नेवर गो बैक | लेखक: ली चाइल्ड | शृंखला: जैक रीचर | अनुवादक: विकास नैनवाल

लीला चिरन्तन - आशापूर्णा देवी

रेटिंग : 3.5/5
किताब जनवरी 5, 2017 से जनवरी 7,2017 के बीच पढ़ा गया

संस्करण विवरण:
फॉर्मेट: पेपरबैक | पृष्ठ संख्या: 140 | प्रकाशक:  भारतीय ज्ञानपीठ | मूल भाषा: बांग्ला | अनुवादक: डॉ रणजीत साहा



पहला वाक्य:
आखिर इस घर की दीवार ढह गयी और छत भहराकर गिर गयी।

आनन्द लाहिड़ी ने फैसला ले लिया था। अपनी बहन की शादी करवाने के बाद वो संन्यास  लेने वाले थे। काफी दिनों से इस बात पर सोचने के बाद वो घड़ी आखिरकार आ ही गई और आंनद लाहिड़ी संन्यासी बन ही गये।

पीछे रह गये उनकी बीवी कावेरी और तीन बच्चे।

उनके संन्यास लेने के बाद इस परिवार के साथ क्या बीती? उनके जीवन में क्या बदलाव आया? 

यही इस उपन्यास लीला चिरन्तन की कहानी है।

मुख्य किरदार:
मौमिता लाहिड़ी - कहानी की सूत्रधार जो सत्रह साल की है
कावेरी लाहिड़ी - मौमिता की माँ
आनन्द लाहिड़ी - मौमिता के पिता जिन्होंने संन्यास ले लिया था
सानन्द लाहिड़ी - मौमिता का बड़ा भाई जो अट्ठारह साल का है
बुटकी - मौमिता की छोटी बहन
बुआ - मौमिता की बुआ
नक्षत्र - मौमिता का पड़ोसी और प्रेमी
अशीन - आनन्द के दूर के ममेरे भाई
परमा/प्रज्ञाभारती  - अशीन की पत्नी जिसने आनन्द को अभीज्ञा चक्र वालों से मिलवाया था और उन्ही के सम्पर्क में आकर आनन्द ने संन्यास लेने का फैसला किया था

मुझे ये उपन्यास पसंद आया। आशापूर्णा जी की ये पहली कृति थी जिसे मैंने पढ़ा और इतना तो तय है कि इसे पढ़ने के बाद मेरे मन में उनके लिखी बाकी रचनाओं को पढ़ने की रूचि जागी है।

कहानी पे बात करने से पहले इसके शीर्षक की बात करना चाहूँगा। मैं काफी दिनों तक इसके शीर्षक के विषय में सोचता रहा। लीला का अर्थ तो खेल करतब नाटक  होता है   और चिरन्तन यानी शाश्वत जो हमेशा से हो रहा है। मैं सोचता रहा कि वैसे लीला चिरन्तन ईश्वरीय लीला को कहते हैं जो कि शाश्वत है(ऐसे मेरे जानकार जिन्हें हम गुरूजी कहते हैं उन्होंने भी बताया था) लेकिन इस मामले में शायद वो यही नाटक है जो हमेशा से चलता आ रहा है जिसमें औरत को हेमशा से थोपे गये विचारों को सहना पड़ता है। सीता को सहना पड़ा था उन्हें भी अग्नि परीक्षा देनी पड़ी थी। द्रौपदी को सहना पड़ा था और ये तो नायिकाएं थी। आम औरतों को इनसे भी अधिक सहना पड़ता है क्योंकि उनके लिए ज़िन्दगी का एक हिस्सा है। जो आनंद और कावेरी के साथ होता है वो एक ऐसा नाटक है चिरकाल से चला आ रहा है और शायददुर्भाग्य से  चिरकाल तक चलता जायेगा।  शायद यही शीर्षक का अर्थ  भी है। हो सकता है मैं गलत होऊँ। आपका शीर्षक के विषय में क्या विचार है?आपके हिसाब से क्या है लीला चिरन्तन का अर्थ? बताईयेगा जरूर।

