रेटिंग : ५ /५
उपन्यास मार्च 3,2017 से मार्च 07,2017 के बीच पढ़ा गया
संस्करण विवरण :
फॉर्मेट : पेपरबैक
पृष्ठ संख्या : 224
प्रकाशक : रवि पॉकेट बुक्स
श्रृंखला : सुनील #94
पहला प्रकाशन : 1987
पहला वाक्य :
वह जून के महीने का आखिरी दिन था जब दोपहर के करीब विजय मेहता ने कोठी के पिछले ड्राइंगरूम में से एक जनाना रुमाल बरामद किया।
शो में इस्तेमाल होने वाले सामान में किसी ने कोई फेर बदल की थी जिससे यह दुर्घटना हुई थी। अब शक के दायरे में पार्टी में मौजूद सभी लोग थे और सबके पास अपनी बेगुनाही का पुख्ता सबूत था। पहली बार देखने से मालूम होता था कि कोई भी इस हत्या को अंजाम नहीं दे सकता था।
शक के घेरे में मरहूम ओम मेहता की पत्नी विजय मेहता के इश्क में गिरफ्तार संजय सभरवाल भी था। संजय और विजय का अफेयर कुछ दिनों से चल रहा था और अब अगर ये बात खुलती तो ओम मेहता का रकीब होने के नाते उसका फँसना तय था।
संजय चूंकि सुनील का जान पहचान का था तो उसने सुनील को इस कत्ल की गुत्थी सुलझाने के लिए बोला। क्योंकि असली कातिल का पकड़ा जाना ही संजय की जान को इस साँसत से निकाल सकता था।
जब रवि पॉकेट बुक्स ने सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के इस उपन्यास को दुबारा अमेज़न पे उपलब्ध करवाया तो मैंने बिना वक्त गवाएं इसे खरीद लिया था। रवि पॉकेट बुक्स पहले भी ऐसा कर चुका था और मुझे यकीन था कि ये उपन्यस कुछ ही दिनों के लिए उधर रहेगा और फिर हटा लिया जाएगा। आगे चलकर मेरी ये सोच सच साबित हुई और ये हटा लिया गया। लेकिन तब तक ये मेरे पास आ चुका था।
खैर,उपन्यास की बात करें तो सुनील का यह उपन्यास मुझे बहुत पसंद आया। इसमें अंत तक ये रहस्य बना रहता है कि कातिल कौन है और कि कत्ल हुआ तो हुआ कैसे? लेकिन अंत में जब राज खुलता है तो आप वाह कहने से अपने को रोक नहीं पाते। ये मेरे लिए एक satisfying read थी। पूरा पैसा वसूल।
सुनील के उपन्यास अगर आप पढ़ते हैं तो आप जानते होंगे की उसकी एक खासियत समार्ट टॉक भी है। इस उपन्यास में उसकी कमी नहीं है। सुनील के संवाद रोचक हैं और भरपूर मनोरंजन करते हैं। सुनील रमाकांत की चुहुलबाजी तो है ही लेकिन संजय सभरवाल, रूपा गुप्ता और रोशनलाल मेहता के साथ उसके संवाद भी मनोरंजक है।
सारे किरदार जीवंत और यथार्थ के निकट लगते हैं। कथानक कसा हुआ है और कहीं भी बोर नहीं करता है।
हाँ, मेरे पास जो प्रति रवि वालों ने भेजी थी उसमे कुछ दिक्कतें थी। जैसे कुछ पृष्ठों की छपाई ढंग से नहीं हुई थी इसलिए उनका होना न होना बराबर था क्योंकि कुछ पढ़ा ही नहीं जा रहा था। कुछ पृष्ठ गायब थे(२०८ के बाद के पृष्ठ को काफी थे ही नही। और जो थे वो बेतरतीब तरीके से बाइंड किये हुए थे। )।
वो तो ये गनीमत थी कि मेरे पास डेलीहंट में ई-बुक पड़ी थी तो जो हिस्से उधर गायब थे मैंने उन्हें ई-बुक में पढ़ लिया।
उपन्यास मैंने अमेज़न से खरीदा था। आप इसे डेली हंट से भी लेकर पढ़ सकते हैं क्योंकि ये उधर ही से प्राप्त होगा।
मेरे पास जो उपन्यास की प्रति थी उसमे सुधीर कोहली का लघु उपन्यास साक्षी भी था जिसके विषय में आप मेरी राय इधर पढ़ सकते हैं।
अगर आपने इस उपन्यास को पढ़ा है तो अपनी राय कमेंट बॉक्स में देना न भूलियेगा।
उपन्यास मार्च 3,2017 से मार्च 07,2017 के बीच पढ़ा गया
संस्करण विवरण :
फॉर्मेट : पेपरबैक
पृष्ठ संख्या : 224
प्रकाशक : रवि पॉकेट बुक्स
