिर आखिर में जब ये तीन अपने नतीजे पर पहुँचते तो पाठक का आश्चर्यचकित होना लाजमी था क्योंकि वो ऐसी किसी चीज की अपेक्षा नहीं कर रहा होता है। और ये ट्विस्ट उपन्यास का सबसे बेहतर ट्विस्ट बन सकता था।

उपन्यास के अंत की बात करूँ तो उपन्यास का अंत वैसे तो अच्छा है लेकिन मैंने जो अपेक्षा की थी उससे अलग है। लेकिन फिर भी मैं इसमें खुश हूँ  क्योंकि ज़िन्दगी ऐसी ही होती है। जिस चीज की अपेक्षा न हो वो हो जाती है। दुनिया में कई ऐसे योद्धा हुए हैं जिन्होंने वैसे तो दुनिया फ़तेह की लेकिन उनकी मौत इतने आम तरीके से हुई कि आप एक पल को निराश से हो जाते हो कि ऐसे चले गये क्योंकि आपके दिमाग में छवि रहती है कि ये व्यक्ति मरा होगा तो किसी लड़ाई में मरा होगा लेकिन अक्सर ऐसा नहीं होता। यही ज़िन्दगी है।

इन सब बातों के अलावा एक छोटी सी चीज थी जो शायद उपन्यास में लेखक बताने से रह गये।

पृष्ठ 107 का संवाद कुछ ऐसा है 

"वीर सफल तो होगा ही,भविष्य में उसे बहुत बड़ी जिम्मेदारी जो सम्भालनी है।" महराजा धीमी आवाज़ में कह गये।
"कैसी जिम्मेदारी महाराजा?" महामंत्री उत्सुकतावश बोले।
"वह मैं वक्त आने पर बताऊँगा।" महाराजा बोले।

महाराज के मन में इधर क्या चल रहा था? इस बात से पर्दा उपन्यास के अंत तक नहीं उठता है। उपन्यास खत्म हुआ तो मेरे मन में यही सवाल गूँजा - "अरे महराज ने तो जिम्मेदारी के विषय में बताया ही नहीं।" मैंने पृष्ठों को उलट पुलट कर देखा तो तब भी कुछ न मिला। इधर इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि महाराज चित्रसेन होंगे बड़े अच्छे राजा लेकिन उनकी यह बात मुझे बिलकुल पसंद नहीं आई।


आखिर मैं यही कहूँगा कि उपन्यास मुझे पसंद आया। इसने मेरा मनोरंजन किया। और जो बातें मैंने ऊपर लिखी हैं वो अगर इसमें शामिल होती तो शायद उपन्यास और अच्छा बनता। लेकिन उनकी कमी से उपन्यास अच्छा फिर भी है और पठनीय है। उम्मीद है आपका मनोरंजन करने में भी ये सफल रहेगा।

इस किताब को पढ़ते हुए एक बात जो मेरे मन में उठ रही थी वो ये थी कि राजा बनना बड़ी सिरदर्दी का काम है। अंग्रेजी में सही कहा गया है Uneasy lies the head that wears the crown यानी राज सिंहासन पर बैठने वाला व्यक्ति हमेशा परेशान रहता है। हर कोई आपका राज्य हड़पने की कोशिश में रहता है। आप चाहे अच्छे हों या बुरे आपको पता रहता है कि कोई न कोई ऐसा है जो समझता है कि वो आपका काम आपसे बेहतर कर सकता है और आपको आपकी पदवी से हटाने का मौक़ा देखता रह सकता है। यही चीज इधर भी दिखती है। ऐसे में आदमी का क्रूर होना प्राकृतिक होगा। उसे हर कोई अपना दुश्मन ही नज़र आएगा। बड़ी दूभर ज़िन्दगी होगी। मेरे तो यही सोच कर पसीने छूट रहे हैं। एक बात तो समझ में आती है मैं सब कुछ बन सकता हूँ लेकिन राजा नहीं। बहुत टेंशन वाला काम है, भाई।  आपका क्या ख्याल है?

अगर आपने इस किताब को पढ़ा है तो आपको ये कैसी लगी? अपने विचारों से मुझे आप कमेंट्स के माध्यम से अवगत करा सकते हैं। अगर आपने इस उपन्यास को नहीं  पढ़ा है और पढ़ने की इच्छा है तो आप निम्न लिंक के माध्यम से इसे मँगवा सकते हैं:
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किंडल

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2 Comments
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  1. धन्यवाद विकास जी इतनी विस्तृत समीक्षा के लिए

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