लीला चिरन्तन की कहानी आनन्द और कावेरी लाहिड़ी की बेटी मौमिता सुना रही है। मौमिता का किरदार मुझे पसंद आया। नैरेटर के रूप में भी मुझे मौमिता पसंद आई। डायरी ऑफ़ ऐनी फ्रैंक को छोड़कर शायद ही मैंने ऐसा कोई उपन्यास पढ़ा होगा जिसमे हम एक टीनएज लड़की की नज़र से उसकी आस पास की दुनिया को देखते हैं। मेरे लिए ये रोचक था। वो सत्रह वर्षीय युवती है जिसे लगता है कि वो अपनी उम्र से काफी समझदार है। इसका एक कारण वो ये भी मानती है कि वो प्रेम सम्बन्ध में गिरफ्त है।

कभी-कभी  मुझे लगता है कि मेरी उम्र अब कच्ची नहीं रही। लेकिन कोई उपाय नहीं था। मुझे बनानेवाले  और पालने वाले ने मुझे इसी रूप में गढ़ा था। वरना स्कूली पढ़ाई पूरी करनी के पहले ही मैं मोहल्ले के एक लड़के के साथ क्योंकर लटकी हुई थी। (पृष्ठ 16)

उसकी बातें ऐसी थी कि कभी कभी मैं मुस्कुराये बिना नहीं रह सका था। और अगर मौमिता मेरे सामने होती तो उसके गाल खींच कर सो क्यूट बोले बिया नहीं रह पाता। वो उम्र के उस पड़ाव पर है जहाँ व्यक्ति के अंदर परिपक्वता विकसित होती है लेकिन बचपना भी रहता है। ये चीज उपन्यास में आशापूर्णा जी ने बहुत खूबसूरती से दिखाई हैं।

मौमिता की नज़रों से हम परिवार में विशेषकर उसकी माँ कावेरी में होने वाले बदलावों को देखते हैं। कावेरी अपने पति के संन्यास लेने का एक बार विरोध अपने परिवार के एक बुजुर्ग के सामने करती लेकिन जब उधर उसे धर्म की दलील दी जाती है तो उसे अहसास हो जाता है कि अब सब कुछ निरर्थक है और होना वही है जो उसके पति ने चाहा था। इसके बाद वो इस चीज को आसानी से मान लेती है जो कि उसके चरित्र के विरुद्ध है। इसके बाद वो एक ऐसा नज़रिया अपना देती है कि जो हो रहा है होने दो। ये बात इसी से पता चलती है कि जब उसका बेटा राजनितिक पार्टी के सम्पर्क में आकर घर से बाहर रहने का फैसला करता है तो बिना किसी हुज्जत के उसे जाने देती है। इधर ऐसा लगता है जैसे उसने नियति के आगे घुटने से टेक दिए हैं। ये सब चूँकि हम मौमिता की नज़र से देखते हैं तो कावेरी की मनस्थिति हमे अंत तक इतनी पता नहीं चलती है। पढ़ते हुए मुझे लग रहा था कि कुछ हिस्से हम कावेरी से सुनने को मिलते और कुछ हिस्से आनंद द्वारा पाठक  को बताये गये होते तो उपन्यास की रोचकता और बढ़ जाती  और उनकी मनःस्थिति समझने में भी हमे मदद मिलती। अलग अलग पात्रों का दृष्टिकोण से बताये गये किस्से मुझे ज्यादा पसंद आते हैं।