श्रृंखला : सुनील #94
पहला प्रकाशन : 1987
पहला वाक्य :
वह जून के महीने का आखिरी दिन था जब दोपहर के करीब विजय मेहता ने कोठी के पिछले ड्राइंगरूम में से एक जनाना रुमाल बरामद किया।
डॉक्टर राजदान खुद को एक हिप्नोटिस्ट कहता था। वो अक्सर इसके शो किया करता था। उसके अनुसार वो इस वैज्ञानिक विधा से ज्यादातर लोगों को वश में कर सकता था। उस दिन भी ओम मेहता की पार्टी में वो इसी शो का प्रदर्शन कर रहा था। फिर शो के दौरान एक दुर्घटना घटी और ओम मेहता की हत्या हो गयी।

शक के घेरे में मरहूम ओम मेहता की पत्नी विजय मेहता के इश्क में गिरफ्तार संजय सभरवाल भी था। संजय और विजय का अफेयर कुछ दिनों से चल रहा था और अब अगर ये बात खुलती तो ओम मेहता का रकीब होने के नाते उसका फँसना तय था।
संजय चूंकि सुनील का जान पहचान का था तो उसने सुनील को इस कत्ल की गुत्थी सुलझाने के लिए बोला। क्योंकि असली कातिल का पकड़ा जाना ही संजय की जान को इस साँसत से निकाल सकता था।
क्या ये केवल दुर्घटना थी या एक सोची समझी साजिश? और अगर साजिश तो इसके पीछे कौन था? क्या संजय ने ही इश्क के फितूर में ओम मेहता का काम तमाम किया था? क्या सुनील इस न सुलझ सकने वाली गुत्थी को सुलझाकर कातिल का पता लगा पाया?
जब रवि पॉकेट बुक्स ने सुरेन्द्र मोहन पाठक जी के इस उपन्यास को दुबारा अमेज़न पे उपलब्ध करवाया तो मैंने बिना वक्त गवाएं इसे खरीद लिया था। रवि पॉकेट बुक्स पहले भी ऐसा कर चुका था और मुझे यकीन था कि ये उपन्यस कुछ ही दिनों के लिए उधर रहेगा और फिर हटा लिया जाएगा। आगे चलकर मेरी ये सोच सच साबित हुई और ये हटा लिया गया। लेकिन तब तक ये मेरे पास आ चुका था।
खैर,उपन्यास की बात करें तो सुनील का यह उपन्यास मुझे बहुत पसंद आया। इसमें अंत तक ये रहस्य बना रहता है कि कातिल कौन है और कि कत्ल हुआ तो हुआ कैसे? लेकिन अंत में जब राज खुलता है तो आप वाह कहने से अपने को रोक नहीं पाते। ये मेरे लिए एक satisfying read थी। पूरा पैसा वसूल।

सारे किरदार जीवंत और यथार्थ के निकट लगते हैं। कथानक कसा हुआ है और कहीं भी बोर नहीं करता है।
हाँ, मेरे पास जो प्रति रवि वालों ने भेजी थी उसमे कुछ दिक्कतें थी। जैसे कुछ पृष्ठों की छपाई ढंग से नहीं हुई थी इसलिए उनका होना न होना बराबर था क्योंकि कुछ पढ़ा ही नहीं जा रहा था। कुछ पृष्ठ गायब थे(२०८ के बाद के पृष्ठ को काफी थे ही नही। और जो थे वो बेतरतीब तरीके से बाइंड किये हुए थे। )।
वो तो ये गनीमत थी कि मेरे पास डेलीहंट में ई-बुक पड़ी थी तो जो हिस्से उधर गायब थे मैंने उन्हें ई-बुक में पढ़ लिया।
उपन्यास मैंने अमेज़न से खरीदा था। आप इसे डेली हंट से भी लेकर पढ़ सकते हैं क्योंकि ये उधर ही से प्राप्त होगा।
मेरे पास जो उपन्यास की प्रति थी उसमे सुधीर कोहली का लघु उपन्यास साक्षी भी था जिसके विषय में आप मेरी राय इधर पढ़ सकते हैं।
अगर आपने इस उपन्यास को पढ़ा है तो अपनी राय कमेंट बॉक्स में देना न भूलियेगा।
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रोचक मर्डर मिस्ट्री है | सुनील के प्रतिद्वंदी को देखकर मजा आया | आगे भी रूपा गुप्ता का किरदार आया हो तो सुनील को कड़ी टक्कर मिलेगी | पढ़कर मजा आयेगा |
ReplyDeleteजी सही कहा। रूपा एक खुर्राट लड़की है जिसका अगर आगे आना जाना हो तो कथानक में रोचकता बढ़नी तय है।
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