खैर, उपन्यास में ये ही दर्शाया गया है कि कैसे औरत से उम्मीद की जाती है कि वो मर्द द्वारा किये गये फैसले को और जब उसमे धर्म जुड़ा हो बिना किसी विरोध के स्वीकार करे। कावेरी से भी यही उम्मीद करते हैं। यहाँ ये भी देखने लायक है कि किस तरह आनन्द जब संन्यास लेने का फैसला करता है तो मौहल्ले में होने वाली खुसुर फुसुर में कावेरी को ही दोषी बताया जाता है। ये कोई नयी बात नहीं है। अक्सर हमारा समाज गलती किसी की भी हो दोषी औरत को ही ठहराना पसंद करता है। लेकिन फिर एक हद तक ही औरत सहन कर सकती है और वही कावेरी के साथ होता है। (इधर और लिखूँगा तो उपन्यास की कहानी उजागर होने का खतरा सा है इसलिए अभी खाली इतना कहूँगा कि मैं उपन्यास में कावेरी के लिए फैसले के साथ था। )

उपन्यास का एक छोटा सा हिस्सा है जिसने मुझे ज्यादा प्रभावित किया। आनन्द  की छोटी बहन खुकु के विवाह के पश्चात किस तरह से खुकु अपने ही घर में पराई हो जाती है। खुकु ने अपने माँ की मृत्यु के बाद छोटी ही उम्र से उस घर को संभाला था और अचानक से शादी के बाद वो उधर मेहमान सी बन गई थी। कहानी में जब वो कावेरी से कहती है कि घर में उसका भी हिस्सा है तो सच बताऊं मुझे भी उसका व्यवहार पसंद नहीं आया था और वो बात गलत लगी थी। लेकिन अब इतने दिनों तक सोचने के बाद लगता है कि खुकु के प्रति ये कितना अन्याय था। जिस घर को उसने बचपन से सींचा वो ही उसके लिए अचानक पराया हो गया? उसकी जगह मैं अगर मैं खुद को रखकर देखता हूँ और सोचता हूँ कि अचानक से ऐसा हो जाये कि मैं अपने ही पैतृक निवास में मेहमान बन जाऊँ तो कैसा लगेगा? मेरे लिए ये कल्पना करना भी मुश्किल है। और औरतें तो ये हर वक्त महसूस करती हैं। ये बात सोचने वाली है और हम सभी को सोचनी चाहिए। उपन्यास में इस बात को जब मौमिता समझने लगती है तो उसका प्रतिक्रिया यही होती है:

यह घर कभी बुआजी का अपना घर था, बल्कि मुझसे कहीं ज्यादा उनका था। क्योंकि यह घर बुआ के पिताजी ने ही बनाया था। लेकिन आज, मैं यह सोच रही थी कि बुआ जबरदस्ती इस घर पर अपना दखल जमाना चाह रही है और इसीलिए यहाँ आयी है।
न न.. नहीं। मैं कभी शादी नहीं करूँगी।
मैं किसी भी कीमत पर अपनी इस जगह को, जहाँ मेरा जनम हुआ है, छोड़ नहीं सकती।

उपन्यास का आधार क्योंकि आनन्द के संन्यासी होना है तो हमे ये भी देखने को मिलता है कि किस तरह से बाबा लोग लोगों को ब्रेनवाश करते हैं। आनन्द किस तरह अभीज्ञा चक्र के संपर्क में आता है ये तो इतने विस्तृत तौर पर नहीं बाताया है। खाली ये बताया है कि प्रज्ञा उसे इस विषय में बताती है लेकिन उसके संन्यास के बाद के अनुभवों को दो चिट्ठी के माध्यम से, जो कि वो अपनी बहन को लिखता है , दर्शाया गया है। वो पढ़ना रोचक था। क्योंकि मैं बहुत जल्दी ही नास्तिक बन गया था तो मुझे खुद बचपन में माँ ऐसे एक दो संस्था से जोड़ने का प्रयास कर चुकी हैं। उन्हें लगता था कि उनके संपर्क में आने से मैं अध्यात्मिक और आस्तिक बन जाऊँगा।  वो अलग बात है कुछ ही महीनों में या मुश्किल से मुश्किल एक आध साल में माँ का ही उन संस्था से मोहभंग हो जाता था क्योंकि उन्हें असलियत का एहसास हो जाता था। आज भी अभीज्ञा चक्र जैसे कई संस्था हैं जो लोगों को फांसने पे लगी हुई हैं। लेकिन संन्यास शायद वो लोग अब इतना नहीं लिवाते हैं। खैर, ये मुद्दे से भटकने वाली बात है।

इसके इलावा उपन्यास के बाकी किरदार उपन्यास के अनुरूप सही चित्रित किये हैं। नक्षत्र और मौमिता के बीच के वार्तालाप पढ़ने में मुझे बहुत मजा आता था। बंगाल में एक वक्त शायद संन्यास लेने का चलन था और उसी समय को ये उपन्यास दर्शाता है। आज के वक्त में संन्यास तो शायद ही कोई लेता होगा लेकिन फिर भी औरत के लिए परिस्थितियाँ बदली नहीं है। कई मामलों में उन्हें फॉर ग्रांटेड ले लिया जाता है और फिर दोष भी उन्ही पर मढ़ा जाता है। उपन्यास ये भी दर्शाता है कि चाहे प्रेम विवाह क्यों न हो हमे रिश्तों पर काम करने की जरूरत है। हम आनंद की तरह अनुपस्थित नहीं रह सकते और फिर ये उम्मीद नहीं कर सकते कि जब उपस्थित रहे तो सब कुछ वैसा ही हो जैसा छोड़कर गये थे।

अंत में यही कहूँगा कि अगर आपने इस उपन्यास को नहीं पढ़ा है तो एक बार अवश्य पढ़िए।

अगर आपने इस किताब को पढ़ा है तो आपको ये कैसा लगा? अपने विचार कमेंट बॉक्स में जरूर दीजियेगा। अगर आप इस उपन्यास को पढ़ना चाहते हैं तो निम्न लिंक से इसे प्राप्त कर सकते हैं:
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5 Comments
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  1. औरतें भी कम नहीं होती . बहुत सी औरतें , बच्चे और बूढ़े उतने ही चालक , कमीने और हरामी होते हैं , जितने कि बहुत से आदमी ...!!

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    1. ये किस सन्दर्भ में था। इस उपन्यास का कोई भी किरदार ऐसा नहीं था जिस पर ये विशेषण फिट बैठते हो। वैसे बुराई हर किसी में भी हो सकती है। उसका उम्र और लिंग से कोई लेना देना नहीं होता। लेकिन जब हम चुनाव की बात करते हैं तो उसका अधिकार भारतीय समाज में अभी भी औरतों को मर्दों के मुकाबले कम है। ये तथ्यात्मक बात है और फिर परिवार,समाज और इज्जत का ठीकरा औरतों के मत्थे ही मढ़ा जाता है। आदमी चाहे कुछ भी करे उसे काफी कुछ माफ़ रहता है।

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  2. विकास नैनवाल जी...... आपने बड़े सुन्दर ढंग से उपरोक्त उपन्यास के किरदारों का विश्लेषण किया है..... मुझे भी लगता है परिवार में किसी भी प्रकार की घटना-दुर्घटना हो उसका प्रभाव महिलाओं👩👩👩 पर पड़ता है.... परिवार टूटने और उसके बाद परिवार पर पड़ने वाले प्रभाव का सुन्दर अनुभव आपको एक अन्य उपन्यास'पांच आंगनो वाला घर'जो गोविन्द मिश्र जी की है में भी देखने को मिलेगा... पढ़ियेगा निराश नहीं होंगे| इसके अलावा आशापूर्णा देवी का बकुल कथा भी पढ़ियेगा.....

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    1. जी आभार... आपकी सुझाई किताबें पढ़ने की कोशिश रहेगी...बकुल कथा तो मेरे संग्रह में मौजूद है....

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